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भाजपा की सफलता का रहस्य

by अविनाश कोल्हे
in अप्रैल २०१७, राजनीति
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मुंबई मनपा के चुनावों के साथ राज्य में अनेक स्थानों पर हुए चुनावों के परिणाम आ चुके हैं और किसी भी पैमाने से देखें तो भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिली है। इसे समझने के लिए आंकड़ों के विवरण पर गौर करें तो इसके पीछे का रहस्य स्वयंमेव उजागर हो जाता है। मुंबई मनपा में कुल २२७ में से ८२ सीटों पर, पुणे मनपा में कुल १६२ सीटों में से ९२ सीटों पर, पिंपरी-चिंचवड मनपा में कुल १२८ में से ७८ सीटों पर, नागपुर मनपा में कुल १५१ में से ९१ सीटों पर तथा नासिक मनपा में कुल १२२ सीटों में से ६७ सीटों पर भाजपा को विजय मिली है। केवल ठाणे मनपा में भाजपा को कुल १३१ सीटों में से मात्र २३ सीटों पर संतोष करना पड़ा। अन्य स्थानों पर भाजपा का घोड़ा तेजी से दौड़ा इसे स्वीकार करना ही होगा। सार यह कि १० में ८ मनपाओं में भाजपा का महापौर है।

इसमें भी अत्यंत प्रतिष्ठित एवं अमीर मुंबई मनपा में भाजपा को मिली सफलता ऐतिहासिक है। यह चुनाव भाजपा एवं शिवसेना दोनों के लिए प्रतिष्ठा का तो था ही; लेकिन यह चुनाव जीतना शिवसेना के लिए राजनीतिक एवं आर्थिक अस्तित्व का अहम मुद्दा था। ऐसा होने पर भी भाजपा ने शिवसेना को स्पष्ट बहुमत तो पाने ही नहीं दिया, अपनी सीटों में भी तीन गुना इजाफा किया। इसे एक चमत्कार ही कहना होगा। भाजपा को मुंबई में मिली सफलता के कारण राज्य में राजनीतिक ताकत की पुनर्रचना होगी ऐसा लगता है। इसका अनुभव २०१९ में महाराष्ट्र में होने वाले विधान सभा तथा लोकसभा के चुनावों में दिखाई देगा ही।

मुंबई मनपा में शिवसेना को ८४ तो कांग्रेस को ३१ सीटें मिलीं। दो आंकड़ों की संख्या पाने वाले भाजपा समेत ये तीन ही दल हैं। अन्यों को याने मनसे को ७, राष्ट्रवादी को ९, ओवैसी की एमआईएम को ३ तथा समाजवादी पार्टी को ६ सीटों पर विजय हासिल हुई। मुंबई के निवासियों ने त्रिशंकू मनपा का फैसला सुनाया है।

वैसे देखा जाए तो शिवसेना-भाजपा की युति महाराष्ट्र में १९८९ से है। यह कहना मुश्किल है कि यह युति वाकई किसी पक्की बुनियाद पर खड़ी थी। इस युति के शिल्पकार बालासाहब ठाकरे एवं प्रमोद महाजन थे। आज ये दोनों नेता नहीं हैं। यही नहीं, १९८९ की और आज की राजनीतिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर आ गया है। तब मुंबई महानगर एवं महाराष्ट्र में भी भाजपा का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। लेकिन हिंदुत्व के मुद्दे पर ये दोनों दल गठबंधन में बंधे और १९९५ में महाराष्ट्र में सत्ता पर काबिज हो गए। बाद में इन दोनों दलों का राज्य में अच्छा विकास हुआ। अब तो मुंबई में इन दोनों दलों के पास तुल्यबल ताकत है। हाल में हुए चुनाव इसी बात को रेखांकित करते हैं।
शिवसेना-भाजपा युति में आरंभ से अनेक वर्षों तक भाजपा को छोटे भाई की भूमिका निभानी पड़ी। १९९५ में युति की सरकार आई तब मुख्यमंत्री पद शिवसेना के पास था। जिस घटक दल के विधायक ज्यादा, उस दल को मुख्यमंत्री पद देने का युति का फार्मूला था। इस फाम्यूले के अनुसार ही शिवसेना को मुख्यमंत्री पद मिला था। इसमें विवाद करने का कोई मुद्दा नहीं था।

१७ नवम्बर २०१२ को शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे का निधन हुआ। इसके बाद महाराष्ट्र में राजनीतिक समीकरण तेजी से बदलने लगे। बालासाहब जैसा करिश्माई नेता स्वयं अकेले ही राजनीति को मोड़ दे सकता था। अन्यों को वह नहीं जमा। बालासाहब के निधन के बाद स्थितियां बदलने लगीं। इसका अंदाजा २०१४ में हुए लोकसभा चुनावों एवं बाद में अक्टूबर २०१४ में हुए विधान सभा चुनावों में आ गया था। इन दोनों चुनावों में भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिली थी।

इसमें भाजपा की सफलता का ऊंचा ग्राफ दिखाई देता है। २००९ में हुए महाराष्ट्र विधान सभा के चुनावों में भाजपा को ४० सीटें मिली थीं और सेना को ४५। २०१४ में हुए महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में भाजपा को १२२ तो सेना को ६३ सीटों पर विजय मिली। यहां गौर करने लायक बात यह है कि इस बार जैसी उस समय भी युति टूटी थी और दोनों दलों ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था। इन दोनों दलों की सीटें यद्दपि बढ़ीं फिर भी भाजपा की वृद्धि दर आश्चर्य करने लायक है। भाजपा ने ४६ सीटों से बढ़ कर १२२ सीटों पर छलांग लगाई। अब मुंबई मनपा चुनाव में भाजपा ने ३३ सीटों से ऊंची कूद लेकर ८२ सीटें हासिल कर ली हैं।

