अभिव्यक्ति की आजादी समाप्त कर दी गई, प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर उसको भी प्रतिबंधित कर दिया गया। कोई भी समाचार पत्र सरकार की अनुमति के बिना कुछ भी प्रकाशित नहीं कर सकते थे। चार न्यूज एजेंसियों को एक कर उसे सरकारी नियंत्रण में ले लिया गया था। लगभग चार हजार अखबारों को जब्त कर दिया गया तथा 327 पत्रकारों को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। ढ़ाई सौ अख़बारों का विज्ञापन बंद कर दिया गया तथा सात विदेशी पत्रकारों को देश से निकाल दिया गया। दर्जन भर विदेशी पत्रकारों के भारत में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई तो कई को भारत से बाहर निकाल दिया गया। ऐसी अलोकतांत्रिक कार्रवाई करने वाली कांग्रेस पार्टी आज संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी की बात करती है तो हास्यास्पद लगती है।
आपातकाल: अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक व अत्याचार का काल
प्रताड़ना की पराकाष्ठा को याद कर कांप उठता हर भारतीय
कांग्रेस की काली करतूतों की अवधि थी इमर्जेंसी
भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। विडंबना रही कि भारत को सदियों तक शासकीय प्रताड़ना झेलनी पड़ी। मुगलों के शासन में धार्मिक आधार पर लोगों को प्रताड़ित किया जाता रहा है तो अंग्रेजों के शासन में शोषण के जरिए जनता प्रताड़ित होती रही। देश अंग्रेजी दासता से मुक्त हुआ तो यह उम्मीद जगी कि भारत अब प्रताड़ना के दंश से मुक्त हुआ। लेकिन देश के आजाद होने के लगभग दो दशक बाद 1975 से 1977 तक जनता को ऐसी प्रताड़ना झेलनी पड़ी, जो प्रताड़ना की पराकाष्ठा थी।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के इतिहास का वह एक काला अध्याय था। 25 जून 1975 से 21मार्च 1977 तक 21 महीने की अवधि में भारत प्रताड़ना की दौर में रहा। स्वतंत्र भारत के इतिहास का यह सबसे अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक एवं राजनीतिक अत्याचार का काल था। देश में सभी चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। मानवाधिकारों को कुचल दिया गया। तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया। अभिव्यक्ति की आजादी समाप्त कर दी गई, प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर उसको भी प्रतिबंधित कर दिया गया। कोई भी समाचार पत्र सरकार की अनुमति के बिना कुछ भी प्रकाशित नहीं कर सकते थे। चार न्यूज एजेंसियों को एक कर उसे सरकारी नियंत्रण में ले लिया गया था। लगभग चार हजार अखबारों को जब्त कर दिया गया तथा 327 पत्रकारों को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। ढ़ाई सौ अख़बारों का विज्ञापन बंद कर दिया गया तथा सात विदेशी पत्रकारों को देश से निकाल दिया गया। दर्जन भर विदेशी पत्रकारों के भारत में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई तो कई को भारत से बाहर निकाल दिया गया। ऐसी अलोकतांत्रिक कार्रवाई करने वाली कांग्रेस पार्टी आज संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी की बात करती है तो हास्यास्पद लगती है।
सरकार के अलोकतांत्रिक गतिविधियों का विरोध करने के लिए राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर स्वयंसेवकों को यातनाएं दी गई। पुलिस इस संगठन पर क्रूरता के साथ टूट पड़ी थी। उसके हजारों कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। लाखों स्वयंसेवकों ने प्रतिबंध और मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन में भाग लिया।
कांग्रेस सरकार की तानाशाही ऐसी थी कि सभी विपक्षी दलों के नेताओं और सरकार के आलोचकों को गिरफ्तार करने और सलाखों के पीछे भेजने के बाद पूरा देश अचंभित होने की स्थिति में आ गया था। लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जननायक कर्पूरी ठाकुर समेत विपक्ष के तमाम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
आपातकाल की घोषणा के बाद पंजाब में विरोध मुखर हुआ। सिख नेतृत्व ने भी कांग्रेस के इस करतूत का विरोध किया। अमृतसर में बैठकों का आयोजन किया, जहां उन्होंने “कांग्रेस की फासीवादी प्रवृत्ति” का विरोध करने का संकल्प किया। इस तरह देश के सभी राज्यों में केंद्र सरकार की तानाशाही के खिलाफ आंदोलन मुखर होता गया। राज्य की विधानसभाओं से विपक्षी विधायकों ने इस्तीफा देना शुरू किया।
