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बंगाल में बदलाव की तेज बयार

बंगाल में बदलाव की तेज बयार

by जगदीश उपासने
in जनवरी- २०१५, राजनीति
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पश्चिम बंगाल के बदनाम चिटफंड घोटाले में संलिप्तता के आरोप में राज्य के परिवहन और खेल मंत्री तथा सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के ताकतवर नेता मदन मित्रा की गिरफ्तारी से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जैसी गुस्साई हैं, वैसी तो वे इस घोटाले में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के दो राज्यसभा सदस्यों, एक पूर्व डीजीपी समेत पार्टी के कई छोटे-बड़े नेताओं की गिरफ्तारी पर भी नहीं गुस्साई थीं। घोटाले की जांच कर रही एजेंसी सीबीआइ, एनआइए से लेकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी तक को धमकी देने का उनका अंदाज एक भयभीत नेता की छवि पेश कर रहा है। यह अकारण नहीं है। मित्रा दो दशकों से ममता के अभिन्न सहयोगी हैं, एक तरह से संगठन में उनके दाएं हाथ और वामपंथियों से लंबे खूनी संघर्ष में तृणमूल को बंगाल में खड़ा करने में उनकी महती भूमिका रही है। मित्रा जैसे कद्दावर नेता की गिरफ्तारी ने ममता की पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं को भीतर से हिलाकर रख दिया है, पार्टी की ईमानदार छवि में उनका विश्वास इस गिरफ्तारी से कहीं दरक गया है। लेकिन बात बस इतनी ही नहीं है। ममता और उनके नेताओं-कार्यकर्ताओं की घबराहट के असली कारण जांच एजेंसियों की त्वरित कार्रवाइयों से कहीं इतर हैं। ममता और उनकी पार्टी तृणमूल दरअसल उस गंभीर राजनैतिक चुनौती से पसीना-पसीना हो रही हैं जो केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने उनके सामने पेश की है। केंद्रीय राजनीति में मोदी के उभार से पहले राज्य में हाशिये पर रही तथा चुनावी परिणामों में ‘अन्य’ दलों की सूची में मानी जाती रही भाजपा अपने आक्रामक रुख के कारण एक तरह से राज्य में मुख्य विपक्ष की भूमिका में आ गई है। तृणमूल के वर्चस्व वाले दक्षिणी भाग में पार्टी को मिल रहा जबरदस्त समर्थन तृणमूल के छक्के छुड़ा रहा है। कहने को तो पार्टी अपने दम पर पहली बार एकमात्र विधानसभा सीट-वह भी उपचुनाव में-जीत पाई है लेकिन तृणमूल, माकपा और उसके वामपंथी सहयोगी दलों तथा कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी तो लोकसभा चुनाव के परिणामों ने ही बजा दी थी। इससे पहले १९९९ में भाजपा ने उपचुनाव में अशोकनगर की सीट तृणमूल के समर्थन से जीती थी। लेकिन २०१४ में मोदी के नेतृत्व में लड़े गए लोकसभा चुनाव में भाजपा पहली बार न केवल एक लोकसभा सीट जीतने में सफल रही, बल्कि उसका वोट प्रतिशत १९९९ के लोकसभा चुनाव के ६.१५ प्रतिशत से बढ़कर सीधे १७ प्रतिशत हो गया। और बशीरहाट (दक्षिण) की जो विधान सभा सीट पार्टी ने उपचुनाव में अपनी झोली में डाली और जिस चौरंीलेन विधान सभा सीट पर वह दूसरे नंबर पर रही, वहां पार्टी का वोट प्रतिशत तृणमूल के ३९ फीसदी के मुकाबले ३१ प्रतिशत रहा। अब सत्तारूढ़ तृणमूल को डर है कि भाजपा वोटों का यह अंतर भी कहीं जल्दी ही पाट न लें।

