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ध्येयनिष्ठ वंदनीय उषाताई

by चित्रा जोशी
in प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७, महिला, व्यक्तित्व
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वं. उषाताई चाटी का चले जाना यूं भी सेविकाओं के लिए किसी आघात से कम नहीं। वह बालिका के रूप में स्व. नानी कोलते जी की अंगुली पकड़ कर समिति की शाखा में आई और अपनी स्वभावगत विशेषताओं और क्षमताओं के कारण ६८ वर्ष पश्चात् संगठन की प्रमुख बन कर १२ वर्ष तक सभी का मार्गदर्शन करती रही। वं. मौसी जी ने सेविकाओं के सम्मुख तीन आदर्श रखे, मातृत्व-कतृत्व-नेतृत्व।
वं. उषाताई जी ने ‘स्वधर्मे स्वमार्गे परं श्रद्धया’ पर चलने वाला जीवन जीया। उनका स्मरण अर्थात् ७८ वर्ष के ध्येयनिष्ठ जीवन का स्मरण। आयु के १२हवें वर्ष से ९१ वर्ष की आयु तक ‘वयं भावि तेजस्वी राष्ट्रस्य धन्याः’ ऐसी राह पर चलती रही। उनका जीवन सान्निध्य में आने वाली सेविकाओं को सुशीला सुधीरा… बनाने हेतु ही था । एक सामान्य से परिवार में जन्मी यह बालिका स्वर्गीय नानी कोलते जी की अंगुली पकड़ कर समिति की शाखा में आई और अपनी स्वभावगत विशेषताओं और क्षमताओं के कारण ६८ वर्ष पश्चात् संगठन की प्रमुख बन कर १२ वर्ष तक सभी का मार्गदर्शन करती रही। गृहिणी, अध्यापिका एवं सेविका ये तीनों दायित्व उन्होंने बखूबी निभाए।
उनका मायका और ससुराल दोनों भरे पूरे परिवार थे। पूर्वाश्रम की वे उषा फणसे थी। चार भाई और दो बहनें। बड़ी बहन की अकाल मृत्यु होने के कारण उषाताई ही ब़ड़ी बहन हुई और उनके साथ सुखदुःख बांटती, समस्याओं के समय उनका आधार बनती, वह सबकी प्रिय ‘बुवा’ तथा ‘मौसी’ भी बन गई। चाटी परिवार में वे ब़ड़ी बहू थीं। तीन देवर, देवरानियां, ननद ऐसा परिवार था। विवाह के पश्चात् उनका नाम सुलभा गुणवंत चाटी हुआ। अपने नाम जैसी ही वे सब के लिए सुलभ थी। उनके व्यक्तित्व में एक विलक्षण आश्वासकता थी। चेहरे से नित्य आत्मीयता झलकती थी। सुहास्य मुद्रा से उनके स्वागत करते ही तन मन के दुखदर्द दूर हो जाते थे। चंद क्षणों में ही वह व्यक्ति मन से स्वस्थ हो जाता था। आवश्यकतानुसार आर्थिक सहयोग भी करती थी।
उनके विवाह से दो ध्येयनिष्ठ जीवन एकत्रित हो गए थे। भारत मां को परम वैभव पथ पर ले जाने का स्वप्न आंखों में समाया हुआ था। उनके पति बाबाजी चाटी नागपुर के घोष प्रमुख थे। उनका संपर्क व्यापक था। वं. मौसी जी कहती थी कि, ‘‘पति-पत्नी का परस्पर प्रेम और एकता ही उसके गृहस्थाश्रम की सफलता का रहस्य और उसके सुख का मंत्र है।’’ उषाताई जी का गृहस्थ जीवन उसका साक्षात रूप है। परस्पर पूरकता उनके गृहस्थाश्रम की विशेषता रही। बाबाजी स्वयं के संपर्क में आए व्यक्तियों का परिचय उषाताई से करवाते थे। घर में व्यक्तियों का आना-जाना एवं बैठकों के समय खाना-पीना हमेशा चलता रहता था। उषाताईजी आतिथ्य ही ऐसा करती थीं कि लोगों का घर आने का मन करें। पारिवारिक आवश्यकतानुसार भारत महिला विद्यालय में एक वर्ष एवं ‘हिंदू मुलींची शाला’ में उन्होंने अध्यापन का कार्य किया। विद्यालय में वे मराठी और भूगोल पढ़ाती थी। उनके मराठी के पीरियड को उनके सहयोगियों ने आनंदयोग नाम दिया है। सुंदर आवाज में कविताएं गाना और सिखाना और लेखक परिचय से लेकर – उसकी विशेषता- कार्य एवं कविता या उसका पाठ आपके पाठ्यक्रम में अंतर्भूत करने का कारण भी बताती थी। विद्यालय की विद्यार्थिनियों के विकास के लिए वाचन करवाना, भिन्न-भिन्न वक्ताओं को बुलाना, प्रदर्शनियां आयोजित करने का कार्य सहजता व सरलता से करती थी। गटनायिका से लेकर प्रमुख संचालिका के प्रवास में उन्होंने बहुत कुछ सीखा, अनुभव किया, व्यक्तियों को जो़ड़ा, उन्हें कार्य हेतु दृढ़ बनाया।
वं. मौसी जी ने सेविकाओं के सम्मुख तीन आदर्श रखे, मातृत्व-कतृत्व-नेतृत्व। राजमाता जीजाबाई मातृत्व की आदर्श थीं। सिंदखेडराजा उनका जन्मस्थान था। १९७३ में जीजामाता जयंती त्रिशताब्दी के उपलक्ष्य में वहां कार्यक्रम करने का मनोदय वं. मौसी जी ने सबके सम्मुख रखा। बुलढाणा जिले का यह छोटा सा गाव। उस समय सिंदखेडराजा को नाम, उसका महत्व एवं उसकी जानकारी भी सभी को नहीं थी, वहां तक आवागमन के तथा संपर्क के प्रभावी साधन भी नहीं थे। उस समय उषाताई जी विदर्भ प्रदेश की कार्यवाहिका थी। शनिवार को विद्यालय सुबह रहता था। उसके पश्चात् दोपहर बस से चिखली में मीराताई राजे के घर जाकर प्रवास के स्थान निश्चित होते थे। मंगलाताई तारे भी साथ रहती थी। वं. मौसी जी इस कार्यक्रम में उपस्थित रहती थी। उस समय ही रेल्वे की देशव्यापी हड़ताल दीर्घकाल तक चली। स्थानीय बंधु कार्यकर्ताओं को लगता था कि अब कार्यक्रम नहीं होगा परंतु सेविकाओं ने दृढ़तापूर्वक कार्यक्रम सफल बनाया। शोभायात्रा भी निकली। कई बसें बदल-बदल कर सेविकाएं वहां पहुंचीं। और १९९८ में वे प्रमुख संचालिका थी तब जीजामाता समाधि स्थल पाचाड में कार्यक्रम हुआ और डाक टिकट के लोकार्पण का कार्यक्रम दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री जी की उपस्थिति में संपन्न हुआ।
वैसे ही अहिल्याबाई के जन्मस्थान चौंडी में उनके जन्म द्विशताब्दी के समय कार्यक्रम हुआ। चौंडी देवगिरी प्रांत का एक छोटा सा गांव। उसे खोजने के लिए भी काफी प्रयास करने पड़ेे। कार्यक्रम निश्चित हुआ। उस समय वं.उषाताई जी के घुटने दर्द देने लगे थे अतः चलना कठिन था। वहां तक अन्य कोई वाहन नहीं जा सकता था। फिर भी बैलगाड़ी में बैठ कर वह कार्यक्रम स्थल पर पहुंची। महेश्वर में देवी अहिल्याबाई की कर्मस्थली पर भी कार्यक्रम संपन्न हुआ।
