अंतत: पुराने साथी साथ आये

महाराष्ट्र की जनता के बीच पिछले कई दिनों से जिस भाजपा शिवसेना गठबंधन को लेकर उत्सुकता बनी हुई थी उसका पटाक्षेप भाजपा शिवसेना गठबंधन सरकार के साकार होने के साथ हो गया। उसके बाद सम्पन्न शपथ ग्रहण समारोह में शिवसेना के मंत्रियों के द्वारा ली गई शपथ के बाद मंत्रियों के विभागों का बंटवारा व गठबंधन सरकार के काम को लेकर जनता का सशंकित रहना स्वाभाविक था।

चुनाव परिणामों के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस द्वारा सरकार को दिए गए बिना शर्त सर्मथन से शिवसेना के लिए अलग समस्या पैदा हो गई। इस घटनाक्रम के कारण भाजपा शिवसेना को गठबंधन बनाने में अनपेक्षित लम्बा समय लगा।

शिवसेना ने भी भाजपा के सामने गठबंधन के लिए उप मुख्यमंत्री पद व महत्वपूर्ण विभागों की मांग रखकर कठ़ोर रवैया अपना लिया था। इसके लिए विधान सभा में १२२ विधायकों वाली भाजपा कभी तैयार नहीं हो सकती थी। शिवसेना १९८९ से अब तक बड़े भाई की भूमिका में थी, उसे अब छोटे भाई की भूमिका में आना पड़ा। इस असहज स्थिति को स्वीकार करना शिवसेना के लिए असहनीय ही था। यह सच है कि शिवसेना के विधायकों की संख्या में वृद्धि तो हुई पर भाजपा विधायकों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। सच्चाई के इस कड़वे घूंट को निगलने के लिए भी शिवसेना तैयार नहींं थी। इन घटनाक्रमों से उत्पन्न ऊहापोह की स्थिति के कारण एक ओर शिवसेना गठबंधन में जाने से कतरा रही थी, दूसरी ओर उसके पास गठबंधन में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। चलो अब भाजपा शिवसेना गठबंधन हो गया, फडणवीस सरकार को स्थिरता मिली, सरकार बचाने के लिए राष्ट्रवादी के सर्मथन के धर्मसंकट से भाजपा मुक्त हुई। साथ ही ध्वनिमत के दौरान जिन तकनीकी मुद्दों के सहारे भाजपा को सरकार को बचाना पड़ा, उसकी पुनरावृत्ति से भी भाजपा बच गई। गठबधंन के ये सब लाभ तो दिखाई दे रहे हैं।

इसी बहाने १९९० के दशक से प्रारंभ हुई गठबंधन की राजनीति की चर्चा करना जरूरी भी है और प्रासंगिक भी। १९८९ में वी.पी.सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार को केन्द्र में पहली गठबंधन सरकार माना जाता है। इस विषय में यद्यपि राजनीतिक पंडितों में मतभेद है। एक वर्ग का मानना है कि माकपा व भाजपा ने सरकार को बाहर से समर्थन दिया था। ये दल सरकार में सम्मिलित नहींं थे इसलिए इसे गठबंधन सरकार कहना ठीक प्रतीत नहीं होता। यदि इन तर्कों को मान भी लें तो १९९६ में सत्ता में आई वाजपेयी सरकार पहली गठबंधन सरकार थी। महत्वपूर्ण बात यह कि इस गठबंधन सरकार व बाद बनी गठबंधन सरकारों को बनाने में राजनीतिक सिद्धांत कोई मुद्दा नहीं था। केवल सुविधा एवं सत्ता की राजनीति को सर्वोपरि मानकर गठबंधन बने।

इससे भी पहले की बात करें तो १९६७ के आम चुनाव में डॉ. राम मनोहर लोहिया के मार्गदर्शन में गैर कांग्रेसी दल एक साथ आए। संयुक्त विधायक दल की सरकार भी सत्ता में आई। पर उस समय गैर कांग्रेसी दलों का गठबंधन का आधार घृणा की हद तक कांग्रेस का विरोध ही रहा। १९८९ में भी माकपा ने वी. पी. सिंह सरकार को बाहर से सर्मथन किसी सिद्धांत के आधार पर नहीं दिया, माकपा का उद्देश्य केवल कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखना था।

परंतु १९८९ में महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना का गठबंधन हिन्दुत्व के मुद्दे पर हुआ था। इस गठबंधन ने १९९० के चुनावों से ही महाराष्ट्र की राजनीति को प्रभावित किया। १९९५ में यह गठबंधन सत्ता में भी आया। हालांकि यह गठबंधन हिन्दुत्व के मुद्दे पर बना था पर ‘अलग विदर्भ की मांग’ जैसे मुद्दों पर इन दोनों दलों में मतभेदों के बावजूद गठबंधन मेें दरार पडे़ ऐसा अवसर कभी नहीं आया।