राज्य में भाजपा के सदस्यता अभियान में लोगों का बढ़-चढकर शामिल होना और भाजपा नेताओं की अप्रत्याशित रूप से विशाल आम सभाएं राज्य में पार्टी के बढ़ते जनसमर्थन का संकेत देती हैं। भाजपा ने राज्य में ५० लाख सदस्य बनाने का लक्ष्य रखा है और कोलकाता जैसे महानगरों समेत तमाम छोटे-बड़े शहरों-कस्बों के अलावा तृणमूल के गढ़ दक्षिण बंगाल सहित उत्तरी बंगाल तक में पार्टी के कार्यालयों में जैसी भीड़ उमड़ रही है वह दिखाती है कि ममता के पैरों तले से जमीन कितनी तेजी से खिसक रही है। नवंबर के अंत में कोलकाता में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की विशाल आमसभा, वह भी तृणमूल सरकार के अडंगों के बावजूद, के बाद ममता की घबराहट और बढ़ गई है। शाह ने २०१५ में होने वाले कोलकाता नगर निगम सहित राज्य के ८३ नगर निकायों के चुनाव तथा २०१६ के विधान सभा चुनाव के लिए पार्टी के अभियान का श्रीगणेश कर दिया है। भाजपा के आक्रमण का लक्ष्य ममता और उनकी पार्टी है और वह भी उन दो मुद्दों पर जो तृणमूल के गले की फांस बन गए हैं। पार्टी का आरोप है कि ‘तृणमूल नेताओं ने शारदा चिटफंड घोटाले के जरिए गरीबों को लूट लिया और बंगाल को आतंकवाद का गढ़ बना दिया।’ आरोप है कि शारदा चिटफंड में शामिल २०० से अधिक कंपनियों ने छोटी बचत, ॠणपत्र, सावधि जमा के नाम पर बंगाल, उत्तर-पूर्व के राज्यों, झारखंड, बिहार से लेकर ओडीशा तक के १६ लाख से अधिक छोटे निवेशकों के ३६,००० करोड़ रूपये से ज्यादा रकम का गोलमाल किया। इन निवेशकों में बहुसंख्या बंगाल के गरीबों की है जिन्होंने शारदा चिटफंड कंपनी के कर्ताधर्ताओं के साथ तृणमूल के नेताओं की निकटता के कारण कंपनी पर भरोसा करके अपना गाढ़ी कमाई का धन उसमें जमा किया। तृणमूल के बड़े से लेकर छोटे नेता-कार्यकर्ता तक शारदा कंपनी के कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे, उसके कार्यालयों में हाजिरी बजाते रहे। जब कंपनी के गोलमाल पर से परदा उठा और ममता की सरकार ने गरीबों के धन की भरपाई के लिए नियत की गई ५० करोड़ रूपये की राशि बांटने में भी ़गडबड़ी और विलंब किया तो बंगाल के गरीब का भरोसा ममता पर से उठने लगा जिन्हें उसने अपने ‘उद्धारक’ के रूप में सत्ता सौंपी थी। भाजपा ने तृणमूल की यह कमजोर नस दबा दी है।

