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अप्रवासियों के लिए सख्त अमेरिका

by सरोज त्रिपाठी
in अप्रैल २०१७, देश-विदेश
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ट्रंप का चुनाव जीतना और ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलग होने का निर्णय, वर्ष २०१६ की दो सब से अहम घटनाएं थीं। इन दोनों अहम घटनाओं के पीछे की कड़वी सच्चाई यह है कि अब वैश्वीकरण की नीतियों ने एशियाई, अफ्रीकी, लातिन अमेरिकी देशों की आम जनता को ही नहीं, खुद अमेरिका और यूरोप के लोगों को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है। पूंजी निर्यात से उनके यहां रोजगार कम हो गए हैं और जीवन स्तर में गिरावट दर्ज की गई है। ट्रंप ने श्वेत अमेरिकी मजदूरों की नब्ज को पहचान कर उसी के आधार पर चुनाव अभियान के दौरान बहुत लोकलुभावन नारे उछाले थे। उनका एक नारा था, ‘आइए, हम अमेरिका को दोबारा महान बनाएं। एक अन्य नारा था, ‘भुला दिए गए अमेरिकी को याद रखो।’ किसी हद तक यह बात भी सच है कि उन्होंने नस्ल और रंग के आधार पर चुनाव प्रचार किया। ट्रंप ने आप्रवासियों को अमेरिका से बाहर निकालने की बात कही थी ताकि धरती पुत्र अमेरिकियों की नौकरियां सुरक्षित की जा सकें। वे आम जनता को यह समझाने में सफल रहे कि बड़ी-बड़ी अमेरिकी कंपनियां आप्रवासियों को इसलिए नौकरियां देती हैं क्योंकि वे कम वेतन पर काम करने के लिए राजी हो जाते हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में जहां काम सस्ता होगा वहीं कंपनियों द्वारा उद्योग लगाए जाएंगे। इसी का परिणाम है कि आज दुनिया की लगभग हर छोटी-बड़ी उपभोक्ता वस्तु का उत्पादन चीन में बड़ी मात्रा में हो रहा है तथा अंतरराष्ट्रीय कंपनियां चीन में निवेश कर रही हैं। चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप ने मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को चीन से अमेरिका में लाने का नारा बुलंद किया था।
सत्तारूढ़ होने के कुछ ही हफ्तों में ट्रंप प्रशासन ने पूरी दुनिया में राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक तनाव बढ़ा दिए हैं। अपने चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप ने वादा किया था कि वे इस्राईल के सच्चे मित्र होंगे और ईरान के साथ संपन्न परमाणु समझौते को रद्द कर देंगे। उन्होंने यह भी कहा था कि अमेरिका ने इराक में बगदाद प्रशासन को देश के तेल पर नियंत्रण बनाए रखने की अनुमति देकर सब से बड़ी गलती की है। व्यापार से लेकर दक्षिण चीन सागर तक के तमाम मुद्दों पर ट्रंप चीन के विरुद्ध लगातार आग उगलते रहे। पर जिन मुद्दों ने उनके चुनाव प्रचार को चरम पर पहुंचाया वह था वे थे आप्रवासियों को अमेरिका से बाहर निकालने का उनका दृढ़ संकल्प और मैक्सिको की सीमा पर दीवार बनाने का उनका वादा। उनके इन्हीं सब वादों से प्रभावित होकर अमेरिकी जनता ने ट्रंप को अपना राष्ट्रपति चुना जबकि विश्व जनमत उनके खिलाफ हो गया था।
बहुत से अमेरिकियों तथा विश्व नेताओं की धारणा थी कि ट्रंप का चुनावी शब्दाडम्बर महज एक चुनावी दांवपेंच है। लेकिन राष्य्रपति पद ग्रहण करने के कुछ ही सप्ताहों के भीतर ट्रंप ने साबित कर दिया कि वे अपने चुनावी वादों को लागू करने के प्रति बेहद गंभीर हैं। कुछ देशों के मुस्लिमों पर अमेरिका में प्रवेश पर पाबंदी तो महज एक उदाहरण मात्र है। बिना ज्यादा समय गंवाए उन्होंने अपने चुनावी वादों को लागू करने का संकल्प सार्वजनिक तौर से दोहराया। उन्होंने इस्र्राईल के तेल अवीव में स्थित अमेरिकी दूतावास को यरुसलम में स्थानांतरित करने की बात कही। यद्यपि उन्होंने इसके लिए किसी समय सीमा की घोषणा नहीं की है। फिलिस्तीन ने चेतावनी दी है कि इससे शांति प्रक्रिया तथा संघर्ष समाप्ति पर विपरीत असर पड़ेगा।
