ममता के किले में सेंधमारी की तैयारी

जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भूमि यानी पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के लिए एक निर्णायक लड़ाई लड़ी जा रही है। 42 लोकसभा सीटों वाला पश्चिम बंगाल केंद्र की सत्ता तक पहुंचने में किसी भी दल के लिए बड़ा मददगार साबित हो सकता है। सत्ता में पुनः वापसी के लिए प्रयासरत भाजपा ने भी इन सीटों पर करीब से नजर रखी हुई है। पिछले कुछ समय में पश्चिम बंगाल की सियासत में भाजपा एक बड़ी ताकत बनकर उभरी है। हालांकि 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले तक यहां भाजपा का कोई मजबूत आधार नहीं रहा, लेकिन लगभग तभी से भारतीय जनता पार्टी ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी शुरू कर दी थी और राज्य में उसके जनाधार में लगातार इजाफा ही देखने को मिल रहा है। इन संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए भाजपा संगठन ने भी आगामी लोकसभा चुनावों के लिए अपनी पूरी ऊर्जा चुनाव अभियान में झोंक दी है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को लगता है कि भाजपा का स्वर्ण युग तब तक नहीं आएगा, जब तक पश्चिम बंगाल और केरल में भाजपा सरकार नहीं बना लेगी। इस सपने को साकार करने के लिए वह लगातार पसीना बहा रहे हैं। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भाजपा अध्यक्ष की कमान अपने हाथों में लेने के बाद से वह पश्चिम बंगाल के करीब दो दर्जन दौरे कर चुके हैं।

भाजपा नेतृत्व भी इस हकीकत से भलीभांति परिचित है कि लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने के सफर में पश्चिम बंगाल की इन 42 सीटों का क्या महत्व है। इसी कारण ममता बनर्जी का साथ छोड़कर भाजपा में शामिल हुए मुकुल रॉय के साथ मिलकर पार्टी नेतृत्व मिशन-23 को कामयाब बनाकर ममता के किले में सेंध के लिए हरसंभव प्रयास में जुट गया है। चुनाव विश्लेषकों की मानें तो पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा को जहां बढ़त मिली थी, वहां इन चुनावों में इसे कुछ नुकसान उठाना पड़ सकता है। इस अंदेशे से सावधान होकर भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अबकी बार पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों पर खास ध्यान दे रहा है। पार्टी यहां अपनी सीटें बढ़ाकर दूसरे राज्यों में होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई करना चाहती है।

जहां तक पश्चिम बंगाल की राजनीति का सवाल है, तो यह कई बड़े राजनीतिक बदलावों का साक्षी बना है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने सीपीएम की अगुवाई वाले वाम मोर्चा को 34 साल तक सत्ता में बने रहने के बाद वर्ष 2011 में उखाड़ फेंका था। उन चुनावी नतीजों में राष्ट्रीय राजनीति के लिए कई अहम संकेत छिपे थे और संभवतः इन्हीं की एक झलक पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान देखने को मिली थी। पश्चिम बंगाल में पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजे कई तरह से हैरान करने वाले थे। 1998 में अपना सियासी सफर शुरू करने वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए कुल 42 में से 34 सीटें अपनी झोली में डाली थीं। भाजपा को उन चुनावों में 17 प्रतिशत वोट और दो सीटें मिली थीं। इसके साथ ही पश्चिम बंगाल में भाजपा के प्रवेश द्वार खुल गए थे। इसके बाद भाजपा ने लगातार राज्य में अपने जनाधार में वृद्धि की है। पिछले साल के पंचायत चुनावों में कांग्रेस और वाम मोर्चा को पीछे छोड़कर भाजपा ने ममता बनर्जी की चिंताएं बढ़ा दी थीं। अपने प्रदर्शन में लगातार सुधार के दम पर आज भाजपा कूचबिहार, अलीपुरद्वार, रायगंज, बलूरघाट, दक्षिण मालदा और मुर्शीदाबाद, कृष्णानगर, राणाघाट, बसीरहाट, बैरकपुर, आसनसोल, पुरुलिया, झारग्राम, बांकुरा और मिदनापुर जैसी संसदीय सीटों पर तृणमूल को सीधे टक्कर देने की स्थिति में आ गई है।