१९७७ में वं. मौसी जी ने उन्हें पूर्वी एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दायित्व सौंपा। शिक्षिका होने के कारण प्रवास के लिए छुट्टियों की राह देखनी पड़ती थी। समर्थ रामदास जी के कथनानुसार ‘घडीने घडी सार्थकाची करावी’ प्रत्येक क्षण सार्थ करना चाहिए। यह सोचकर वह दीपावली एवं ग्रीष्मावकाश में प्रवास करने लगी। कार्यवृद्धि, दृढ़ीकरण, दायित्व बोध हो इसलिए प्रवास आवश्यक ही होता है। उन्होंने प्रवास प्रारंभ किया तब वहां की महिलाओं को उनका पहनावा कुछ अटपटा सा लगता था। आदमी जैसा पहनती है, ऐसा कह कर हंसती थी। परंतु उसकी ओर ध्यान न देते हुए वे प्रवास करती रही। सतत प्रवास से परिचय दृढ़ होता गया और ‘नऊ गजी साड़ी’ का कुतूहल भी समाप्त हुआ। उत्तर प्रदेश का प्रथम प्रवास आगरा से प्रारंभ हुआ। एक संघ बंधु के घर में ही निवास था। घर के बाहरी हिस्से में उनका निवास था। चाय और भोजन भी वहीं आया। घर की गृहिणी से परिचय ही नहीं हुआ। समिति कार्य की उसे कल्पना ही नहीं थी। संघ का कोई कार्यकर्ता होगा ऐसा वह उषाताई जी के बारे में सोचती थी। दूसरे दिन उषाताई जी ने रसोई घर में जाकर उससे परिचय कर लिया। बैठक भी उसी घर में हुई। घर की गृहिणी उसमें उपस्थित हुई, पर कार्य के लिए वह उत्सुक नहीं थी। आतिथ्य तक ही उसने अपना कार्य सीमित कर लिया था। अधिकांश घरों में ऐसा ही वातावरण था। फिर भी उषाताई जी के अडिगता से कार्य करने के कारण कार्यानुकूल वातावरण का निर्माण हुआ। आगरा में पिछले २५ वर्षों से नव वर्ष की पूर्वसंध्या में समिति के द्वारा विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। मा. डॉ. शरदरेणु शर्मा (अ.भा. बौद्धिक कार्यवाहिका) एवं मा रेखाताई राजे (अ.भा. सहकार्यवाहिका) क्रमशः पश्चिमी एवं पूर्वी उ.प्र. से हैं। मा. ओमप्रकाशजी, मा. जयगोपालजी, दिनेशजी बहुत सहयोग करते थे। अनेक बार अनारक्षित डिब्बे से प्रवास करती थीं। प्रथम विदर्भ, उत्तर प्रदेश आगे चल कर सह प्रमुख संचालिका- प्रमुख संचालिका का दायित्व आने से प्रवास का क्षेत्र विस्तारित हुआ।
१९८२ में झांसी की रानी के १२५ वें स्मृति वर्ष में झांसी में एक कार्यक्रम आयोजित किया था और वह संस्मरणीय भी रहा। गुजरात के भूकंप पीड़ित गांव मयापुर के नवनिर्माण के लिए सेविकाएं प्रयत्नशील रहीं, उसके लोकार्पण कार्यक्रम में उषाताई जी उपस्थित रही। कार्यकर्ता को समझ लेना और प्रोत्साहन देना उनकी प्रमुख विशेषता रही। यह सहजता, संवदेनशीलता, सहिष्णुता उनकी उपासना का बल था। प्रवास में उनके व्यस्त कार्यक्रम में भी उनका नित्यक्रम अबाधित रहता था। नित्यक्रम के कारण कार्यकर्ता को मिलना नहीं या रुकना पड़ा ऐसा भी कभी हुआ नहीं। कभी-कभी बैठक समाप्त होने तक या कार्यकर्ताओं के मिलने-जुलने में रात के ग्यारह भी बज जाते थे। उनका समाधान हो जाने पर वे शांत रूप से हाथ पैर धोकर रामायण पाठ करती थी। १९६४ के आसपास वे कुछ बीमार हुई तब वं. मौसी जी ने उन्हें रोज रामचरित मानस पढ़ने के लिए कहा तब से आखिरी दिन तक यह क्रम चलता रहा। वैसे ही प्रति वर्ष श्रीराम नवरात्रि में दस दिन चंदन नगर के राम मंदिर में वे जाती थी। श्रीराम जैसी ही कर्तव्य प्रधानता उनके जीवन में दिखाई देती है। कुछ कार्यकर्ताओं के अनुभव के कुछ बिंदु-
मुझे ऊर्जा मिली
