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प्रकृति और पर्यावरण का पूजन

प्रकृति और पर्यावरण का पूजन

by वीरेन्द्र याज्ञिक
in अध्यात्म, मार्च २०१५
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सूक्त में इसका बडा विशद वर्णन है। पृथ्वी पर जीवन का बड़ा ही सुंदर वर्णन उक्त सूक्त में किया गया है। हमारी पृथ्वी कैसी है और किस प्रकार वह सभी प्राणियों का संरक्षण करती है, इसका निम्न श्लोक में दर्शन करिए।

असंबाध मध्यतो मानवानां
यस्या उद्धत: प्रवत: सभं बहु।
नानावीर्या औषधीर्या विभर्ति
पृथवी न: प्रथतां राध्यता न:॥
अर्थात-
उन्नत प्रदेश, उत्तुंग शिखर अति सुंदर
नीची वसुंधरा नीचे बहते निर्झर
वे हरे भरे मैदान मनोरम समतल
मानव के सम्मुख सावकाश अगणित थल
यह भूमि हमारे लिए परम विस्तृत हो
उसके आराधन से हम सबका हित हो
कालांतर में इस वैदिक परंपरा के अनुसार पर्यावरण और प्रकृति की रक्षा का निर्वहन भगवान श्रीकृष्ण ने किया। कृष्ण का जन्म ब्रज में हुआ, जहां की भूमि पथरीली और अवर्षा से हमेशा प्रभावित होने के कारण कम उपजाऊ थी। अत: कृष्ण ने अपने बाल्यकाल से ही इस पर्यावरणीय असंतुलन पर ध्यान दिया। श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध में श्री गोवर्धन की लीला वास्तव में प्रकृति, पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन की लीला हैं। वर्षा सही हो, इस भाव से गोकुल में इन्द्र को संतुष्ट करने के लिए यज्ञ किया जाता था। गोवर्धन पर्वत वनाच्छादित था। अत: वनों को सदैव हरा भरा रखने के लिए वर्षा के लिए इन्द्र की पूजा की जाती थी, जिसका कृष्ण ने निषेध किया और प्रकृति के प्रतीक स्वरूप गोवर्धन की पूजा करके उन्होंने तत्कालीन समाज को पर्यावरण के संरक्षण का संदेश दिया। संपूर्ण ब्रज श्री कृष्ण की लीला स्थली है जहां पर उन्होंने जलापूर्ति के लिए स्थान स्थान पर कुंडों का निर्माण किया और वहां की जनता को जलाभाव के संकट से मुक्त किया। कालांतर में ये सभी कुंड भक्तजनों के लिए तीर्थ स्थल बन गए और भारत की धर्मप्राण जनता तथा वैष्णवजन इसकी परिक्रमा करके इन कुंडों में स्थान अथवा आचमन करके अपने जीवन को धन्य करते हैं।
अत: सुखी एवं समृद्ध जीवन के लिए आवश्यक है कि नदी, कुंड, तालाब, झील, झरने, मंदिर, तीर्थ आदि का संरक्षण किया जाए और उन्हें स्वच्छ और पवित्र बनाए रखने के लिए सभी संभव प्रयत्न किए जाए। आयुर्वेद की चरक संहिता में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही गई है, जो कि आर्ज के संदर्भ में विचारणीय हैं। चरक संहिता कहती है कि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए वायु, जल, धरती, देश, काल एवं पंचमहाभुतों की गुणसंपन्नता में कभी होने के कारण संसार धीरे-धीरे विनाश की ओर बढ़ता है।
युगे युगे धर्मपाद : क्रमेणानेन हीयते।
गुण पादश्च भूतानामेवं लोक: प्रलीयते॥
अर्थात मनुष्य का कर्तव्य है कि वह प्रकृति की न केवल स्वच्छता और पवित्रता का ध्यान रखें बल्कि सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह अपने जीवन की रक्षा के लिए इनका संरक्षण करें। अन्यथा धरती पर से शनै: शनै: जीवन समाप्त हो जाएगा और इसकी आहट आज बदलते पारिस्थितिकीय वातावरण में देखी जा सकती है। गत वर्ष उत्तराखंड में आई बाढ़, असमय बर्फबारी, पिघलते ग्लेशियर और संपूर्ण विश्व में बढ़ता तापमान पर्यावरण के बदलते मिजाज का संकेत देता है।