सत्ता संभालने के एक पखवाड़े के भीतर ही ट्रंप प्रशासन ने ईरान द्वारा कम दूरी के बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण करने पर ईरान को आधिकारिक तौर पर नोटिस पर रखने की घोषणा कर दी। ट्रंप प्रशासन ने सीरिया के भीतर तथाकथित ‘सुरक्षित जोन’ स्थापित करने की बात शुरू कर दी है। ट्रंप प्रशासन के रवैये ने ईरान की खाड़ी, दक्षिण चीन सागर और पूर्वी यूरोप में खलबली मचा दी है। ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति पुतिन के बीच सौजन्य के बावजूद दोनों देशों के बीच रिश्तों में सुधार के आभास नजर नहीं आते। ट्रंप प्रशासन की ओर से पहले नाटो में शामिल देशों से कहा गया कि वे अपनी सुरक्षा के लिए ज्यादा भुगतान करें या अमेरिकी समर्थन खोने के लिए तैयार रहे। पर बाद में नरमी दिखाते हुए ट्रंप ने नाटो तथा पूर्व की ओर उसके प्रसार को अपना समर्थन देने की घोषणा कर दी।
टीपीपी (ट्रंप पैसिपीक पार्टनरशीप) से अलग होने की घोषणा कर चुके हैं। अपने चुनावी भाषणों में ट्रंप ने आप्रवासियों को बाहर निकालने तथा गैरकानूनी आप्रवासियों को आने से रोकने के लिए ही मैक्सिको की सीमा पर एक दीवार बनाने की घोषणा की थी। गौरतलब है कि अमेरिका में अनुमानत: एक करोड़ १० लाख गैरकानूनी आप्रवासी हैं। इसमें दस प्रतिशत मैक्सिको के नागरिक हैं। राष्ट्रपति ट्रंप गैरकानूनी आप्रवासियों के खिलाफ कार्रवाई न करने वाले अमेरिकी शहरों पर जुर्माना लगाने और मैक्सिको की सीमा पर दीवार बनाने का आदेश जारी कर चुके हैं।
दरअसल राष्ट्रपति ट्रंप और उनके सलाहकार यह बात भलीभांति जानते और समझते हैं कि उन्होंने यदि जल्दी अपने वादों को लागू नहीं किया तो उनके श्वेत अमेरिकी समर्थकों में निराशा फैल सकती है। इसी कारण वे जल्दी निर्णय लेकर उस पर अमल करने की तत्परता दिखा रहे हैं। पर उनके इन कारनामों से पूरी दुनिया में बैचैनी बढ़ती हुई नजर आने लगी है।
राष्ट्रपति का पद संभालते ही ट्रंप ने अपने स्वदेशी एजेंडे पर भी आगे बढ़ने का रुख अख्तियार किया। व्हाइट हाऊस में अमेरिका के शीर्ष १२ कारोबारियों के साथ नाश्ते पर बातचीत के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप ने साफ शब्दों चेतावनी दी कि अगर अमेरिकी कंपनियों ने देश से बाहर अपने उत्पादक बेस बनाए, तो उन पर भारी टैक्स लगाया जाएगा। साथ ही, उन्होंने कंपनियों को देश में अपने उत्पादों का उत्पादन करने पर नियमों में कमी करने और टैक्स में छूट देने का वादा भी किया। ट्रंप ने तमाम सीईओ को चेतावनी दी कि अमेरिका से अगर नौकरियां बाहर शिफ्ट हुईं तो वे नतीजे भुगतने को तैयार रहें।
‘हायर अमेरिकन’ की नीति पर आगे बढ़ रही अमेरिका की नई सरकार अपने यहां नौकरी करने आने वाले विदेशी प्रोफेशनलों पर शिंकजा कसने की पूरी तैयारी में जुट गई है। ऐसी संभावना है कि इसे राष्ट्रपति के एग्जीक्यूटिव ऑर्डर के जरिए जल्द ही लागू किया जा सकता है। ट्रंप के इस कदम से भारतीय आईटी प्रोफेशनलों पर बुरे असर की संभावना से खलबली मच गई है। एग्जीक्यूटिव ऑर्डर के लीक हुए मसौदे के मुताबिक नई व्यवस्था में एच-१बी वीजा पर आने लोगों के जीवन साथी के लिए अमेरिका में काम करने की अनुमति भी खत्म हो जाएगी।