वं. उषाताई जी १२ वर्ष प्रमुख संचालिका थी। १९९८ से विश्व समिति शिक्षा वर्ग प्रारंभ हुए। प्रथम वर्ग पुणे, द्वितीय वर्ग नागपुर और तीसरा नाशिक में हुआ। इस वर्ष २० जुलाई से ५ अगस्त २०१७ तक यह वर्ग नागपुर में स्मृति मंदिर रेशीमबाग में था। उषाताई जी दिनांक १७.७.१७ से ‘स्पंदन’ हॉस्पिटल में भरती थी। २३.७. को देवी अहल्या मंदिर आई। परंतु हॉस्पिटल जाने पर रोज पूछती थी कितनी सेविकाएं आईं, कौन-कौन से देश से आईं। दिनांक २४ को प्रातः उन्होंने कहा कि पैर में अत्यधिक दर्द है इसलिए हॉस्पिटल जाएंगे। अतः ‘एन.सी.आय.’ हॉस्पिटल जाने का निश्चय हुआ। प्रथम उन्होंने गुरुपूजन-दक्षिणा समर्पण किया। स्नान के पश्चात् हॉस्पिटल जाने से पूर्व स्मृति मंदिर रेशीमबाग गए। गाड़ी पहुंच ही रही थी कि प्रभात शाखा में विकिर (समाप्त) हुई। अतः सर्वाधिकारी, शिक्षिका, सेविकाएं सभी उनके पास एकत्रित हुईं। उषाताई जी बहुत ही प्रसन्न हुई/फूली न समाई। योगिनी, कल्याणी पेशवे, अनीता पटेल अनेक वर्षों बाद मिली। डरबन की सरीशा क्यों नहीं आई?- ऐसी पूछताछ भी की। वहां से निकलते समय उन्होंने कहा, ‘आप सब की भेंट हुई मुझे दुखदर्द सहन करने के लिए बहुत ऊर्जा प्राप्त हुई।’ दिनांक ४ अगस्त २०१७ रात को वर्ग में शिक्षार्थियों का अनुभव कथन था। तब एक शिक्षार्थी ने बताया कि तृतीय संचालिका से मिलना यह अतीव प्रेरणादायी क्षण रहा। ऐसा था उनका सान्निध्य।
मुझे समिति का मर्म पता चला
सरीशा: डरबन-दक्षिण अफ्रीका की सेविका। प्रथम विश्व समिति शिक्षा वर्ग हेतु वह पुणे में आई थी। वर्ग पर थी तो वह पूरा समय खोई-खोई सी रहती थी। समापन के पश्चात् उसे नागपुर आना था। वं. उषाताई जी के साथ ही वह पुणे से नागपुर आई। गाड़ी में उषाताई जी ने उनके स्वभावानुसार प्रेम से, आग्रह से उसे खिलाया। उसे ओढ़ावन ओढ़ा दिया। रात को जब भी उनकी नींद खुलती थी वे उसकी ओढ़ी हुई चद्दर ठीक करती थी। सुबह भी उसके खाने-पीने की चिंता। इस ममत्व ने सरीशा पर मानो जादू किया। सुबह उसने कहा- वर्ग में १५ दिन में जो समिति नहीं समझी वह उषाताई जी के साथ के एक रात्रि के प्रवास में समझ में आई। उसके बाद से सरीशा कभी भी आती है शांत रूप से दो दिन अहिल्या मंदिर में रह कर नई ऊर्जा लेकर पुन: कार्यक्षेत्र में लौटती है।
कोमल – कठोर
वं.उषाताई जी वैसे तो मृदु स्वभाव की थी, फिर भी मन से पक्की थी। १९८७-८८ की बात होगी। सुमतीताई जोशी (अपनी बिलासपुर की कार्यकर्ता बहन) को गणेश स्थापना के दिन उल्टियां होने लगीं। एक-दो दिन में वे बेहोशी (कोमा) में चली गई। उसके पश्चात् आगे के उपचारों के लिए उन्हें नागपुर ले आए। डॉ. दि.भा.