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ग्लोबल वार्मिंग के खतरे

by डॉ. ओंकारलाल श्रीवास्तव
in पर्यावरण, पर्यावरण विशेषांक -२०१७, सामाजिक
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विश्व के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि दो वस्तुएं असीमित हैं- पहला ब्रह्मांड और दूसरा मानव द्वारा की जाने वाली मूर्खताएं। भूमंडलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) भी मानव के भौतिक विकास की अंधी दौड़रूपी मूर्खता का ही परिणाम है। भूमंडलीय ऊष्मीकरण का अर्थ पृथ्वी के पर्यावरणीय तापमान में हो रही निरंतर वृद्धि से है। समुद्र सतह में वृद्धि का होना, मौसम परिवर्तन, ग्लेशियर (हिमनद) का पिघलना, जंगलों का कम होना, कई तरह की जीव एवं वानस्पतिक प्रजातियों का नष्ट होना, विभिन्न बीमारियों का बढ़ना आदि अनेक प्रभाव विश्व के सभी भागों में देखने में आ रहे हैं। इंटरगर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के वैज्ञानिकों के अनुसार, वैश्विक तापमान में १९०६ से २००५ के बीच ०.७४ की वृद्धि हुई है। वैश्विक समुद्र सतह में १९६१ से २००३ के बीच १.८ मिमी/प्रति वर्ष की औसत दर से वृद्धि हुई जिसमें इस अवधि के अंतिम दशक १९९३ से २००३ के बीच यह वृद्धि ३.१ मिमी/प्रतिवर्ष हो गई है ।

यूरोप में जुलाई-अगस्त २००३ में इतनी अधिक गर्मी पड़ी जो पिछले ५०० साल के रिकार्ड तोड़ गई। इस दौरान विश्व में गर्मी की लहरों (लू) से २७००० लोगों की मौत हो गई और इस दौरान पड़े सूखे आदि से १४.७ अरब यूरो की आर्थिक हानि हुई जबकि कृषि, वनों एवं ऊर्जा क्षेत्रों की हानि का आंकलन नहीं किया जा सका । अप्रैल-जून १९९८ में केवल भारत में गर्मी की लू के कारण ३०२८ लोग मारे गए, वहीं शिकागो जैसे ठंडे शहर में १९९५ में पांच दिन चली गर्म हवाओं से ५२८ लोग मारे गए। १३ जुलाई १९९५ को वहां का तापमान १०६० फारेनहाइट (४२० सेंटीग्रेड) रिकार्ड किया गया जो आज तक का सब से गर्म दिन माना गया। इसी तरह दिसम्बर १९९९ में वेनेजुएला में इतनी बरसात हुई कि लगभग ३०००० लोग मारे गए, भारत के केदारनाथ में बादल फटने से १६ जून २०१३ को ५७४८ लोग मारे गए ( उत्तराखंड सरकार की रिपोर्ट १६ जुलाई २०१३)। यहां ३७५ प्रतिशत अधिक बारिश रिकार्ड की गई ।

सब से खराब सूखा २०१५-१६ में पड़ा जिससे भारत के ११ राज्यों के २६६ जिलों के २,५८,००० गांव और ३३ करोड़ जनसंख्या प्रभावित हुई। वर्ष २०१६ में भारत के अनेक राज्यों में अतिवर्षा का सामना करना पड़ा जिससे जान माल की हानि हुई है। पश्चिमी यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका में अब ९ दिन पहले ग्लेशियर पिघलना शुरू कर देते हैं और पिछले ५० वर्षों में हिमनदों का आकार स्पिंग स्नोपैक रॉकी माउंटेनल में १६ प्रतिशत घट गया है तथा कैस्केड रेंज में २९ प्रतिशत घट गया है। १९७२ में वेनेजुएला में ६ ग्लेशियर थे जो घट कर अब दो रह गए हैं और अनुमान है कि वैश्विक तापमान में ऐसे ही वृद्धि होती रही तो ये अगले दस वर्षों में समाप्त हो जाएंगे।