इस स्थिति को ध्यान में रखकर मुंबई की ब्रज विकास ट्रस्ट संस्था ने एक छोटी सी पहल ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा पर अवस्थित जलकुंडों, सरोवरों के संरक्षण के लिए की है। ऐसा माना जाता है कि ब्रजक्षेत्र में, जहां वर्षा का सदैव अभाव रहता था, श्री कृष्ण ने कुंडों का निर्माण किया था और अपनी लीलाएं की थीं। ऐसे १२०० कुंडों का उल्लेख मिलता है, जिनमें से अब केवल सौ: पचास ही बचे हैं। इनमें भी कुछ मृतप्राय हो गए हैं। इन सभी कुडों का पंद्रहवीं शताब्दी में महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने पुनरुद्धार किया था। ये कुंड धार्मिक दृष्टि से तो पवित्र माने गए, किन्तु इन कुंडों का जल सभीपर्क्ती गावों के ंलिए जीवनदायी तत्व बन गया। ब्रज चौरासी परिक्रमा, जो २२४ कि. मी. के विस्तृत क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा हरियाणा प्रदेश तक फैली हुई हैं, उनमें ये सभी कुंड और तीर्थ स्थित हैं। ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से भी इतका महत्व है, तथापि सामाजिक एवं सरकारी स्तर पर उदासीनता के अभाव में इन सभी कुडों के संरक्षण, उनकी पवित्रता तथा उनकी स्वच्छता का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है।
अत: वर्ष २००६ में गठित ब्रज विकास ट्रस्ट ने एक पहल की और ब्रज क्षेत्र की परिक्रमा पर स्थित कुंडों के नव निर्माण और उनको नवीकृत स्वरुप देने का अभियान प्रारंभ किया गया। ब्रज के समाज के अग्रणी लोगों के सहयोग और संत महात्माओं के आशीर्वाद से जल संरक्षण और स्वच्छ जल के अभियान के रूप में इसको आगे बढाया जा रहा है। अभी तक पिछले सात वर्षों में १५ कुंडों का नवीकरण किया जा चुका है। वहां पक्के घाट और कुंडों की दीवारों की मरम्मत करके जल को प्रदूषित होने से बचाने तथा कुंड में जलस्तर बनाए रखने के लिए कदम उठाए गए हैं। इस वर्ष होली से पहले गोवर्धन में ऐरावत कुण्ड, वृंदावन में श्रीराधारानी मानसरोवर तथा ज्ञान कुण्ड के नवीकृत स्वरुपों का उद्घाटन और लोकार्पण किया जा रहा है।
ऐरावत कुंडः यह गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा की सीमा में स्थित है। इसकी एक कथा बड़ी प्रसिद्ध है। जब इन्द्र के प्रकोप के फलस्वरुप भारी वर्षा से ब्रज को बचाने के लिए श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी कनिष्ठक पर उठा लिया था तब इन्द्र अपनी इस धृष्टता पर बड़ा लज्जित हुआ और भगवान को प्रसन्न करने के लिए शचि को आगे करके भगवान से क्षमा मांगने के लिए आया। कृष्ण प्रसन्न हुए, क्षमादान दिया और तब इन्द्र ने अपने वाहन ऐरावत हाथी की सूंड से आकाश गंगा का जल प्राप्त कर भगवान का अभिषेक किया था, उस अभिषिक्त जल से जिस कुंड की सृष्टि हुई, उसे ऐरावत कुंड कहा गया। इस कुण्ड के पास पर्वत के ऊपर ऐरावत हाथी के चरण चिह्न भी अंकित हैं।
उक्त कुंड की उचित देखभाल न होने के कारण वह बहुत ही जर्जर हो गया था। ब्रज विकास ट्रस्ट ने इसे नया स्वरुप प्रदान किया है। ताकि इसमें जल संरक्षित रह सके और तीर्थ यात्रियों के आकर्षण का केन्द्र बनें।
श्री राधारानी मानसरोवर: वृंदावन में यमुना के पार श्री राधारानी मानसरोवर स्थित है। यह बहुत बड़ा सरोवर है, जो कई एकड़ में फैला हुआ है। इस संबंध में जो पुराण कथा है वह अत्यंत रसमयी और हृदय में आनंद की सृष्टि करने वाली है। कथा इस प्रकार है कि एक बार श्री राधाजी अपने प्रियतम श्री कृष्ण से रूठ कर यहां आकर बैठ गईं। श्रीकृष्ण अपनी आराध्या श्री राधाजी को मनाने के लिए यहां पधारे। इस प्रक्रिया में कृष्ण ने अपने सभी अवयव मुटली, पगडी आदि श्री राधाजी के चरणों में रखे और श्री राधाजी को मनाया, अत: इस सरोवर का नाम मानसरोवर पड़ा। यहीं सरोवर के तट पर श्री राधामान मंदिर है; जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु आकर प्रकृति का आनंद उठाते हैं।