देशपांडे एवं नानासाहेब साल्पेकर जी के सहयोग से उन्हें -सीम्स हॉस्पिटल- में भरती किया। वहां के डॉ. टावरी जी ने स्कैनिंग करने के लिए बताया। उस समय यह व्यवस्था केवल जबलपुर में थी। नागपुर में भी मेडिकल में स्कैनिंग होता था। परंतु डॉ. टावरीजी का आग्रह था कि जबलपुर से ही स्कैनिंग करके लाइये। सुमतीताई को राईस टयूब से ही फीडिंग चल रहा था। रात को एम्बुलेन्स से उषाताई जी उन्हें नागपुर से जबलपुर ले गई। साथ में इंटर्नशिप कर रहे डॉ. रवीन्द्र सरनाईक जी गए। स्कैनिंग कर पेशेंट को नागपुर लाया गया। पता चला कि ब्रेन में टयूमर है । उसका ऑपरेशन हुआ। ऑपरेशन होकर ४८-९६ घंटे हो गए पेशंट को होश आया ही नहीं। फिर दोबारा स्कैनिंग के लिए रात का प्रवास कर उषाताई जी जबलपुर गई, स्कैनिंग कराकर आई।
आदर्श कार्यकर्ता
अपना प्रमुख संचालिका का दायित्व प्रमिलताई जी को सौंपने के पश्चात् उषाताई जी सुबह शाम रोज स्तोत्र पठन करती थी और नित्य पुस्तकें पढ़ती थी। कुछ दिन पूर्व एक सेविका उनके कक्ष में गई तो वे पुस्तक पढ़ रही थी। उत्सुकतावश उसने पूछा मौसी जी, ‘कौनसी पुस्तक पढ़ रही हैं आप?’ दत्तोपंत जी की ‘कार्यकर्ता’। सेविका कहती है- ‘मेरे मन में प्रश्न उभर आया कि मौसीजी तो सेविका से संगठन के सर्वोच्च दायित्व- प्रमुख संचालिका- तक पहुंची है, इतना प्रदीर्घ प्रवास किया है फिर भी आयु के ९१वें वर्ष में ‘कार्यकर्ता’ क्यों पढ़ रही हैं?’ उसके मन की बात समझ कर उषा मौसी जी ने कहा- ‘कार्यकर्ता’ कैसा हो यह समझने का प्रयास कर रही हूं। प्रश्न पूछने वाली सेविका कहती है – ‘छोटा सा काम कर सब से शाबाशी प्राप्त करना और बहुत कुछ प्राप्त किया ऐसा व्यवहार करने वाला मेरा अहंकार चूर हुआ और आंखें आंसुओं से छलछला गईं’ और भगवद् गीता के कार्यकर्ता का लक्षण बताने वाले श्लोक का स्मरण हुआ…
मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिध्द्यसिध्द्योर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥(भ.गीता १८-२६)
और मूर्तिमंत कार्यकर्ता का साक्षात दर्शन मुझे हुआ – एक आदर्श कार्यकर्ता, वं उषामावशी!
शारीरिक का महत्व
उषाताई जी की बुद्धिमत्ता भी सरल, सादा, मन को छूने वाली थी। उनके मुंह से जीवन की अनुभूति ही प्रकट होती थी। एक सेविका सुफला ने कहा, शारीरिक के संदर्भ में बोलते समय उन्होंने कहा शारीरिक करने से कलाई में ताकत आती है। प्रतिकूल परिस्थिति में हम बिना हिचकिचाहट, अडिग रह कर उसका सामना कर सकते हैं। छोटी बालिकाओं को समझाते हुए उन्होंने उदाहरण दिया कि- घर में अचानक बहुत अधिक अतिथि आए तो भी हम हड़बड़ाते नहीं, चिड़चिड़ाहट भी होती नहीं। छोटी आयु में तो सुफला को वह उतना जंचा नहीं, परंतु वह कहती है कि विवाह के पश्चात् उनके कहने का अनुभव या प्रत्यंतर मुझे आया। घर में अतिथि आते ही अन्य गृहिणियों की होने वाली हड़बड़ी और मेरा परिस्थिति अनुरूप निर्णय लेकर सहजता से व्यवहार, यह ससुराल वालों के ध्यान में आता था। उस समय मुझे उषाताई जी के वक्तव्य का स्मरण होता था। यह दृढ़ता, यह संतुलन समिति के शारीरिक ने हमें दिया है । उनका सहज स्वाभाविक बोलना भी हितोपदेश ही था।
अनोखा रक्षाबंधन
