राष्ट्रीय विचार परिवार विरोधी नैरेटिव गढ़ने वाली वैचारिकी को ना सिर्फ उनके राजनीतिक आधार वाले दल और संगठन पोषित कर रहे हैं, बल्कि हरावल दस्तों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा मुहैया करा रहे हैं। अगर किसी विपक्षी नैरेटिव वाले हरावल दस्ते पर न्यायिक कार्यवाही होती है तो वामपंथी वैचारिकी का पूरा तंत्र उनके पक्ष में खड़ा हो जाता है। आर्थिक, सामाजिक और न्यायिक सहयोग के लिए लोग मैदान में उतर आते हैं। उनके परिवार की देखभाल का जिम्मा उठा लिया जाता है। हरावल दस्तों को लगातार आर्थिक सहयोग मिलता है। उसके बरक्स राष्ट्रीय विचार परिवार की ओर से ऐसी सहूलियतें नहीं दिखतीं।
पहले मान्यता थी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति धारणाओं का खेल है, लेकिन अब दुनिया इससे आगे बढ़ चुकी है। माना जा रहा है कि राजनीति नैरेटिव का खेल है। नैरेटिव की लड़ाई में जो आगे रहा, जमीनी स्तर पर उसकी ही जीत सुनिश्चित है। नैरेटिव की लड़ाई में जो पिछड़ गया, वास्तविकता के धरातल पर उसकी चुनौतियां बढ़ना तय है। अठारहवीं लोकसभा का चुनाव इसका उदाहरण है। भारतीय जनता पार्टी विरोधी दलों और राष्ट्रवाद विरोधी विचारधारा ने कुछ नैरेटिव गढ़े, उसे जनता के बीच तेजी से फैलाया और उसका असर यह हुआ कि मतदाताओं के एक बड़े वर्ग का मन बदल गया। नतीजा सामने है, अतीत के दो चुनावों की तुलना में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत के लाले पड़ गए। विपक्ष मोदी की ताकत को सीमित करने में कामयाब रहा।
सवाल यह है कि विपक्ष ने नैरेटिव क्या गढ़ा? विपक्ष ने सोची-समझी रणनीति के तहत यह नैरेटिव गढ़ा कि अगर भारतीय जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में लौटी तो वह संविधान को बदलकर दलित और अनुसूचित वर्गों को मिलने वाले आरक्षण की व्यवस्था को खत्म कर देगी। दिलचस्प यह है कि इसका आधार भी भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं मसलन राजस्थान की पूर्व कांग्रेसी नेता और पिछले चुनाव में बीजेपी की उम्मीदवार ज्योति मिर्धा और अयोध्या वाले फैजाबाद के बीजेपी के सांसद रहे लल्लू सिंह ने बयान दे दिया कि उनकी पार्टी को संविधान बदलने के लिए भारी बहुमत की जरूरत है। दरअसल सत्रहवीं लोकसभा के आखिरी सत्र के आखिरी दिन प्रधानमंत्री मोदी ने एक नारा दे दिया, अबकी बार चार सौ पार। यानी इस बार चार सौ से ज्यादा सीटें चाहिए। चार सौ पार के नारे से अचकचाये विपक्ष को कुछ सूझ नहीं रहा था। इसी बीच बीजेपी के कुछ नवेले और पुराने बड़बोले नेताओं ने संविधान बदलने की बात कह दी। अचकचाए विपक्ष को जैसे मुद्दा मिल गया। विपक्षी दलों ने हर मंच से संविधान बदलने का जनता को डर दिखाया, आरक्षण छीन लेने का डर दिखाया। नतीजा सामने है।
