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त्रिपुरा में भी कमल खिलने की आस

by डॉ. अशोक सिन्हा
in मई २०१७, राजनीति
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भाजपा त्रिपुरा के लिए नवप्रवेशी है परंतु कुछ महीने के भीतर ही इस दल ने यहां की राजनीति में सुनामी ला दी है। चुनाव पूर्व के अभियान के दौरान मोदी जी की सभा के लिए भाजपा कार्यकर्ता एक छोटा सा स्टेडियम भी नहीं भर सके थे, लेकिन वहीं अब एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या के विरोध में ४२,००० लोगों ने गिरफ्तारियां दीं और उसी स्टेडियम में ५०,००० लोग भी जमा हुए। यह भविष्य में यहां कमल खिलने का संकेत है।

त्रिपुरा की गिनती देश के सब से पुराने रजवाड़ों में होती है। माणिक्य वंश के नाम से प्रसिद्ध इस राजवंश के प्रथम शासक महाराजा रत्न माणिक्य थे, जो कि १२८० ई. में गद्दी पर बैठे। ५४७ वर्षों के दीर्घ शासन के दौरान इस वंश के ३५ महाराजाओं ने त्रिपुरा राज्य पर शासन किया। उत्तर प्रदेश के किसी छोटे से जिले जितने बड़े त्रिपुरा में आजादी के समय तक डेढ़ सौ से भी ज्यादा विद्यालय थे और शिक्षा व्यवस्था नि:शुल्क थी।

बड़ी राजनीतिक हस्तियों की बात करें तो, सचिंद्र लाल सिंह (४ अगस्त १९०७-८ दिसंबर २०००) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े राजनेता थे जो कि प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री (१ जुलाई १९६३-१ नवंबर १९७१) थे। वे पाकिस्तान से संघर्ष के दौरान शेख मुजीबुर्रहमान को भारत में शरण दिलवाने का प्रयास करने वाले प्रथम व्यक्ति थे। सिंह साहब ने १९६३ में मुजीबुर की नेहरू से मुलाकात भी करवाई। दुर्भाग्य से नेहरू उस हालात को समझने में नाकाम रहे। मुजीबुर को बैरंग वापस लौटना पड़ा।

आपातकाल के बाद की गड़बड़ियों का फायदा उठा कर नृपेन चक्रवर्ती राज्य के मुखिया बन गए और इसी के साथ ही त्रिपुरा का काला अध्याय भी शुरू हो गया। दो वर्षों के भीतर ही राज्य को देश के सब से बुरे दंगों में से एक का सामना करना पड़ा। १९८० के उस दंगे में सरकारी तौर पर लगभग २००० लोग मारे गए। वास्तव में यह संख्या बहुत ज्यादा थी। आम जनमानस की आत्मा में एक स्थायी घाव बन गया और इसी के साथ ही २० वर्षीय आतंकवाद की भी शुरुआत हो गई। इनमें से एटीटीएफ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थक था। अल्पसंख्यक ईसाइयों ने एनएलएफटी को प्रश्रय दिया और त्रिपुरा के बैपटिस्ट चर्च ने उसे आर्थिक सहायता पहुंचाई। हजारों लोग मारे गए, हजारों अगवा हुए और फिरौतियां शुरू हो गईं। महिलाओं की छेड़छाड़,बलात्कार और उत्पीड़न आम बात हो गई। सैकड़ों गांव खाली हो गए और बंगाली हिंदुओं और आदिवासी हिंदुओं को अपूरणीय क्षति उठानी पड़ी। १९९९ से लेकर २००९ के बीच आतंकवादियों के हाथों ३४७० निर्दोषों की हत्या हुई। सन २००० का वर्ष आतंकवाद का चरम वर्ष था। उस साल५१४ लोग मारे गए जिनमें से ४५३ आम नागरिक, ४५ आतंकवादी थे। साथ ही सुरक्षा बलों के १६ जवान भी शहीद हुए। उस समय की ३२ लाख की जनसंख्या को देखते हुए यह बहुत बड़ी संख्या कही जा सकती है। ज्यादातर घटनाओं में त्रिपुरा की सीपीआईएम सरकार की सहभागिता रही है लेकिन केन्द्रीय सरकारों ने राजनीतिक मजबूरियों के चलते हमेशा ही सबूतों की अनदेखी की है।