इस बीच ट्रंप प्रशासन की ओर से एच-१बी और एल-१ वीजा सुधारों पर गंभीरता से विचार के बीच अमेरिकी प्रतिनिधि सभा और सीनेट के भीतर कम से कम ६६ विधेयक पेश किए गए हैं। इन विधेयकों में दलील दी गई है कि भारतीय आईटी कंपनियों के बीच लोकप्रिय एच -१बी कार्यक्रम अमेरिकी नौकरियां खा रहा है। इन विधेयकों को डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों दलों के सदस्यों ने रखा है। इसके पास हो जाने के बाद अमेरिका का वीजा पाना पहले से मुश्किल हो जाएगा। एक विधेयक में एच-१ बी वीजा के लिए १९९० से चली आ रही न्यूनतम सैलरी को ६० हजार अमेरिकी डॉलर से बढ़ा कर एक लाख ३० हजार डॉलर करने का प्रस्ताव है। एच-१बी वीजा के दो तिहाई आवेदक भारतीय होते हैं, जो कि अमेरिकी कर्मचारियों को मुकाबले सस्ते होते हैं। २०१४ में ६५ हजार एच-१बी वीजा पाने वालों में ७० प्रतिशत भारतीय थे। यदि एच-१बी वीजा कर्मचारी को एक लाख ३० हजार डॉलर सैलरी देनी पड़ी, तो कंपनियों के लिए भारतीय कर्मचारी महंगे पड़ेंगे। इसमें उन भारतीय कंपनियों पर भी आर्थिक बोझ पड़ेगा जो अपने अमेरिकी दफ्तरों में भारतीय कर्मचारियों को रखती हैं। ओबामा सरकार ने एच-१बी वीजा धारकों की पत्नियों को एल-१ वीजा देकर अमेरिका में काम करने का अधिकार दिया था, ट्रंप सरकार उसे पलटने की सोच रही है। अमेारिका में ट्रंप प्रशासन की नई आप्रवासी योजना की मार तीन लाख भारतीय -अमेरिकियों पर भी पड़ सकती है। नई योजना के मुताबिक एक करोड़ १० लाख आप्रवासियों पर अमेरिका से निकाले जाने का खतरा मंडरा रहा है।
इस बीच राष्ट्रपति ट्रंप ने एक मार्च की रात अमेरिकी आप्रवासियों के मसले पर कुछ नरमी के संकेत दिया। उन्होंने देश की वर्तमान ‘पुरानी’ आव्रजन प्रणाली की जगह पर मेरिट आधारित नई आव्रजन प्रणाली लागू करने की बात की। कनाडा की मेरिट आधारित आव्रजन प्रणाली में आवेदनकर्ताओं को शिक्षा, कौशल, भाषा और पारिवारिक पृष्ठभूमि जैसी विभिन्न योग्यताओं के लिए प्वाइंट्स दिए जाते हैं और इसी आधार पर उन्हें प्रवास की अनुमति दी जाती है। यदि अमेरिका की आव्रजन प्रणाली में यह नीतिगत परिवर्तन हुआ तो भारत जैसे देशों के हाई-टेक प्रोफेशनलों के लिए यह फायदेमंद हो सकता है।
पिछले कई महीनों से ट्रंप ने आप्रवासियों के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है। उनका दावा है कि बड़े पैमाने पर अमेरिका में अवैध आप्रवासी घुसपैठ कर रहे हैं॥अमेरिका में अपराध और आतंकवाद के लिए वे इन आप्रवासियों को दोषी करार दे रहे हैं। ट्रंप के इस अभियान का ही दुष्परिणाम है कि पूरे देश का माहौल विषाक्त हो गया है। पूरे देश में सौ से ज्यादा यहूदी कम्युनिटी सेंटरों पर हमले हुए और बम की धमाकियां हो गईं। कई मस्जिदें जला दी गईं। अश्वेत अमेरिकियों के खिलाफ नस्ली भेदभाव की घटनाएं बढ़ गईं। सिखों, हिंदुओं और लातिन अमेरिकनों के खिलाफ नफरत और हिंसा का माहौल पूरे देश में फैल गया है। २२ फरवरी को अमेरिका के कैंरनारु में एक पब में किए गए नस्ली हमले में भारतीय इंजीनियर श्रीनिवास कुचिभोतला की मौत हो गई जबकि उनके एक मित्र घायल हो गए। दो मार्च को लैंकेस्टर कैरोलाइना में एक भारतीय मूल के कारोबारी हरनीश पटेल की गोली मार कर हत्या कर दी गई। तीन मार्च को कैट, वाशिंगटन में भारतीय मूल के सिख दीप राय पर हुए हमले में उनके हाथ में गोली मार दी गई। नकाबकोश हमलावार ने दीप राय पर गोली चलाने से पहले चिल्लाते हुए कहा, ‘अपने देश वापस जाओ।’
