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मैं कटना नहीं चाहता…

मैं कटना नहीं चाहता…

by pallavi anwekar
in पर्यावरण, वन्य जीवन पर्यावरण विशेषांक 2019, सामाजिक
1

पेड़ सिसक कर कह रहा है, “ मनुष्य का अस्तित्व हमारे सह- अस्तित्व से ही है। अत: मुझ पर आश्रित पंछियों, कीटकों से लेकर मनुष्य तक के लिए मैं कटना नहीं चाहता…।” क्या आप हमारी बात सुनेंगे?

अगर मैं आपसे पूछूं कि आज दुनिया में सब से तेज गति से क्या बढ़ रहा है? तो शायद आपका जवाब होगा प्रदूषण, जनसंख्या, बीमारियां, भ्रष्टाचार, तकनीक, इत्यादि। पर मेरी मानिए, ये सभी तो दृश्य कारक हैं। इन सभी के अलावा एक और ऐसा अदृश्य कारक है, जो अत्यंत तेजी बढ़ रहा है और उसके भयावह परिणाम सामने आ रहे हैं। उस अदृश्य कारक का नाम है संवेदनहीनता। यह संवेदनहीनता मानव के व्यक्तिगत स्तर से ऊपर उठ कर अब समाज और सम्पूर्ण मानवजाति के स्तर तक पहुंच चुकी है। इस संवेदनहीनता के कारण ही मानव अपने विकास की आड़ में प्रकृति से खिलवाड़ करने लगा है। मैं मनुष्य पर इतने सारे आरोप लगा रहा हूं, तो क्या मैं मनुष्य नहीं हूं? नहीं! मैं मनुष्य नहीं हूं। मैं पेड़ हूं। वह पेड़ जो जिसकी टहनियों पर झूले बांध कर मनुष्यों का बचपन गुजरता है। जिसे पत्थर मारने पर भी वह फल ही देता है। सूरज की तपिश से मनुष्य को बचाने के लिए जो अपनी शाखारूपी बाहें हमेशा फैलाए रखता है। मैं वही पेड़ हूं। मैं कहीं भी हो सकता हूं। आपके घर के आंगन में, बीच रास्ते में, नदी के किनारे या फिर किसी जंगल में अपने बंधुओं-मित्रों के साथ।

मुझे मानवीय संवेदना से जुड़ी एक बात बड़ी मजेदार लगती है। यह मनुष्य अपने नफे-नुकसान को देखते हुए संवेदनशील या संवेदनहीन बन जाता है। यातायात को नियंत्रित और व्यवस्थित करने के लिए आज महानगरों से लेकर छोटे शहरों और कस्बों तक लगभग सभी जगह रास्तों को चौड़ा करने का कार्य किया जा रहा है। पिछले कुछ सालों से चलने वाली इस प्रक्रिया का मैं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं। इस प्रक्रिया के दौरान कई इमारतों, मंदिर-मस्जिदों, पेड़-पौधों को तोड़ा या हटाया जाता है। इमारतों पर गाज गिरते ही मनुष्यों की संवेदनशीलता तुरंत जागृत हो जाती है।

अपने आशियाने को टूटता हुआ देखना किसी को अच्छा नहीं लगता। मंदिरों या मस्जिदों को तोड़ने के तो फरमान मात्र से उनकी संवेदनशीलता चरम सीमा तक पहुंच जाती है। कई बार तो धार्मिक हंगामा होने के डर से ही रास्तों को चौड़ा करने का कार्य आगे बढ़ा दिया जाता है या बंद कर दिया जाता है। परंतु इसी काम के बीच जब हम जैसे पेड़ आते हैं तो मनुष्य को कोई फर्क नहीं पड़ता। तब वे बिलकुल संवेदनहीन हो जाते हैं। मनुष्य की दृष्टि में हम जैसे पेड़ रास्ते का वह रोड़ा हैं जो उनके विकास कार्य में बाधा बन गया है। बस फिर क्या, आनन-फानन में हमें काटने की तैयारियां शुरू कर दी जाती हैं। हमें काटते समय मनुष्य यह नहीं सोचता कि हमारी टहनियों पर कई पंछियों ने अपने घोंसले बनाए हैं। हमारे तने की खोल में गिलहरियां रहती हैं। हमारेपत्तों के बीच गिरगिट जैसे कई छोटे-छोटे जीव रहते हैं। जड़ों के आसपास चींटियां रहती हैं। ये सभी जीव-जन्तु और पक्षी अकेले नहीं रहते। लाखों की संख्या में रहते हैं। हम जैसा एक पेड़ टूटने से इन लाखों जीवों का आशियाना टूट जाता है। लेकिन मनुष्य को कोई फर्क नहीं पड़ता। इस मामले में वह बिलकुल संवेदनहीन हो जाता है।

