टोकोफोबिया  भय के घेरे में मातृत्व

बच्चे को जन्म देने का सौभाग्य केवल नारीशक्ति को ईश्वर ने प्रदान किया है। लेकिन डिलीवरी के दौरान होनेवाले भयानक दर्द की आशंका से आज की नारी बहुत डरने लगी है। इसी डर को टोकोफोबिया के नाम से जाना जाता है। गर्भावस्था के दौरान उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से अत्यधिक देखभाल की आवश्यकता होती है।

मां बनने के सुखद अहसास के प्रति मन में भय और भ्रम का डेरा जमा लेना हैरान-परेशान करने वाली बात है। युवतियों की सामाजिक-पारिवारिक परिवेश से बढ़ती दूरी से लेकर गर्भावस्था से जुड़ी पेचीदगियों तक, कई कारण मातृत्व के इस भाव-चाव के रंग फीके कर रहे हैं। मौजूदा समय में बहुत सी युवतियां टोकोफोबिया की शिकार हो रही हैं।

इंडियन जर्नल ऑफ सायकाइट्री के अनुसार बहुत सी महिलाएं  बच्चे को जन्म देने के विचार और प्रसव प्रक्रिया से डरने लगती हैं। इसी डिसऑर्डर को टोकोफोबिया कहा जाता है। भारत ही नहीं दुनियाभर में स्त्रियां इस डर से जूझती हैं। प्रेग्नेंसी प्लान करने से लेकर बच्चे को दुनिया में लाने तक कितनी ही मानसिक पेचीदगियों का शिकार बनती हैं।

भय का भयावह घेरा – दरअसल, टोकोफोबिया शब्द ग्रीक भाषा के टोको और फोबिया से बना है। टोको का अर्थ है चाइल्डबर्थ और फोबिया का अर्थ है भय। प्रेग्नेंसी से पहले तो बहुत ही महिलाओं में प्रेग्नेंट होने का ही डर रहता हैं। जबकि गर्भ धारण के बाद बच्चे को जन्म देने के दौरान या डिलीवरी के बाद भी नई मां के मन को घेरे रहता है। कई महिलाओं में तो बच्चे को जन्म देने का भय बहुत गंभीर और चिंताजनक स्तर तक देखने को मिलता है।

अकेलापन और असामाजिकता जीवन आका हिस्सा बन जाते हैं।  ऐसे मामले भी सामने आए है कि महिलाओं ने प्रसव प्रक्रिया के डर से गर्भपात का रास्ता चुन लिया। तकलीफदेह है कि मूड स्विंग और एंगजाइटी की समस्या को बढ़ाने वाले टोकोफोबिया  के बारे में महिलाएं खुलकर कुछ कह भी नहीं पातीं। अंदर ही अंदर घुटती रहती हैं। ऐसे अवसाद जड़ें जमाने लगता है। ऐसी स्थितियां पति-पत्नी के सम्बन्धों से लेकर परिवार की प्लानिंग तक, हर चीज़ पर असर डालती हैं। मैसियोफोबिया या पार्ट्यूरिफोबिया के भी नाम से चर्चित इस फोबिया के घेरे में कितनी ही महिलाएं मां बनने का निर्णय नहीं ले पातीं। गर्भावस्था के दौर में असहज और असुरक्षित महसूस करती हैं।

जज्बाती जुड़ाव में बाधा – बच्चों को दुनिया में लाने का निर्णय एक सुंदर मानवीय अनुभूति है। परिवार की नई पौध के स्वागत के लिए हर सदस्य आतुर होता है। लेकिन मां बनने जा रही महिला के मन में मौजूद यह फोबिया बच्चे के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने में बाधा बनता है। कहा भी जाता है कि बच्चा सबसे पहले अपनी मां से जुड़ता है। दुनिया में आने के नौ महीने पहले ही मां से उसका रिश्ता बन जाता है। ऐसे में अगर प्रेग्नेंसी और प्रसव प्रक्रिया को लेकर हर पल डर सताता रहे तो माताएं अपने बच्चों से भावनात्मक धरातल पर मजबूती से नहीं जुड़ पातीं। यहां तक कि डिलिवरी के बाद नवजात से लाड़ प्यार जताने और बॉन्डिंग बनाने में भी उलझन होती है। इतना ही नहीं ऐसी स्थितियों में पोस्टपार्टम डिप्रेशन भी ज्यादा घेरता है।