अमित शाह की विशाल सभा के बाद से ममता की जबान पर सिर्फ भाजपा का नाम है। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब वे भाजपा को कोसती न हों। अपनी ‘लोकप्रिय’ मुख्यमंत्री द्वारा महज एक विधायक रखने वाली पार्टी को हर रोज राज्य के लिए ‘खतरा’ घोषित करने से तृणमूल के सामान्य कार्यकर्ता अचंभे में हैं। पार्टी के आम कार्यकर्ताओं, खासकर ग्रामीण अंचलों में, अधिकतर वे हैं जो राज्य में तृणमूल के उभार के बाद बड़ी आशा के साथ ममता की पार्टी से जुड़े थे। उन्हें विश्वास था कि ३४ वर्ष के दमनकारी माकपा शासन को उखाड़ फेंकने वाली ममता गरीबी, अज्ञान और असमानता से उन्हें मुक्ति दिलाकर उनका उद्धार करेंगी। लेकिन २०११ के विधान सभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत लेकर वाम मोर्चा को सत्ता से बेदखल करने वाली ममता और उनकी पार्टी वास्तविक अर्थ में वाम मोर्चे का विकल्प बन गईं। तृणमूल के कार्यकर्ता भी वही करने लगे जो कल तक वामपंथी करते थे। गुंडागर्दी, हिंसा, आलोचना की आवाजों का गला घोटना, रंगदारी और मुस्लिम तुष्टीकरण, विरोधी दलों के नेता-कार्यकर्ताओं की क्रूरता से हत्याएं, उनकी सभाएं उध्वस्त करने, विरोधियों के पार्टी दफ्तर और निवास नष्ट करने को बमों और दूसरे हथियारों का वही प्रयोग, तृणमूल या ममता की आलोचना करने वाले किसी भी सामान्य व्यक्ति तक को आतंकित करने के लिए पार्टी के गुंडा तत्वों तथा प्रशासन का बेजा इस्तेमाल और राजधानी कोलकाता से लेकर राज्य के हर छोटे-बड़े बाजारों, दुकानों, कंपनियों से हर महीने नियमित रूप से अवैध वसूली. राज्य के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर पीछे हट जाने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ए.के. गागुंली, जिन्होंने २जी घोटाले में ऐतिहासिक फैसला देकर ख्याति पाई, ने तो हाल ही में साफ कहा कि ‘पश्चिम बंगाल में मानवाधिकार हनन की स्थिति १९७५ के आपातकाल से भी भयंकर है।’ राज्य का नाम एसिड हमलों, बलात्कार, हत्याओं और राजनैतिक संघर्षों के लिए हर दिन सुर्खियों में होता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि जिस राज्य सरकार पर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने का उत्तरदायित्व है, वह नितांत पक्षपाती ढंग से कार्य कर रही है। गांगुली का कहना है कि ‘कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब आम नागरिकों के अधिकार कुचले न जाते हों, लेकिन असहाय लोग नहीं जानते कि वे राहत पाने के लिए किसके पास जाएं। राज्य सरकार ने पुलिस को इतना अकर्मण्य बना दिया है कि वे अपनी खुद की रक्षा करने में भी असमर्थ हैं। पुलिसवालों पर बम फेंके जाते हैं, उन्हें पीटा जाता है, सरेआम थप्पड़ मारी जाती है और उन पर हमले किए जाते हैं।’

इतना ही नहीं, सरकार चलाने तथा प्रशासन के मामले में तृणमूल ने वामपंथियों की परंपरा बनाए रखी। ममता की सरकार को तीन वर्ष सत्ता में हो गए हैं लेकिन राज्य की आीर्थक स्थिति वहीं की वहीं रुकी हुई है। हालत इतनी खराब है कि सरकार रिज़र्व बैंक से ओवरड्राफ्ट लेने की अपनी सीमा पर पहुंच चुकी है। ममता सरकार ‘आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपय्या’ वाली कहावत को चीरतार्थ कर रही है। राज्य सरकार ने आय और खर्च का अपना अंतर पाटने के लिए बाजार से १३,३०० करोड़ रू. का कर्ज भी ले रखा है जबकि सरकार बाजार से ९,००० करोड़ रू. से अधिक कर्ज नहीं ले सकती। इस कमी को भरने के लिए ममता के अर्थशास्त्री वित्तमंत्री असीम मित्रा करते यह है कि वे ग्रामीण क्षेत्र के जिलों में निम्न आय वर्ग के लोगों को वर्ष में १०० दिन रोजगार देने की मनरेगा जैसी योजनाओं की दिहाड़ी देने के लिए मिली रकम का भुगतान रोक देते हैं, जैसा कि उन्होंने अभी किया है। ममता सरकार ने मनरेगा में किए काम के लिए गरीबों का १२०० करोड़ रू. से अधिक भुगतान रोक रखा है। केंद्र सरकार से दिसंबर मेंं इस भुगतान के लिए मिले ७५५ करोड़ रू. अभी तक ग्रामीण विकास और पंचायत विभाग को नहीं सौंपे गए हैं। नए उद्योग-धंधे नहीं के बराबर हैं और रोजगार के अवसर तैयार नहीं हो रहे हैं। जान-माल की असुरक्षा, बढ़ती गरीबी, सार्वजनिक संपदा की लूट-खसोट और बेरोजगारी ने ममता-राज के तीन वर्षों में ही पश्चिम बंगाल का बेहाल हो गया है।