१९८८ में यहां कांग्रेस की सरकार बनी। परन्तु नरसिंह राव ने केन्द्र में समर्थन के बदले त्रिपुरा की सत्ता प्लेट में परोस कर सीपीआईएम को पेश कर दी। केन्द्र ने चुनाव से दो दिन पहले ही राष्ट्रपति शासन की घोषणा करते हुए चुनावों की तिथि आगे बढ़ा दी ताकि सीपीएम को चुनाव जीतने में सहूलियत हो सके। तब से ही केन्द्र की सक्रिय सहभागिता द्वारा त्रिपुरा में कम्युनिस्ट पार्टी का निर्बाध शासन जारी है।

माणिक सरकार ने अद्वितीय तरीके से पिछले २० वर्षों से पूरे देश, समूची मीडिया और सारे राजनीतिक विश्लेषकों को झांसे में रख छोड़ा है। वे देश भर में सब से गरीब, सबसे ईमानदार और मितव्ययी मुख्यमंत्री के तौर पर जाने जाते हैं। वे ज्यादातर रिक्शा और ट्रेन में सफर करते हैं। सरकार से केवल ५००० रुपये तनखाह लेते हैं और उसे भी पार्टी को दान कर देते हैं। वे बहुत साधारण कपड़े पहनते हैं और बहुत ही साधारण ढंग से जीवन- यापन करते हैं, जैसे सैकड़ों झूठे प्रचार किए जाते हैं। वे देश के इकलौते मुख्यमंत्री हैं जो कि भ्रष्टाचार के लिए सरकारी तंत्र का खुले तौर पर इस्तेमाल करते हैं। सीपीआईएम और नौकरशाही ने भ्रष्टाचार का बहुत ही मजबूत जाल बुन रखा है। राज्य से संबंधित तमाम आंकड़े बढ़ा चढ़ाकर पेश किए जाते हैं। ९७% साक्षरता के साथ त्रिपुरा देश का सब से साक्षर राज्य बनने वाली बात सरासर झूठ है। त्रिपुरा का भोजन और मछली पर पूर्णतया निर्भर होना कहना भी बहुत बड़ा ढोंग है। मनरेगा के मामले में त्रिपुरा सब से सफल माना जाता है; पूरा धोखा देने वाली बात है। त्रिपुरा स्वास्थ्य सेवाओं में अव्वल है। बहुत बड़ा फ्रॉड है। त्रिपुरा पुर्व शांत है। हां है, पर बिल्कुल कब्रिस्तान की तरह। त्रिपुरा में एक लाख लोगों पर ११८१ पुलिस है जबकि राष्ट्र स्तर पर यह संख्या १२२ है। अपराध सिद्धि का राष्ट्रीय आंकड़ा ४२% है, बगल के राज्य मिजोरम में ९०% है जबकि वहीं त्रिपुरा में मात्र ११% है। यह आंकडा वहां के पुलिस तंत्र के कामकाज के तौर तरीके की सच्चाई बयां करता है।

माणिक सरकार प्रशासन ने समाज के व्यापक हिस्से को मानसिक और नैतिक तौर पर भ्रष्ट बना दिया है। झूठ, भ्रष्टाचार, अनैतिकता आम जनजीवन का हिस्सा बन गए हैं। ग्रामीण संरचना छिन्न-भिन्न हो चुकी है। महिला सशक्तिकरण के राष्ट्रीय उद्देश्य के दुरुपयोग द्वारा माणिक बाबू ने गांवों की पारिवारिक प्रणाली को तहस-नहस कर डाला है। यह मुद्दा इतना संवेदनशील होता है इसलिए यदि कोई भी राजनेता इस मुद्दे पर बहस करता है या शिकायती रुख अख्तियार करने की कोशिश करता है तो उसे संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता का व्यक्ति करार देते हैं। भ्रष्टाचार गांवों का प्रमुख तत्व बन चुका है और इस भ्रष्टाचार की सब से बड़ी खासियत यह है कि सब कुछ आफीशियल तरीके से कागजी तौर पर होता है।