जंगल में हिंस्र पशुओं के बीच रहने वाले, उनका प्रेम पाने वाले, उनकी संवेदनशीलता से अभिभूत हो कर जंगल को ही अपना घर मानने वाले मोगली और टार्जन की कहानियां सुनना या फिल्म देखना मनुष्यों को बहुत पसंद है, परंतु इन प्राणियों में से जब कोई प्राणी जंगल से निकल कर मानव बस्ती में पहुंच जाता है तो मनुष्य उसे मार देता है। वह यह भूल जाता है कि ये जंगली जानवर उसके क्षेत्र में नहीं आए हैं बल्कि मानवों ने जंगलों पर अतिक्रमण कर दिया है।

मानवों का जंगल में रहना कोई नई बात नहीं है। आदिकाल से ॠषि-मुनी अपनी कुटिया बना कर वनों में रहते आए हैं। अधिकतर गुरुकुल भी वनों में ही होते थे। परंतु उस समय मनुष्य वनों पर निर्भर था, आश्रित था। उसकी सारी जरूरतें वनों से पूरी होती थीं। परंतु जैसे-जैसे उसने विकास करना प्रारंभ किया, वनों का शोषण करना प्रारंभ कर दिया। उत्क्रांति के जिन पायदानों पर उसे वनों को साथ लेकर चलना था, वहां उसने वनों पर अतिक्रमण प्रारंभ कर दिया। जिसके दुष्परिणाम वह स्वयं भोग रहा है।

पहाड़ों के पेड़ कटने के कारण वहां की मिट्टी ढीली हो गई है। वहां आए दिन बाढ़ का खतरा मंडराता रहता है। दिन-ब-दिन वायु प्रदूषण का खतरा बढ़ता जा रहा है। हमारी संख्या कम होने के कारण हमारे द्वारा उत्सर्जित प्राणवायु में भी निरंतर कमी आ रही है। जिससे सांस और फेफड़ों से सम्बंधित बीमारियों ने मनुष्य के शरीर को अपना घर बना लिया है। पृथ्वी का तापमान दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। बड़े पैमाने पर ग्लेशियर पिघल रहे हैं। यह सब देखने के बाद भी मनुष्य सुधरने का नाम नहीं ले रहा है। ऐसा लग रहा है कि उसे अपने आने वाली पीढ़ी की भी चिंता नहीं है, जो कि अपनी पीठ पर ऑक्सीजन का सिलेंडर लेकर घूमने को विवश हो सकती है।

प्रकृति ने मानव को विचार करने का वरदान दिया है। उसका यह कर्तव्य है कि वह प्रकृति द्वारा रचित हर एक वस्तु को संभाल कर, सहेज कर रखें। केवल पेड़ों की या वनों की ही नहीं वरन प्राणियों की भी विभिन्न प्रजातियों की रक्षा करने की जिम्मेदारी मानव की ही है। प्राणियों की त्वचा और मांस के लिए मनुष्य पहले उनका अवैध शिकार करता है। और जब ये प्राणी विलुप्त होने की कगार पर पहुंच जाते हैं तो उनकी रक्षा के लिए ‘सेव टायगर’ जैसे अभियान चलाता है। परंतु केवल अभियान चलाने से काम नहीं चलेगा। प्राणियों के जीवित रहने लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण करना होगा। किसी अभयारण्य में रख देने भर से उनके अनुकूल वातावरण का निर्माण नहीं होता। वरन वह तो उनकी मौत का कारण भी बन सकता है, जिस प्रकार कुछ समय पहले गीर के अभयारण्य में एकसाथ 23 सिंहों की जान चली गईं। इस तरह तो मनुष्य अभयारण्य को भयारण्य में तब्दील कर देगा।