लेकिन खेदपूर्वक यह कहना पड़ता है कि शिवसेना इस परिवर्तित परिस्थिति में अपने को सम्हाल नहीं पाई। मनपा चुनावों की घोषण होते ही युति में सीटों के बंटवारे को लेकर बातचीत शुरू हुई। तब अनेक शिवसेना नेता अपने बलबूते लड़ने के पक्ष में थे। इस बारे में मतभिन्नता हो सकती है। मुख्य बात यह कि यह मुद्दा सम्बंधित दलों के नेतृत्व के निर्णय करने का है। यदि किसी दल को यह लगे कि चुनाव वे अपने बलबूते पर लड़े तो इसके लिए उस दल को दोष नहीं दिया जा सकता। अपने बलबूते लड़ने के जिस तरह कुछ लाभ होते हैं उसी तरह कुछ हानियां भी होती हैं। लाभ यह कि मतदाताओं में अपनी ताकत कितनी है इसका सही अनुमान आता है। अन्यथा युति की जीत में अपना हिस्सा कितना है और मित्र दल का कितना है इस बारे में संभ्रम उत्पन्न होता है। बसपा की मायावती अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी चुनाव-पूर्व गठबंधन नहीं करतीं। जो कुछ सीटें पानी हों वे अपने बलबूते पर पाती हैं और परिणामों के बाद गठबंधन के बारे में बंदरबांट करती है। यही उनकी नीति है। इसमें हमेशा की तरह कुछ तथ्य अवश्य है।

मनपा चुनाव के पूर्व शिवसेना-भाजपा युति टूटी। लेकिन आज ऐसा दिखाई देता है कि इसमें शिवसेना का अधिक नुकसान हुआ और भाजपा का अधिक लाभ हुआ। युति टूटने के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अनेक स्थानों पर युति क्यों टूटी इसकी सफाई देते हुए कहा है कि ‘सीटों के बंटवारे का मुद्दा उतना महत्वपूर्ण नहीं था। हमारे दल का आग्रह पारदर्शक व्यवहारों का था। वहां हमने युति टूटे तो भी चलेगा यह भूमिका ली और अंत में इसी मुद्दे पर युति टूट गई।’ इस वक्तव्य से यह जोरदार संदेश पहुंचा कि भाजपा पारदर्शक व्यवहारों का आग्रह कर रही है और सेना इसके लिए तैयार नहीं है। मुंबईकरों को भाजपा का पारदर्शक व्यवहारों का आग्रह अच्छा लगा। मुंबईकर पिछले अनेक वर्षों से खराब सड़कों की परेशानी झेल रहे हैं। सड़कों के निर्माण में कितना भ्रष्टाचार होता है इसका अनुभव मुंबईकरों के लिए रोजमर्रे का है। इस स्थिति में उन्हें भाजपा का पारदर्शक व्यवहारों का आग्रह दिल से पसंद आया और इसके लिए युति तोड़ने वाले मुख्यमंत्री तक उन्हें पसंद आए। इसमें गलत कहां है?

इसी तरह का दूसरा मुद्दा यह कि भाजपा ने अनेक मतदान केंद्रों के बाहर विभिन्न उम्मीदवारों की शिक्षा, उनके परिवारों के बारे में जानकारी, उनके आय के जरिए, उनकी आय और उन पर विभिन्न आरोपों के बारे में जानकारी बोर्ड पर लगा दी। आज के सुशिक्षित मतदाताओं को इसमें अंतर महसूस हुआ। इसका अलग परिणाम हुआ। मार्केटिंग की भाषा में इसे ‘प्वाइंट ऑफ परचेस’ कहते हैं। जब ग्राहक दुकान में वस्तु खरीदी के लिए जाता है तब उसके मन पर प्रभाव डालने का माध्यम यही ‘प्वाइंट ऑफ परचेस’ होता है। इसी माध्यम का भाजपा ने प्रभावी रूप से इस्तेमाल किया। मतदान केंद्रों के बाहर इस तरह के बोर्ड होने से मतदाताओं को उनकी राजनीतिक राय पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता महसूस हुई। शायद इससे ही भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिली हो।

तीसरा मुद्दा यह कि देवेंद्र फडणवीस की छवि स्वच्छ है। जो व्यक्ति अपने दल के एकनाथ खड़से जैसे वरिष्ठ सदस्य की परवाह नहीं करता वह मुंबई मनपा में भ्रष्टाचार का समूल खात्मा करेगा और ठेकदारों की मनमानी पर अंकुश लगाएगा यह विश्वास निर्माण हुआ।
इन और इस तरह के घटकों के कारण भाजपा को मुंबई मनपा चुनाव में अभूतपूर्व सफलता मिली। अर्थात, सफलता के साथ जिम्मेदारियां भी आती हैं। भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल को इसकी जानकारी नहीं होगी ऐसा नहीं कहा जा सकता। भाजपा इस सफलता को किस तरह सम्हालती है यह आने वाला समय बताएगा ही।

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