लेकिन इससे भी बड़ी बात राज्य में आतंकवाद की जड़ेें जमना है। बर्दवान और दूसरे सीमावर्ती जिलों में उजागर इस्लामी आतंक के नेटवर्क से राज्य पर छाये बड़े संकट का ठोस प्रमाण मिला है। तिस पर ममता और तृणमूल की इस समुदाय में सिर्फ अपने समर्थक वर्ग के प्रति तुष्टीकरण नीति इस आग में घी डालने का काम कर रही है। कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम ए.आर. बरकती जैसे कट्टरपंथी नेताओं पर ममता की बढ़ती निर्भरता से राज्य का पीढ़ियों से निवास कर रहा स्थायी मुस्लिम बाशिंदा चिंतित है। यही कारण है कि बीरभूम जैसे जिलों और कोलकाता से लेकर अन्य शहरों में बांग्लाभाषी मुसलमान बड़ी संख्या मेें भाजपा से जुड़ गया है। बंगाल के अखबार इन जिलों में निवास कर रहे मुस्लिमों समेत दूसरेे तबकों के लोगों की सुरक्षा, सम्मान और विकास के लिए भाजपा से जुड़ने की रिपोर्टों से भरे पड़े हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की ३० नवंबर को कोलकाता रैली से ठीक पहले ममता सरकार की शह पर और सम्पूर्ण समर्थन से ‘जमीयत-उलेमा-ए-हिंद’ की अनियंत्रित रैली ने जिस तरह कई घंटों तक राजधानी को बंधक बनाए रखा, रैली में शामिल लोगों ने सड़कों पर जमकर उत्पात मचाया, पुलिस अफसरों-जवानों पर हमले किए, बाजारों में तोड़फोड़ की उसने लोगों को चिंता में डाल दिया। ऐसा नज़ारा बंगाल ने दमनकारी वाममोर्चा के शासन में कोलकाता में होती रहीं विशाल रैलियों में भी कभी नहीं देखा था।

स्पष्ट है कि बंगाल ममता के हाथ से तेजी से फिसल रहा है। पिछली एनडीए सरकार में साझीदार रही ममता का गणित केंद्र में भाजपा की अपने बहुमत के दम पर सरकार बनने से पहले ही ़गडबड़ाया था। इससे केंद्र सरकार को ब्लैकमेल कर ज्यादा रकम झ्टकने और राज्य की सत्ता में बने रहने की उनकी लेनदेन की ताकत खत्म हो गई। अब भाजपा ने निकम्मेपन, कुशासन, लूट-खसोट तथा बढ़ते आतंकवाद के लिए सीधे उन्हीं को लक्ष्य बना लिया। इससे ममता का परेशान होना स्वाभाविक है। हालत यह हो गई है कि ममता अब भाजपा से लड़ने के लिए अपने पुराने शत्र्ाु माकपा से लेकर अपनी पितृ-पार्टी, मरणासन्न कांग्रेस तक से गुहार लगा रही हैं। स्पष्ट है कि राज्य में राजनैतिक बयार का रुख बदल गया है।

मो. : ०९८१०४०११९५

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जगदीश उपासने

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