दिनांक ७.८.१७ को रक्षाबंधन था। उषाताई जी एन.सी. आय. हॉस्पिटल में ही थी। सेंट्रल लाइन डाली हुई थी, ऑक्सिजन लगा हुआ था। वे स्वयं उठ कर बैठ नहीं सकती थी। रक्षाबंधन है इसलिए उन्होंने लेट कर ही उपस्थित संस्था प्रमुख, डॉक्टरों, परिचारिकाओं, कर्मचारियों, सेविकाओं सभी को राखी दी क्योंकि हाथों में गांठ बांधने की ताकत नहीं थी। मुंह मीठा करने के लिए नारियल की बर्फी दी। उस दिन लगभग ३५ लोगों को उन्होंने राखी बांधी। रात को धीरेs से कहा- आज का रक्षाबंधन हमेशा ही ध्यान में रहेगा।
प्रांतानुसार उदाहरण
एक बार प्रवास में बेंगलुरू के एक महाविद्यालय में उनके साथ छात्राओं की चर्चा का आयोजन था। मा. शांताक्का उन्हें लेकर महाविद्यालय पहुंचीं। उषाताई जी का पहनावा वगैरह देख कर प्रिन्सिपल जी चिंतित हुए। क्या यह बहन महाविद्यालयीन युवतियों के सामने बोल सकेंगी? कैसा होगा? एक ओर ले जाकर उन्होंने शांताक्का जी से वैसा पूछा भी। थोड़े ही समय में चर्चा कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। उषाताई जी ने विषय प्रारंभ किया- अपना करियर कौन सा हो? क्या हो? अलग-अलग उदाहरण दिए। तत्कालीन बेंगलुरू की लक्ष्मी जी का उदाहरण इत्यादि। युवतियों ने भी चर्चा में बढ़चढ़कर भाग लिया। चर्चा के निर्धारित समय से अधिक समय चर्चा चली। बाद में प्रिन्सिपल जी कहने लगे बहुत अच्छा हुआ। अपने प्रांत के अनुरूप कितने सुसंगत उदाहरण उन्होंने प्रस्तुत किए।
स्थापयित्वा निजं कुलम्
प.पू. रमण महर्षि जी संघगीता में कहते हैं- ‘स्थापयित्वा निजं कुलम् ’- अपना जो ध्येय है वह स्वयं तक सीमित न रखते हुए अपने परिवार में भी उसे स्थापित करना चाहिए। इसमें काफी मात्रा में उषाताई जी यशस्वी हुई। उनके वात्सल्य ने पूरा परिवार एकसाथ रखा। देवी अहिल्या मंदिर में छात्रावास प्रारंभ हुआ। छात्रावास की बहनें घर सुदूर क्षेत्र में होने के कारण दो वर्ष के पश्चात् ही घर जाती हैं। रक्षाबंधन, भाईदूज आदि पर्वों पर वे छात्रावास में ही रहती हैं। राखी के दिन कार्यालय के निकट के स्वयंसेवक श्री विजय गाडगील अनेक वर्षों से आते ही हैं। वैसे ही भाई दूज के दिन छात्रावास की बहनों के भाई भैया के रूप में उषाताई जी का भतीजा एवं बहू उदय-पद्मा अनेक वर्षों से आ रहे हैं। कुछ वर्षों से वे अपने बच्चों को लेकर आते हैं। २०११ में समिति के विविध छात्रावासों की बालिकाओं का सम्मेलन दीपावली के समय आयोजित किया था। लगभग १५० बालिकाएं आई थीं। भाईदूज के दिन उषाताई जी के पांच पोते पटिया पर बैठे थे और प्रांत-प्रांत की बहनें अपने इन भाइयों की आरती उतार कर उपहार प्राप्त कर रही थी। उनका बड़ा भतीजा उदय उन्हें – ‘मोठी काकू अर्थात् -बडी चाची’- कहता था। अतः पूरे हनुमाननगर में या रिश्तेदारों में वे ‘मोठी काकू’ नाम से ही जानी जाती थी। उनके भतीजों के मन में उनके प्रति इतनी श्रद्धा और प्रेम था कि उनके निधन होने पर उपस्थित पाचों भतीजों ने एक साथ क्षौर किया अर्थात् मुंडन किया और पूरे क्रियाकर्म में सभी उपस्थित रहे। आज की ‘टूटती आस्था, बिखरते परिवार’ के समय में यह बात अतीव लक्षणीय है।
शारदा तुम?