उनकी शिक्षा के प्रति गंभीरता इसी बात से समझी जा सकती है कि अपने शासन के शुरुआती १७ वर्षों में माणिक सरकार ने एक भी प्राथमिक अध्यापक की नियुक्ति नहीं की थी। आखिर में जब उन्होंने नियुक्तियां कीं तो देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार होने की वजह से १०३०० नौकरियां निरस्त कर दीं। मनरेगा का पूरा पैसा राजनीतिक प्रोत्साहन के तौर पर इस्तेामाल किया जाता है परंतु राज्य सरकार सब से अच्छी उपलब्धि के लिए सतत पुरस्कार प्राप्त करती रहती है। परंतु इस बार ‘जिओ टैगिंग’ ने माणिक सरकार का पूरी तरह से पर्दाफाश कर दिया क्योंकि सरकार ६% से ज्यादा काम का हिसाब नहीं दे पाई। त्रिपुरा हाईकोर्ट ने राज्य के सभी क्षेत्रों की फाइल का ऑडिट करने का आदेश दे दिया है। सरकारी नौकरियों से लेकर जन सुविधा के सारे क्रियाकलापों पर पार्टी का कब्जा है और गैर कम्युनिस्ट विचारधारा के व्यक्ति के लिए कुछ भी संभव नहीं है, यहां तक कि बीपीएल कार्ड भी। लोग मंत्रियों द्वारा मेडिकल की सीट बेंचे जान की बात करते हैं पर त्रिपुरा में तो सरकार ने पूरा का पूरा मेडिकल कालेज ही बेच डाला।

रोज वैली चिट फंड्स त्रिपुरा में खूब फला -फूला। मुख्यमंत्री समेत पूरी सरकार ने उसे खुले तौर पर सहयोग और समर्थन दिया है। सीबीआई की पैठ हर जगह है, त्रिपुरा को छोड़ कर। मुख्यमंत्री ने रोज वैली के सम्मेलनों में हिस्सा लिया और प्रचार किया कि रोज वैली का ७८० करोड़ का सालाना टर्नओवर है। लेकिन जब सीबीआई ने रोजवैली के खिलाफ सबूत के तौर पर जवाब मांगा तो माणिक सरकार ने कोई भी आंकड़ा नहीं पेश नहीं किया। अंतत: सीबीआई नेे केस लेने से इंकार कर दिया। इन सबके लिखित साक्ष्य हैं।

वे मानव दुखों के प्रति पूरी तरह असंवेदनशील, अति भ्रष्ट और बहुत बड़े ठग हैं। राज्य से बाहर जाने पर वे भी मीडिया को दिखाने के लिए द्वितीय श्रेणी से यात्रा करते हैं, जबकि पिछले वर्ष उनका हेलीकाप्टर का किराया १० करोड़ था। त्रिपुरा देश के अन्य राज्यों के किसी जिले जितना बड़ा है। १८३ किलोमीटर लम्बा और ११२ किलोमीटर चौड़ा, उसके लिए चॉपर की क्या आवश्यकता? पर वे प्रयोग करते हैं। अल्पव्ययी मुख्यमंत्री ७५ किमी की दूरी पर होने वाले भारतीय ट्रेड यूनियन केन्द्र की मीटिंग के लिए सरकारी चॉपर इस्तेमाल करते हैं। राष्ट्रीय स्तर की मीडिया सचमुच भोली है, बहुत भोली।