अपनी आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए अगर उसे हमारी लकड़ी, पत्तों, फूलों-फलों की आवश्यकता है तो वह बेझिझक लें, नैसर्गिक रूप से मृत या खराब हो चुके वृक्षों को पूरा काट दें, परंतु हरे-भरे वृक्षों को काटना कहां तक उचित है? और फिर भी अगर काटना अत्यावश्यक हो तो साथ-साथ नए वृक्षों के पौधों को भी रोपा जाए। इसका दूरगामी परिणाम यह होगा कि पुराने वृक्षों के कटने और नए पौधों के लगने का अनुपात लगभग बराबर होगा। अगर रास्ते को चौड़ा करने के दौरान कोई पेड़ बीच में आ रहा हो तो योजनाबद्ध तरीके से उसे तिराहे या चौराहे में पुनर्रोपित किया जा सकता है। रास्तों को दो भागों में बांटने वाले डिवाइडर सीमेंट की जगह पेड़ों की कतारों से बनाए जा सकते हैं। फुटपाथ के समीप रास्तों के किनारें पेड़ लगाए जा सकते हैं। मानव ने कई उच्च तकनीकों का विकास कर लिया है। वह दीवारों के सहारे अत्यंत कम मिट्टी और पानी में पनपने वाले पौधों को उगा सकता है। ये पौधे अगर फ्लायओवर को आधार देने वाले खंबों पर उगाए जाएं तो न केवल रास्ते की शोभा बढ़ाएंगे वरन वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा को भी बढ़ाएंगे।

मैंने अपने पूरे जीवन में जादव पाएंग जैसे कुछ ही मनुष्य ऐसे देखे हैं जिन्होंने अपनी मेहनत से जंगल बसाए हैं। चिपको आंदोलन के सभी कार्यकर्ताओं का मैं आभारी हूं जिन्होंने मेरे साथियों को कटने से बचा लिया। परंतु ये प्रयास कुछ लोगों के करने मात्र से सफल नहीं होंगे। सभी मनुष्यों को यह ध्यान रखना होगा कि हम किस प्रकार प्रकृति को संतुलित रख सकते हैं। अपनी आने वाली पीढ़ी के सामने अपनी कृतियों से वन, वन्य जीव और मनुष्य के बीच के संतुलन को बनाए रखने के उदाहरण प्रस्तुत करने होंगे। तभी अगले कई सालों तक हमारा और मनुष्य का अस्तित्व बचा रहेगा।

अच्छा तो यह होगा कि मानव अपनी विकास यात्रा में हमें भी साथ लेकर चलें। अपना नगर बसाने से पहले हमारे पौधे रोपें। पार्किंग के लिए जगह छोड़ने के साथ ही गार्डन के लिए भी जगह छोड़ें। अपने आशियाने के साथ-साथ अन्य जीवों के आशियाने के बारे में भी सोचें। मनुष्य का अस्तित्व हमारे सह- अस्तित्व से ही है। अत: मुझ पर आश्रित पंछियों, कीटकों से लेकर मनुष्यों तक के लिए मैं कटना नहीं चाहता…।

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Tags: biodivercityecofriendlyforestgogreenhindi vivekhindi vivek magazinehomesaveearthtraveltravelblogtravelblogger

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 सारस और लोमड़ी

 सारस और लोमड़ी

Comments 1

  1. Sadashiv Kulkarni says:
    6 years ago

    ??

    Reply

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