जरूरी नहीं कि जो नैरेटिव हो, वह हकीकत भी हो। विशेषकर विपक्षी खेमे की ओर से गढ़े जाने वाले नैरेटिव को देखें तो पता चलता है कि हकीकत वैसा नहीं था। जैसे नागरिकता संशोधन कानून संसद द्वारा पारित किए जाने के बाद विपक्षी दलों ने जानबूझकर नैरेटिव गढ़ा कि बीजेपी मुसलमानों को देश से निकाल देगी। राष्ट्रीय नागरिकता कानून को लागू करने की जब भी बात हुई, कहा गया कि मुसलमान देश से निकाल दिए जाएंगे। हैदराबाद के छात्र रोहित वेमुला ने अपने निजी कारणों से आत्महत्या की तो उसकी मौत को लेकर विपक्षी खेमे ने नैरेटिव गढ़ा कि बीजेपी राज में दलितों के लिए जगह नहीं है। जबकि हकीकत यह रही कि खुद वेमुला दलित था ही नहीं। देश में कृषि सुधार वाले जब तीन कानून पारित किए गए, तब भी नैरेटिव फैलाया गया कि मोदी सरकार किसान विरोधी है। संघ विचार परिवार को लेकर नैरेटिव को तकरीबन स्थापित कर ही दिया गया है कि यह हिंसक और गैर बराबरी वाले लोगों का समूह है।
सूचना क्रांति के दौर में नैरेटिव को तेजी से फैलाना आसान है। वैज्ञानिक तौर पर यह साबित हो चुका है कि विजुअल का प्रभाव जल्दी पड़ता है। सूचना क्रांति के जरिए फेक नैरेटिव को स्थापित करने वाले विडियो संदेशों का इसीलिए ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। कहना न होगा कि इसमें राष्ट्रीय विचारधारा विरोधी कहीं ज्यादा सक्रिय हैं, कहीं ज्यादा सुनियोजित ढंग से काम कर रहे हैं। इसलिए अक्सर अपना नैरेटिव फैलाने में वे सफल रहते हैं।
अव्वल तो होना यह चाहिए था कि विपक्षी खेमे की ओर से खड़े किए जाने वाले नैरेटिव का तार्किक ढंग से जवाब दिया जाता, लेकिन दुर्भाग्य वश ऐसा ना तो राष्ट्रीय विचार परिवार की ओर से होता दिख रहा है और ना ही भारतीय जनता पार्टी की ओर से। अगर सोशल मीडिया पर विपक्षी नैरेटिव फैलाने वाले दस्तों के खिलाफ कोई हरावल दस्ता नजर आता भी है तो उसमें ज्यादातर लोग स्वस्फूर्त हैं, जो राष्ट्रीय विचार परिवार से स्नेह रखते हैं, जिन्हें भारतीयता से प्यार है। भारतीय संस्कृति और विचार परिवार के प्रति वे निष्ठावान हैं। इसलिए वे अक्सर फेक नैरेटिव के खिलाफ अपने दम पर तलवार लेकर निकल पड़ते हैं और अपने दम पर जितना बन पड़ता है, तलवार चलाते हैं। कई बार वे विजयी होते हैं तो ज्यादातर बार वे विपक्षी हरावल दस्तों के सुनियोजित हमले के आगे कमजोर साबित होते हैं।
राष्ट्रीय विचार परिवार विरोधी नैरेटिव गढ़ने वाली वैचारिकी को ना सिर्फ उनके राजनीतिक आधार वाले दल और संगठन पोषित कर रहे हैं, बल्कि हरावल दस्तों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा मुहैया करा रहे हैं। अगर किसी विपक्षी नैरेटिव वाले हरावल दस्ते पर न्यायिक कार्यवाही होती है तो वामपंथी वैचारिकी का पूरा तंत्र उनके पक्ष में खड़ा हो जाता है। आर्थिक, सामाजिक और न्यायिक सहयोग के लिए लोग मैदान में उतर आते हैं। उनके परिवार की देखभाल का जिम्मा उठा लिया जाता है। हरावल दस्तों को लगातार आर्थिक सहयोग मिलता है। उसके बरक्स राष्ट्रीय विचार परिवार की ओर से