आम जनता के प्रति उनका व्यवहार भी अद्भुत है। दो महिलाओं ने अपने मुहल्ले में कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं द्वारा अवैध शराब बेचे जाने का विरोध किया। पहली घटना में एक ६ महीने की गर्भवती महिला को जबरदस्ती पार्टी कार्यालय में ले जाकर इतना मारा कि उसे खून जाने लगा। उसका पति उसे अस्पताल ले गया पर वे अपने बच्चे को न बचा सके। डॉक्टरों ने ‘मेडिको लीगल केस’ बनाने से इंकार कर दिया और पुलिस ने रिपोर्ट भी नहीं लिखी। हमने पूरी कोशिश की पर उनकी समुचित सहायता न कर सके। दूसरी घटना में विरोध करने वाली महिला को दिनदहाड़े खंभे से बांध कर बुरी तरह पीटा गया ताकि लोगों में दहशत का संदेश दिया जा सके। सौभाग्य से महिला के बेटे ने उस हिंसा का वीडियो बना लिया था। हमने वह वीडियो लेकर मीडिया को आमंत्रित किया और चीफ जस्टिस का ध्यान इस घटना की तरफ आकर्षित कराया। मुख्य न्यायाधीश ने मामले का संज्ञान लेते हुए त्वरित कार्रवाई की और दोषियों को जेल पहुंचाया। इस तरह की अमानवीय घटनाएं राज्य में हर गली -हर नुक्कड़ पर हो रही हैं। सैकड़ों लोग तकलीफ पा रहे हैं पर न्याय से वंचित हैं।

देश के किसी अन्य प्रदेश में राजनीतिक आतंक द्वारा विरोधियों की जुबान बंद करने की बात बेमानी है। यहां विरोध करने पर अपनी पार्टी के विधायक मार दिए जाते हैं। विरोधी पार्टी के विधायकों का कत्ल करवा दिया जाता है। एसडीएम, बीडीओ, पुलिस अफसर कोई सुरक्षित नहीं है। न्याय के लिए कोई स्थान नहीं है। बलात्कार एक राजनीतिक हथियार है और आर्थिक प्रतिबंध भी। यदि आप उनका साथ नहीं देते हैं, आपको कुछ नहीं मिलेगा। कुछ भी नहीं। यदि आप उनकी सभाओं में नहीं जाते हैं तो दुश्मन के तौर पर चिह्नित किए जाएंगे। हर चुनाव के बाद ये लोग विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं के पीछे पड़ जाते हैं। उनकी हत्या करते हैं, घर जला डालते हैं। महिलाओं का बलात्कार करते हैं, ताकि ये परिवार दोबारा चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा बनने की हिम्मत ही न जुटा सकें।

त्रिपुरा के सरकारी कर्मचारी देश में सब से कम वेतन पाते हैं। वहां अंतिम बार १९८९ में वेतन आयोग लागू हुआ था। पर एक विकल्प खुला है, लुटेरे बनो और धनी हो जाओ, वेतन की चिंता से ही मुक्त हो जाओ। कर्मचारी इतने कम वेतन का विरोध क्यों नहीं करते? कौन चिह्नित होना और बर्बाद होना पसंद करेगा? विद्रोह के समय में विरोधियों का दंडस्वरुप अशांत इलाकों में स्थानांतरण कर दिया जाता था, जहां उन्हें अगवा कर लिया जाता था।

मुद्दे की बात यह है कि यदि लोग इतने असंतुष्ट हैं तो वाम फ्रंट चुनाव कैसे जीत जाता है? त्रिपुरा में धोखाधड़ी अपनी पूर्णता की ओेर अग्रसर है। बूथ लेवल से लेकर मुख्य चुनाव अधिकारी तक सभी सीपीआईएम के लोग हैं। दुर्भाग्य से राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को यह सब बातें हारने वालों का अनर्गल प्रलाप लगती हैं। मतदाता सूची में गड़बड़ी करके हजारों बांग्लादेशियों के नाम जोड़ दिए गए हैं। ये सारे कार्य चुनाव विभाग बिना किसी डर के खुले तौर पर करता है। विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं द्वारा हटवाने पर चोरी से इन नामों को फिर से जोड़ दिया जाता है ताकि विपक्षी कार्यकर्ता हतोत्साहित हों। त्रिपुरा में चुनावों में वोटों का प्रतिशत देश भर में सर्वाधिक होता है। पिछले उपचुनाव में तो यह बेतुके तरीके से ९४.०१% तक पहुंच गया। २०१३ के विधान सभा चुनावों में लगभग ९३% वोटिंग हुई थी। यह एक अविश्वसनीय सत्य है। त्रिपुरा में कोई भी उम्मीद्वार सीपीआईएम की सहमति के बगैर एक भी चुनाव नहीं जीत सकता। बूथ कैप्चरिंग के वीडियो देख कर भी राज्य के मुख्य चुनाव आयुक्त के कानों पर जूं नही रेंगती। इसका मतलब साफ है।