वं. उषाताई जी उत्तर प्रदेश की पालक अधिकारी थी। दीपावली की छुट्टियों में तथा ग्रीष्मावकाश में वहां प्रवास पर जाती थी। अनेक घरों में रहना होता था। बहनों के साथ प्रवास भी। उनकी बीमारी का पता चलते ही शारदा जी पांडे इटावा एवं वीणा जी कनौजिया कानपुर से १७. ८. २०१७ को उन्हें मिलने आई। वे पहुंचीं रात के डेढ़ दो बजे। आते ही उनके बिस्तर के पास खड़ी हो गईं। ताई जी सोई हैं। सुबह बात कर लेना- ऐसा उन्हें बताया गया। बस उतनी धीमी आवाज से भी ताई जी ने आंखें खोल दीं और शारदा जी को देखते ही कहा-‘अरी, शारदा, तुम?’ सुबह सब की पूछताछ की। घर-घर में उनके आत्मीयता के संबंध निर्मित हुए थे। देहावसान के १४ घंटे पूर्व ताई जी ने उनको पहचान लिया यही शारदा जी-वीणा जी के लिए बहुत बड़ी बात है । जो उनके लिए जीवन भर की पूंजी है।
आप उन्हें सम्भालना
१९८२ में उषाताई जी के पति श्री बाबाजी चाटी का आकस्मिक देहावसान हुआ। वे नागपुर के घोष प्रमुख थे एवं उनका संपर्क बहुत व्यापक था। अतः उनका निधन केवल चाटी परिवार के लिए नहीं, हनुमाननगर के लिए ही नहीं, संपूर्ण नागपुर को ही बहुत बड़ा सदमा था। उषाताई जी को विद्यालय छूटने के बाद मोटर सायकल से घर ले आए। फिर संपर्क के लिए जाकर आए। राजाभाऊ (छोटा भाई) को जबलपुर जाना था इसलिए -बुलेट- से बस स्टैण्ड छोड़ने के लिए निकले तो बुलेट स्टार्ट नहीं हुई। अतः उन्हें रिक्शा से जाने के लिए कह कर वे अंदर जाकर सो गए। रात को पेट में अस्वस्थता लगी इसलिए गरम पानी के साथ अजवाईन लिया। बाद में घर के निकट के मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल ले गए। वहां पहुंचते ही वे शांत हो गए। स्वयं के पैरों से चल कर गया व्यक्ति -अब इस विश्व में नहीं- यह सहन करना कितना कठिन होता है! परंतु उसे सहन करते हुए उषाताई जी अपनी सासू मां का विचार करने लगी कि माता जी एकदम से इस को कैसे सह पाएगी। अतः वे धीरे-धीरे माता जी के मन की तैयारी करती रही- ‘उपचार तो चल रहे हैं, अन्य सब लोग वहां हैं इसलिए मुझे घर भेजा है आदि’। पार्थिव घर लाने के कुछ समय पूर्व उन्होंने उनसे कहा- ‘मां जी, अपने प्रयास असफल हुए हैं-’ ऐसे क्रमशः बताती रही। मिलने वालों को भी मां जी से पहले बात करिये ऐसा आग्रहपूर्वक बताती थी। पुत्र वियोग का दु:ख बड़ा है ऐसा उनका भाव था। इस घटना के चार-पांच दिन के पश्चात् ही रेखाताई राजे के पिता जी के शांत होने का समाचार आया। उस समय उषाताई जी का उत्तर प्रदेश की पालक अधिकारी रेखाताई के घर में हमेशा आनाजाना था। अतः उन्होंने उसी समय उसे पत्र लिखा कि -आपकी मां की मानसिकता मैं समझ सकती हूं। मैं भी इसी दुःख का अनुभव कर लेती हूं। आप सब को देखकर मां जी धैर्य धारण करें। आप ही उन्हें सम्भालना।
संकटों का सामना करें
असम के प्रवास के भी अनेक अनुभव उन्होंने लिए। कभी एम्बुलेन्स से प्रवास तो कहीं भूस्खलन के कारण छह- छह घंटे एक ही स्थान पर रुकना होता था। परंतु उनका चिरपरिचित हास्य वैसे ही कायम रहता था। हाजो की एक बैठक में उन्होंने बताया-संकट तो आते हैं परंतु हम दृढ़ता से खड़े रहेंगे तो वे बौने हो जाते हैं या हट जाते हैं।’ कार्यकर्ता -उत्सवी-(एक सेविका) के मन में यह वाक्य मानो वज्रलेप हो गया। २०१६ में छोटी आयु में उसके पति का निधन हुआ। बच्चे भी छोटे। परंतु उत्सवी ने कहा कि उषाताई जी का वाक्य मुझे धीरज देता रहा। उसी के आधार पर मैंने स्वयं को सम्भाला और घर परिवार भी सम्भालने का बल प्राप्त किया।

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