1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में दी गई चुनौती के बाद से देश में राजनीतिक उथल पुथल का दौर शुरू हुआ। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में माना कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया। इसलिए जन प्रतिनिधित्व कानून के अनुसार उनका सांसद चुना जाना अवैध करार देकर छह साल तक उनके कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गई। ऐसी स्थिति में इंदिरा गांधी के पास प्रधानमंत्री पद छोड़ने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। अदालत ने कांग्रेस पार्टी को नया प्रधानमंत्री बनाने के लिए तीन हफ्तों का समय दिया था। इस समय देश में ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का माहौल बना दिया गया था। ऐसे माहौल में इंदिरा के होते किसी और को प्रधानमंत्री कैसे बनाया जा सकता था? इंदिरा गांधी अपनी ही पार्टी में किसी पर भी विश्वास नहीं करती थीं।
उन्होंने तय किया कि वे इस्तीफा देने के बजाय 3 हफ़्तों की मिली मोहलत का फायदा उठाते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के फैसले पर पूर्ण रोक लगाने से इंकार कर दिया। बिहार और गुजरात में कांग्रेस के खिलाफ छात्रों का आन्दोलन उग्र हो रहा था। बिहार में इस आन्दोलन का नेतृत्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की रैली थी। उन्होंने इंदिरा गांधी पर देश में लोकतंत्र का गला घोंटने का आरोप लगाया और रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता के अंश ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का नारा बुलंद किया था। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने विद्यार्थियों, सैनिकों और पुलिस वालों से अपील कि वे लोग इस दमनकारी निरंकुश सरकार के आदेशों को ना मानें, क्योंकि कोर्ट ने इंदिरा को प्रधानमन्त्री पद से हटने को बोल दिया है। महज इसी रैली के आधार पर इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने का फैसला किया था। इंदिरा गांधी के खिलाफ पूरे देश में जन आक्रोश बढ़ रहा था। इसमें छात्र और सम्पूर्ण विपक्ष एकजुट हो गए थे।
इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने का सबसे बड़ा बहाना जयप्रकाश नारायण द्वारा बुलाया गया असहयोग आन्दोलन था। इसी आधार पर 26 जून 1975 की सुबह राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा कि जिस तरह का माहौल देश में एक व्यक्ति अर्थात जयप्रकाश नारायण द्वारा बनाया गया है, उसमें यह जरूरी हो गया है कि देश में आपातकाल लगाया जाए। इसके साथ ही तत्कालीन भारतीय संविधान की धारा 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर दी गई।आपातकाल लागू होने के साथ ही विरोध की लहर और तेज़ होती रही। अंततः प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला जनता को नागवार लगा। इस अत्याचार का विरोध की अगुवाई करने वाले लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने इसे ‘भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि’ कहा था।
1977 में हुए लोकसभा चुनाव में ख़ुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। आजादी के 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली। इस नई सरकार में जननेता अटल बिहारी वाजपेयी ने विदेश मंत्री के रूप में दुनिया के सामने भारत की जो तस्वीर पेश की, उसे आज भी लोग याद कर रहे हैं। अटलजी ने पहली बार संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में अपना भाषण देकर दुनिया को भारत की भाषा की महत्ता समझाई। सूचना व प्रसारण मंत्री के रूप में लालकृष्ण आडवाणी ने सरकारी संचार माध्यमों को स्वायत्तता प्रदान कर लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की।
देश में लगाए गए आपातकाल को भारत के राजनीतिक इतिहास की एक कलंक कथा के रूप में याद की जाती है। जेल में कैद के दौरान भारत रत्न अटलबिहारी वाजपेयी की कविताओं में उस समय की स्थिति का आकलन है :-
अनुशासन के नाम पर, अनुशासन का खून
भंग कर दिया संघ को, कैसा चढ़ा जुनून
कैसा चढ़ा जुनून, मातृपूजा प्रतिबंधित
कुलटा करती केशव-कुल की कीर्ति कलंकित
यह कैदी कविराय तोड़ कानूनी कारा
गूंजेगा भारत माता की जय का नारा।
– तरुण चुघ…
(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री हैं)