पिछले बीस वर्षों में एक शांतिप्रिय राज्य को हिंसक और क्रूर रणक्षेत्र में तब्दील कर दिया गया है। आदिवासी और बंगाली, जिनके बीच पूर्व में कोई भी समस्या न थी, एक दूसरे के दुश्मन बन गए। १९८० का आदिवासी -बंगाली दंगा वामपंथ का ही किया था। पर देश भर में किसी को भी समस्या न हुई। वह गुजरात नहीं था इसलिए दंगों के लिए मुख्यमंत्री जिम्मेदार नहीं थे। दो दशकों से विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं की दिनदहाड़े होने वाली हत्याओं, अपराध, बलात्कार और आर्थिक गतिरोध ने आम जन के मुंह ताला जड़ दिया है।

राष्ट्रीय मीडिया के विषय में जो भी कहा जाए थोड़ा है। १९९९ में उदयपुर के रयाबरी में गैर मुस्लिमों द्वारा ६ मुस्लिम महिलाओं का सामूहिक बलात्कार किया गया। किसी अन्य राज्य में घटित होने पर यह एक अंतरराष्ट्रीय समाचार बनता। कुछ नहीं तो राष्ट्रीय स्तर पर तो इसकी चर्चा होती। पर यहां कुछ नहीं हुआ।

यहां कांग्रेस मृतप्राय हो चुकी है। क्योंकि वह लागों का विश्वास खो चुकी है। राहुल गांधी और उनकी साम्यवादियों के साथ मित्रता कोढ़ में खाज की तरह है। १९९३ में ४६% प्रतिशत मत पाने वाला दल कुछ सौ में सिमट कर रह गया है। वह भी उन बुजुर्गों की मेहरबानी है जो अभी भी कांग्रेस को गांधीजी से जोड़ कर देखते हैं।

भाजपा यहां के लिए नवप्रवेशी है परंतु कुछ महीने के भीतर ही इस दल ने यहां की राजनीति में सुनामी ला दी है। जहां कि चुनाव पूर्व के अभियान के दौरान मोदी जी की सभा के लिए भाजपा कार्यकर्ता एक छोटा सा स्टेडियम भी नहीं भर सके थे, वहीं अब एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या के विरोध में ४२,००० लोगों ने गिरफ्तारियां दीं और उसी स्टेडियम में ५०,००० लोग भी जमा हुए। हम एक साम्यवाद मुक्त राज्य का सपना देखते हैं, हम भारतवर्ष के अन्य राज्यों के साथ कदम से कदम मिला कर चलने वाले राज्य का स्वप्न देखते हैं। हम राष्ट्र के हर उत्थान में कंधा मिला कर चलने वाले राज्य का स्वप्न देखते हैं, आप और हम सब एकसाथ चल सकें। हम उस समय का स्वप्न देखते हैं जबकि हम आपका उत्साह वर्धन कर सकें और आप हमारा। मैं और आप एक दूसरे की सफलता में सहभाग कर सकें। मैं आपके दुख में रोऊं और आप मेरे। मैं आपके दुश्मनों के सम्मुख सीना ताने खड़ा हो जाऊं और आप मेरे दुश्मन के सम्मुख। मेरा दुश्मन हम सबका दुश्मन है, मेरा मित्र हम सबका मित्र है और मेरा मुल्क हम सबका है। मेरी समझ में यही सच्चा राष्ट्रधर्म है।

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