भारत में हिन्दुकुश हिमालय के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। नवधान्य की डॉ. वंदना शिवा की एक रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी का १० प्रतिशत भाग बर्फ से ढंका है जिसमें अर्ंटाकटिका ८४.१६ प्रतिशत, ग्रीनलैंड में १३.९ प्रतिशत, हिमालय में ०.७७ प्रतिशत, उत्तरी अमेरिका में ०.५१ प्रतिशत, अफ्रीका में ०.३७ प्रतिशत, दक्षिण अमेरिका में ०.१५ प्रतिशत, यूरोप में ०.०६ प्रतिशत भूभाग बर्फ से ढंका है। ध्रुवीय क्षेत्रों के बाहर हिमालय क्षेत्र में भी सर्वाधिक घनत्व वाले ग्लेशियर हैं जो कि सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना जैसी बड़ी नदियों को पानी देते हैं और विश्व की लगभग आधी जनसंख्या इसी जल पर निर्भर है। गंगोत्री, मिलैन, डूकरीयन आदि ग्लेशियर भी भूमण्डलीय ऊष्मीकरण के कारण १५ से २५ मीटर प्रति वर्ष की दर से खिसक रहे हैं।

भूमंडलीय ऊष्मीकरण का मुख्य कारण पृथ्वी के वातावरण में सौर किरणें प्रवेश करके वायुमंडल से गुजरती हुई धरती से टकराती है और फिर लौटती हैं जो कुछ मात्रा में वायुमंडल द्वारा रोक ली जाती है। पृथ्वी का वायुमंडल नाइट्रोजन, आक्सीजन आदि विभिन्न गैसों से मिल कर बना है जो पृथ्वी पर जीवन के लिए औसत तापमान १६ डिग्री सेल्सियस बनाए रखने हेतु जिम्मेदार है। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि ग्रीन हाउस में वृद्धि से यह आवरण और मोटा होगा तथा सूर्य की किरणों से प्राप्त अधिकाधिक तापमान को रोक कर रखने लगता है जिससे भूमंडलीय ऊष्मीकरण में वृद्धि होती है।

पृथ्वी पर महत्वपूर्ण ग्रीन हाउस गैसे जल वाष्प जो ३६-७० प्रतिशत, कार्बन डाइआक्साइड ९-२६ प्रतिशत, मीथेन ९ प्रतिशत और ओजोन ३ से ७ प्रतिशत तक शामिल हैं। विभिन्न मानवीय गतिविधियों जैसे उद्योगों, अवनीकरण, कृषि, ऊर्जा उत्पादक यंत्रों, वाहनों आदि से ग्रीन हाउस गैसों की सांद्रता वायुमंडल में बढ़ती है जो वैश्विक तापमान में वृद्धि करता है। आईपीसीसी की २०१४ की रिपोर्ट के अनुसार बिजली घर से २१.३ प्रतिशत, उद्योगों से १६.८ प्रतिशत, यातायात और गाड़ियों के धुएं से १४ प्रतिशत, खेती-किसानी की गतिविधियों से १२.५ प्रतिशत, जीवाश्म ईंधनों के उपयोग से ११.३ प्रतिशत, रहवासी क्षेत्रों १०.३ प्रतिशत, बायोमास जलाने से १० प्रतिशत, कचरा जलाने से ३.४ प्रतिशत भागीदारी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में रहती है।

एशिया, यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका एवं यूरोप विश्व के कुल कार्बन डाइआक्साइड उत्पादन में ८८ प्रतिशत के लिए जिम्म्ेदार हैं। १९९० से २०१२ के बीच कार्बन डाइआक्साइड के निकलने में ४२ प्रतिशत, नाइट्रोजन आक्साइड में ९ प्रतिशत, मीथेन में १५ प्रतिशत एवं क्लोरीनेटेड गैसों में दुगुने की वृद्धि हुई है और यही चार गैसें ग्रीन हाउस गैस कहलाती हैं।

एक अनुमान के अनुसार २०५० तक ३५ प्रतिशत पौध एवं जीव प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। आर्थिक विकास की दौड़ के कारण फरवरी २०१६ के अंतिम सप्ताह में चीन की राजधानी बीजिंग में प्रदूषण इतना बढ़ गया कि पर्यावरणीय आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी और भारत की राजधानी दिल्ली में नवम्बर २०१६ दीवाली के बाद प्रदूषण के कारण स्कूल-कॉलेजों में छुट्टी करनी पड़ी।