नई और खुशनुमा जिम्मेदारी को जीने के इस प्यारे दौर में चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, बेचैनी और गुस्सा उनके व्यवहार में दिखने लगता है। इन बातों का दूसरे रिश्तों पर भी गलत असर पड़ता है। प्रसव के बाद लाड-चाव से संभाल-देखभाल करने वाले अपने भी दूरी बनाने लगते हैं, क्योंकि अधिकतर लोग मां बनने जा रही महिला या नई मां के मन में बैठे इस फोबिया को समझ ही नहीं पाते। ऐसी उलझनों के चलते शारीरिक-मानसिक समस्याओं के साथ ही यह डर भावनात्मक मोर्चे पर भी ज़िंदगी को प्रभावित करने लगता है।

कई कारण जिम्मेदार – असल में देखा जाए इस डर के पीछे केवल प्रसव पीड़ा का डर ही एक कारण नहीं है। टोकोफोबिया की शिकार महिलाओं के बढ़ते आंकड़ों के पीछे बहुत से सामाजिक-मनोवैज्ञानिक और जीवनशैली जनित कारणों की एक लंबी सूची हैं। प्रेग्नेंसी के बाद अपने शरीर में आए बदलावों की स्वीकार्यता से लेकर बच्चे की जिम्मेदारी उठाने की हिचक तक, कई चीजें महिलाओं में इस भय को बढ़ा रही हैं। आजकल बहुत ही युवतियां पढ़ाई और करियर के लिए घर से दूर रहती हैं। पहले की तरह वे घर-परिवार या रिश्तेदारी में डिलिवरी होने या बच्चों को पालने पोसने का माहौल नहीं देखतीं।

कहना गलत नहीं होगा कि व्यावहारिक रूप से किसी स्त्री की इस नई भूमिका के रंग-ढंग करीब से देखना-समझना बहुत सी गलतफहमियां दूर करता है। मातृत्व के सुखद पहलुओं से मिलवाता है। इतना ही नहीं हालिया समय में महिलाएं अपने फिगर और फिटनेस को लेकर भी बहुत सजग हुई हैं। हालांकि शारीरिक रूप से अपनी संभाल देखभाल गलत नहीं है पर मां बनने के बाद मोटापा बढ़ाने की चिंता, बच्चे के पालन-पोषण की व्यस्तता में अपनी साज-संवार से दूरी होने और सामाजिक मेलजोल में कमी आने की फिक्र भी महिलाओं को डराती है। कामकाजी मोर्चे पर करियर में ब्रेक आने या मातृत्व की जिम्मेदारी के कारण सदा के लिए विराम लग जाने की चिंता भी इस फोबिया के पीछे एक अहम कारण है।

हल तलाशें –  सबसे पहले मां बनने की अवस्था को मन स्वीकारें। अपने स्वास्थ्य और गर्भावस्था से जुड़ी स्थितियों की समझ के मामले बाकायदा सजगता से जानकारी जुटाएं। प्रेग्नेंसी से जुड़ी आधी-अधूरी जानकारियों के बजाय चिकित्सक से खुलकर बात करें। मन में डर है तो हिचकिचाहट ना रखें। डॉक्टर ही नहीं अपनों से भी खुलकर अपना हर डर साझा कीजिए। खासकर जीवनसाथी को अपने मनोभावों के उतार चढ़ावों के बारे में जरूर बताएं। प्रेग्नेंसी की उलझनों को समझने से लेकर बच्चे की परवरिश तक, इस साझी ज़िम्मेदारी को मिलकर ही उठाना है। इतना ही नहीं इस मातृत्व के इस दौर में साथ अपनों को भी देना होगा। प्रसव के गंभीर भय से पीड़ित महिलाओं को अक्सर अवसाद या चिंता बहुत ज्यादा घेरती है। कई बार तो घर की  महिलाओं के लिए भी समझना मुश्किल होता है कि कोई बहू-बेटी डिलिवरी की प्रक्रिया या बच्चे के आगमन से इतनी भयभीत भी हो सकती है? आज भी घर हो या दफ्तर अपने-पराये सभी इस प्रक्रिया को बहुत स्वाभाविक मानते हैं पर टोकोफोबिया की शिकार महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से संभालने की दरकार होती है। अपनों का साथ, चिकित्सकों की सलाह और सही उपचार मातृत्व के सफर को सुखद और सहज बना सकते हैं।

                                                                                                                                                                                    डॉ . मोनिका शर्मा 

Leave a Reply