ऐसी सहूलियतें नहीं दिखतीं। अगर कोई अपने नैरेटिव को लेकर निशाने पर आता है तो उसे किनारे छोड़कर विचार धारा आगे बढ़ने की कोशिश करती है। इसके बाद नैरेटिव की लड़ाई लड़ने या फेक नैरेटिव का विरोध करने वाले की लड़ाई अकेले की हो जाती है। ऐसे में फैक नैरेटिव विरोधी योद्धाओं के लिए आगे निकल पाना आसान नहीं रह जाता। इस तथ्य को राष्ट्रीय विचार परिवार वाली सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक ताकतों को समझना होगा।
सामूहिकता और परिवारबोध के साथ हरावल दस्तों को आर्थिक, न्यायिक और सामाजिक सुरक्षा का तंत्र बनाना पड़ेगा। तभी जाकर फेक नैरेटिव की हकीकत की गंदगी को समाज के सामने रखा जा सकेगा। तभी उसका पर्दाफाश राष्ट्रीय विचार परिवार के हरावल दस्ते कर सकेंगे। अगर उन्हें सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक इंसेंटिव की गारंटी नहीं होगी तो भला वे क्यों आगे आएंगे।
नैरेटिव की लड़ाई में एक और बात देखी जाती है। अक्सर विपक्षी खेमा नैरेटिव गढ़ता है और राष्ट्रीय विचार परिवार उसकी गंदगी और हकीकत को सामने लाने में अपनी पूरी ऊर्जा झोंक देता है। अपने देश की नैरेटिव की लड़ाई को आधुनिक क्रिकेट मैच से तुलना करें तो कह सकते हैं कि वामपंथी और राष्ट्रीय विचार परिवार विरोधी मानसिकता फेक नैरेटिव के जरिए अपना पिच तैयार करता है। फिर उस पर बल्लेबाजी करने के लिए राष्ट्रीय विचार परिवार को वह मजबूर करता है। चूंकि पिच की उसे गहरी जानकारी होती है, उसे पता होता है कि कब गुगली डालनी है, कब बाउंसर मारना है और कब गेंद को स्विंग करानी है और अक्सर अपने विपक्षियों यानी राष्ट्रीय विचार परिवार के बल्लेबाजों को आउट करने में कामयाब रहता है। चूंकि उसे पिच की जानकारी होती है, इसलिए वह अपने हिसाब से बल्लेबाजी भी कर लेता है। ऐसा कम देखा गया है कि राष्ट्रीय विचार परिवार अपने लिए नैरेटिव की क्रिकेट पिच तैयार किया हो। जिस पर विपक्षियों को आने के लिए मजबूर कर पाया हो, जहां वह अपने हिसाब से गुगली फेंक पाया हो या गेंद को स्विंग कराने में कामयाब रहा हो।
ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि राष्ट्रीय विचार परिवार के जिन लोगों के हाथ नैरेटिव गढ़ने या विपक्षी नैरेटिव को जवाब देने की जिम्मेदारी हासिल है या जिनके पास सहूलियतें होती हैं, वे उस तरह कल्पनाशील नहीं है, जैसी आज के दौर में नैरेटिव की लड़ाई के हरावल दस्तों की जरूरत है। जो कल्पनाशील हैं, ऐसे मुकाबलों के लिए जिनके पास बौद्धिक क्षमता है, जो मानसिक रूप से तैयार हो सकते हैं, उन्हें या तो सहूलियत हासिल नहीं है या फिर उन्हें मौके नहीं दिए जाते। इन समस्याओं की ओर ईमानदारी से ध्यान दिया जाना होगा। तभी नैरेटिव की लड़ाई में राष्ट्रीय विचार परिवार आगे बढ़कर ना सिर्फ मुकाबला कर सकेगा, बल्कि अपनी पिच पर नैरेटिव का अपने मनमुताबिक क्रिकेट खेल सकेगा।
लेखक – उमेश चतुर्वेदी