अक्टूबर २०१४ के विधान सभा चुनाव परिणामों के कारण एक अलग दृश्य सामने आया। इस चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। चुनाव के पूर्व हालांकि सभी मोर्चे व गठबंधन टूट गए थे। पर चुनाव परिणाम से यह साफ दिखाई दे रहा था कि इच्छा हो या ना हो सत्ता चाहिए तो गठबधंन करना ही होगा। देखा जाए तो महाराष्ट्र में १९९५ से भाजपा-शिवसेना गठबधंन की सरकार हो या कांगेस -राष्ट्रवादी कांग्रेस की मोर्चा सरकार सत्ता में रही। वर्तमान फडणवीस सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है। परंतु पहले की गठबधंन और मोर्चा सरकार से वर्तमान गठबंधन सरकार में अतंर है। इसके पूर्व की सरकारों में दो प्रमुख दलों में विधायकों की संख्या में बहुत अंतर नहीं था। १९९५ की सेना-भाजपा सरकार में भी शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में थी पर दोनों के विधायकों की संख्या में भारी अंतर नहीं था। यही बात कांग्रेस राष्ट्रवादी कांग्रेस सरकार में भी थी। यही कारण था कि राष्ट्रवादी कांग्रेस उपमुख्यमंत्री पद की दावेदार बनी। सारांश में कहा जाए तो जब गठबंधन के दलों में विधायकों की संख्या में बड़ा अंतर नहीं होता तो गठबंधन आसान हो जाता है।

जब दल क्रमांक १ भाजपा व दल क्रमांक २ शिवसेना में विधायकों की संख्या में लगभग दुगुना अंतर हो तो गठबंधन के बातचीत के मुद्दे शीघ्र नहीं सुलझते। उसमें भी गठबंधन में बड़े भाई को छोटा भाई बनना पड़े तो बातचीत अधिक लंबी खिंच जाती है। महाराष्ट्र में यही हुआ। अब हल भी निकल चुका है और गठबंधन की सरकार भी बन चुकी है। गठबंधन का निर्णय होने के बाद मुख्यमंत्री फडणवीस ने मीडिया से कहा कि यह गठबंधन की सरकार है व शीघ्र ही यह महागठबंधन की सरकार होगी।

भारत में चल रही गठबधंन की राजनीति में एक बात ध्यान रखने योग्य है। १९९८ में भारत में भाजपा के साथ बनी गठबंधन सरकार में भाजपा राष्ट्रीय दल था तो उसके साथ लगभग डेढ़ दर्जन क्षेत्रीय दल थे। वे क्षेत्रीय दल उन्हीं प्रांतों के थे जहां भाजपा का बड़ा जनाधार नहींं था, जैसे तमिलनाडु, आंध्र आदि। इसलिए इन क्षेत्रीय दलों को भाजपा से कोई भय नहींं था।

यही बात कांग्रेसनीत मोर्चा पर भी लागू होती है। मनमोहन सिंह सरकार में वे ही दल सम्मिलित थे जहां कांग्रेस शक्तिशाली नहींं थी। इसी राजनीतिक वास्तविकता के आधार पर भाजपा ने पांच वर्ष एवं कांग्रेस ने दस वर्ष शासन किया। इस परिपेक्ष्य में आज महाराष्ट्र की राजनीति पर विचार करना उचित होगा। आज तो भाजपा शिवसेना एक साथ आए यह सच है। आनेवाले समय में भाजपा की शक्ति बढ़ती है तो क्या यह गठबंधन संभव रहेगा? यह बड़ा सवाल है। आज भाजपा की शक्ति जिस गति से पूरे देश में बढ़ रही है, उसे देखते हुए महाराष्ट्र में २०१९ में विधान सभा चुनाव का परिदृश्य क्या होगा यह कहना कठिन हो सकता है पर असंभव नहींं है। भाजपा को यदि स्वतंत्र सत्ता चाहिए तो उसे शिवसेना की बढ़त को रोकना ही होगा। भाजपा व शिवसेना दोनों दलों का जनाधार समान है। ऐसी स्थिति में भाजपा की ताकत बढ़ने का मतलब शिवसेना की ताकत कम होना है। यह समीकरण कड़वा है पर एक राजनीतिक सच्चाई है। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं यह पुरानी समझ है। भाजपा के साथ अन्य प्रांतों में बने गठबंधन में यह मुद्दा नहीं था, पर महाराष्ट्र में क्योंकि भाजपा और शिवसेना दोनों का वैचारिक धरातल हिन्दुत्व ही है इसलिए आज भाजपा शिवसेना गठबंधन बन भी गया तो भविष्य में उसका क्या होगा यह सवाल बना ही रहेगा।

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