वैसे अमेरिका में भारतीयों पर हमले का जो सिलसिला शुरु हुआ है वह १५ साल पहले अमेरिका में ९/११ को टि्वन टॉवर पर हमले की घटना के बाद शुरू हुई मारामारी का ताजा अध्याय है। ९/११ के बाद अमेरिका में भारतीय लगातार निशाने पर आए। १५ सितम्बर २००१ को गैस स्टेशन के मालिक बलबीर सोढी को गलती से एक अरब समझ कर अरिजोना में गोली मार कर हत्या कर दी गई। १८ नवम्बर २००१ को पालोमे, न्यूयार्क में एक गुरुद्वारा जला दिया गया। १२ दिसम्बर २००१ को सुरिंदर सिंह सोढी की ओसामा बिन लादेन होने का आरोप लगा कर पिटाई की गई। १५ मार्च २०१४ फ्रेसनो कैलिफोर्निया गुरुद्वारा में तोड़फोड़ की गई। ५ अप्रैल २००६ मिन्नोसोटा मंदिर में तोड़फोड़ की गई। इस घटना में मंदिर को दो लाख डॉलर की क्षति पहुंची। पांच अगस्त २०१२ को ओक क्रीक विस्कांसिन गुरुद्वारा में गोलीबारी कर एक श्वेत नस्लवादी ने ६ सिखों की हत्या कर दी। २९ दिसंबर २०१२ को न्यूयार्क में सुनंदो सेन की रेलवे लाइन पर ढकेल दिए जाने से मौत हो गई। ३ अगस्त २०१३ अमेरिकी अटर्नी जनरल ने कहा था कि सिखों, हिंदुओं, बौद्धों और अरबों के खिलाफ हमलों की छानबीन ‘हेट क्राइम’ के तौर पर की जाएगी। ६ जनवरी २०१५ को सुरेश भाई पटेल नामक एक भारतीय नागरिक की अल्बामा की एक व्यक्ति द्वारा पिटाई की गई। इस पिटाई से पटेल को लकवा मार गया। अगस्त २०१६ में एक एंटि-इमिग्रंट ग्रृप द्वारा ओहियो में एक वीडियो तैयार किया। इस वीडियो में दावा किया गया कि भारतीय नौकरियां, अचल संपत्ति तथा पार्कों को हड़पते जा रहे हैं। उस समय ऐसे हमलावरों को लेकर प्रशासन बेहद सख्त था। लेकिन अब हालात अलग हो गए हैं। हमलावरों को शासन से मूक नैतिक समर्थन का संकेत मिलता दिख रहा है। भारतीय सकते में हैं। पूरी अमेरिका में नस्ली नफरत का माहौल पैदा किया जा रहा है।
इन सबके बावजूद हमें ध्यान रखना होगा कि बहुत से अमेरिकी इस नफरत के माहौल का सख्ती से पुरजोर विरोध भी कर रहे हैं। राष्ट्रपति ट्रंप एक सफल कारोबारी रहे हैं। इसलिए अपने कामकाज में वे व्यावहारिकता के कायल हैं। चुनावी भाषणों में कई मसलों पर उनका बेहद सख्त रवैया दीखता था, लेकिन सत्ता संभालने के बाद उन्होंने कई मुद्दों पर लचीला रुख अपनाया। जैसे पहले उन्होंने नाटो को अमेरिका के लिए अप्रासंगिक बताया था। लेकिन अब आगामी मई में होने वाले नाटो के सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए वे सहमत हो गए हैं। ऐसे ही, पद संभालने से पहले ट्रंप ने कहा था कि वे ‘एक चीन की नीति’ का अनुकरण करने के लिए बाध्य नहीं हैं। ताइवान के राष्ट्रपति से सीधे फोन पर बात कर उन्होंने पोटोकॉल तोड़ा था, मगर बाद में पद संभालते ही उन्होंने ‘वन चाइना पॉलिसी’ को लेकर प्रतिबद्धता दिखाई। उम्मीद की जाती है कि ज्यादातर वैश्विक मसलों पर वे ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगे जिससे कि दुनिया का माहौल और तनावपूर्ण बने। अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने कहा था ‘यदि मैं राष्ट्रपति चुना जाता हूं तो भारतीय और हिंदू समुदाय व्हाइट हाउस में एक मित्र पाएंगे इस बात की मैं आपको गारंटी दे सकता हूं।’ राष्ट्रपति ट्रंप को उनका यह वादा भारत सरकार तथा अमेरिकी भारतीय समुदाय द्वारा गंभीरता से सतत याद दिलाते रहना चाहिए।

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