मनुष्य की जीवन शैली में परिवर्तन का दुष्प्रभाव मिट्टी, हवा, पानी तीनों पर पड़ रहा है जो जीवन के बुनियादी आधार हैं। उन्नत कृषि के नाम पर भारत की पारंपरिक ‘‘गो’’ आधारित जैविक खेती को नष्ट किया गया। इसी तरह १९७० के दशक से कुंओं की जगह युनीसेफ के सौजन्य से गहरे बोरवेल खोदे गए और रबी में धान की खेती करके दलहन -तिलहन की खेती को घटा दिया गया जिससे ७० प्रतिशत भूजल स्रोतों की समाप्ति का खतरा है और लाखों गांवों में गर्मी में पेयजल की समस्या हो जाती है।

रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के उपयोग से भी मिट्टी, पानी, हवा में प्रदूषण बढ़ रहा है। सिन्हा एवं स्वामीनाथन ने १९९१ के शोध में यह बताया है कि यदि वैश्विक तापमान में २ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी तो धान का उत्पादन ०.७५ टन प्रति हेक्टेयर एवं गेहूं का ०.४५ टन प्रति हेक्टेयर घट जाएगा। भारत सरकार की २०१३ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में धान उत्पादन ३५.९० टन प्रति हेक्टेयर है जबकि हमारे पड़ोसी चीन में ६६.८६ टन, बांग्लादेश में ४२.१९ टन एवं म्यांमार में ४०.८१ टन है। वहीं गेहूं, ज्वार-मक्का, बाजरा तथा दालों के उत्पादन में भी हम पीछे हैं। दालों के उत्पादन में तो हम भूटान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश,म्यांमार तथा चीन से बहुत पीछे हैं। इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के गणितीय प्रतिरूप (माडल) के अनुसार भूमंडलीय वैश्वीकरण के कारण मौसम परिवर्तन के परिणामस्वरूप २०२० तक गेहूं के उत्पादन में ६ प्रतिशत और धान में ४ प्रतिशत की कमी आ सकती है।

इस प्रकार जब वैश्विक तापमान बढ़ेगा तो बाढ़-सूखा बढ़ेगा, समुद्र सतह के बढ़ने से कई शहर जलमग्न हो जाएंगे, मलेरिया आदि बीमारियों से लोगों की मौतें होंगीं, जंगलों में कमी होगी, जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ेंगी जिससे मानव प्रजाति पर खतरा बढ़ जाएगा। आज आवश्यकता है कि हम ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को स्वयं जानें और लोगों को बताएं, जनजागरूकता फैलाएं, धरती पर हरियाली की चादर फैलाने अधिकाधिक पेड़ बेल, नारियल (श्रीफल) नीम, आम, अशोक, आंवला, बरगद, पीपल, जामुन, अर्जुन, कंदब आदि के लगाएं जो भारतीय संस्कृति में पंच पल्लव कहलाते हैं क्योंकि पेड़ ही कार्बन डाइआक्साइड आदि ग्रीन हाउस गैसों का अवशोषण करेंगे और वैश्विक गर्मी कम करने में महती योगदान करेंगे। प्रदूषण फैलाने वालों पर पर्यावरण शुल्क लगा कर उसका उपयोग पेड़ लगाने में किया जाए। जिन घरों, उद्योगों, संस्थाओं में पेड़ न हो उनसे क्षेत्रफल के अनुसार भारी कर लगाया जाए। पानी रोकने के बंधान आदि बनाया जाए, भूगर्भीय जल के उपयोग को हतोत्साहित किया जाए अर्थात जो व्यक्ति या संस्था पर्यावरण रक्षा में हरित जीवन (ग्रीन लीविंग) में निवास करे उन्हें पर्यावरण उपदान दिया जाए अर्थात विभिन्न पुरस्कार दिए जाएं एवं उनके कर माफ किए जाएं।

पावर प्लान्टस ग्रीन हाऊस गैसों के उत्पादन में बहुत अधिक जिम्मेदार हैं इसलिए सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि के उपयोग को बढ़ावा दिया जाए। इन सब तरीकों का व्यापक प्रचार प्रसार किया जाए। भारत में नियम-कानून तो बहुत हैं लेकिन उनका परिपालन नहीं हो रहा है। अतः पर्यावरणीय कानूनों को उद्योगों, संस्थाओं एवं व्यक्तियों पर कड़ाई से लागू किया जाए।

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