ब्रज विकास ट्रस्ट ने इस सरोवर का भी पुनर्निर्माण किया है और इसे सुंदर स्वरूप देने का प्रयत्न किया है। मानसरोवर के नवीकृत स्वरूप से यहां के सौदर्य में अधिक वृद्धि होगी और यह तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनेगा।
ज्ञानकुंड: ब्रज चौरासी कोस की यात्रा में से ही (बच्छवन) का बड़ा महत्व है। इस संदर्भ में कथा इस प्रकार है कि गौचारण करते हुए श्री कृष्ण अपने ग्वाल-बाल सहित इस वन में विचरण कर रहे थे, तभी ब्रह्माजी को बालकृष्ण के परमात्म स्वरूप के संबंध में संदेह हो गया। उनकी परीक्षा लेने के लिए ब्रह्माजी कृष्ण के साथ के ग्वालबाल तथा बछड़ों को चुराकर उन्हें योग निद्रा में सुला दिया। उन्होंने सोचा कि कृष्ण अपने बछड़ों एवं ग्वाल बाल न पाकर चिंतातुर होंगे लेकिन कृष्ण ने अपनी लीला से वैसे ही ग्वाल बाल एवं बछड़ों को प्रकट करके उनके साथ खेलने लगे। ब्रह्माजी को अपने अज्ञान का बोध हुआ। अपराध बोध से त्रस्त होकर श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी। भगवान ने अपने चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन कराया। जिस स्थान पर ब्रह्माजी को भगवान के दर्शन हुए और उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, वहां श्रीकृष्ण के संकल्प से एक कुंड का निर्माण हुआ। वह ज्ञान कुंड के नाम से प्रसिद्ध है।
यह कुंड भी बहुत जर्जर अवस्था में था और इसकी कोई भी देखभाल नहीं हो रही थी। ट्रस्ट ने इस कुंड को नवीन स्वरूप प्रदान कर इसके सौंदर्य में वृद्धि की है। इसी के पास बच्छ बिहारी मंदिर तथा ग्वाल चबुतरा है, जिसका भी नव निर्माण किया गया है। और उसे सुंदर स्वरूप प्रदान किया गया है।
आज जब आधुनिक जीवन शैली ने पर्यावरण को प्रदूषित किया है और धरती, वायु, जल सभी का शोषण हो रहा है ऐसी परिस्थिति में ब्रज विकास ट्रस्ट का यह छोटा सा प्रयास बढ़ रहे प्रदूषण और गंदगी, अस्वच्छता के खिलाफ एक बड़े अभियान का संकेत दे रहा है। ब्रज विकास ट्रस्ट मुंबई के कुछ बुद्धिजीवियों की पहल पर मुंबई के समाजसेवी उद्यमी श्री विश्वनाथ चौधरी द्वारा की गई थी। मथुरा के धर्मक्षेत्र के सुप्रसिद्ध श्री श्री जी बाबा के सुपुत्र आचार्य श्री रमाकान्त जी गोस्वामी के साथ मिल कर ब्रज क्षेत्र को स्वच्छ, पवित्र और नूतन स्वरूप प्रदान करने के लिए देश के अग्रणी संत महात्माओं के आशीर्वाद से इस अभियान को प्रारंभ किया। बाद में अभियान में श्री देशबंधु कागजी, श्री सुरेश चतुर्वेदी, भोपाल के श्री सुशील केड़िया, श्री विनोद लाड जैसे उद्योगपति जुड़े और आज ब्रज विकास ट्रस्ट पूरी निष्ठा के साथ ब्रज क्षेत्र के पर्यावरण को शुद्ध करने, कुंडों को पुन: उसका मौलिक स्वरूप प्रदान करने में संलग्न है। इसी के साथ साथ ट्रस्ट उन सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्व के स्मारकों, मंदिरों के संरक्षण के लिए भी काम कर रहा है। अभी तक ट्रस्ट ने ब्रजक्षेत्र के २८ कुंडों, मंदिरों तथा ऐतिहासिक महत्व के स्थलों का नवीकरण किया हैं।
आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि धार्मिक, आध्यात्मिक तथा तीर्थ/पर्यटन के महत्व के सभी स्थानों को प्रदूषण से मुक्त करके उन्हें स्वच्छ तथा साफ-सुथरा करने की है। मंदिरों, कुंडों तथा अन्य स्थलों पर गंदगी या अस्वच्छता को भारत की परंपरा ने कभी नहीं स्वीकार किया है। किन्तु आज हम विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित देशों में से एक है। अतः यदि भारत की संत परंपरा और धर्माचार्य आगे बढ़कर इसका नेतृत्व करेंगे तो निश्चय ही आने वाले समय भारत की तस्वीर बदल जाएगी।
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वीरेन्द्र याज्ञिक

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