भाजपा के इस कद्र उभार से टीएमसी को एकदम से कोई बड़ा नुकसान होने वाला है, फिलहाल इसकी भी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। पश्चिम बंगाल में आज भी सत्तारूढ़ टीएमसी आज भी मजबूत स्थिति में है, वहीं विपक्ष की खाली कुर्सी पर धीरे-धीरे ही सही, भाजपा का कब्जा हो रहा है। नगर निकाय चुनाव में भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी रही। इसके बाद राज्य की उलुबेरिया लोकसभा और नोआपाड़ा विधानसभा के उपचुनाव में बीजेपी दूसरे नंबर की पार्टी रही। उलुबेरिया में जहां 2014 के चुनावों में उसका वोट 11.5 फीसदी था, वहे अब 23.29 फीसदी हो गया है। वैसे ही नोआपाड़ा विधानसभा में 2016 में जहां बीजेपी को 13 फीसदी वोट मिले थे, इस बार उसे 20.7 फीसदी वोट मिले। इस तरह बीजेपी का ग्राफ बढ़ रहा और लेफ्ट का कम हो रहा है। इन चुनावी नतीजों का यदि ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो समझना मुश्किल नहीं होगा कि भविष्य के राजनीतिक सफर में किस दल की चिंताएं बढ़ंगी और कौन अपने बेहतर भविष्य के प्रति आशावान दिखता है।

भाजपा का पश्चिम बंगाल में तेजी से हुआ उभार कोई यकायक होने वाला घटनाक्रम नहीं है, बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में एक साथ बहुत से कारकों का योगदान देखा जाएगा। कांग्रेस और सीपीएम में गुटबाजी ने भाजपा को राज्य में अपनी जड़ें गहरे तक फैलाने मदद की है। 2009 के मुकाबले 2014 के चुनाव में कांग्रेस और सीपीएम के वोट शेयर में गिरावट दर्ज हुई थी। कांग्रेस को जहां 22 फीसदी वोट का नुकसान हुआ, तो वहीं सीपीएम को 10 फीसदी वोट का। वहीं भाजपा की वोट शेयरिंग में 14 फीसदी तथा टीएमसी की वोट शेयरिंग में 17 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। ये तथ्य अपने आप में बहुत कुछ बयां कर रहे हैं।

मुकुल रॉय का टीएमसी से नाता तोड़कर भाजपा में शामिल होना भी इसी शृंखला की एक कड़ी बनी। मुकुल पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी के मजबूत सिपहसालारों में से एक रहे हैं, लेकिन  2015 से 17 के बीच बंगाल की सियासत ने पलटी मारी और वह भाजपा में शामिल हो गए। गौरतलब हो कि मुकुल तृणमूल कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। ममता बनर्जी और मुकुल राॅय दोनों ही अपने राजनीतिक करियर के शुरूआत के दिनों में यूथ कांग्रेस से जुड़े थे। 1998 में जब ममता बनर्जी ने कांग्रेस का दामन छोड़कर खुद की पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना ली, तो उसमें मुकुल रॉय को अहम जिम्मेदारी मिली और टीएमसी को राज्य की सियासत के शिखर पर स्थापित करने में एक अहम भूमिका निभाई। दिनेश त्रिवेदी के इस्तीफा देने के बाद मुकुल रॉय मार्च 2012 में यूपीए-2 के कार्यकाल में रेल मंत्री बने। हालांकि शारदा स्कैम और नारदा स्टिंग में मुकुल रॉय का नाम और केस की जांच सीबीआई तक पहुंचने के बाद ममता और मुकुल के बीच रिश्ते दरकने लगे। अंततः टीएमसी ने मुकुल रॉय को 2017 में निलंबित कर दिया। नई राजनीतिक पारी तलाशते हुए मुकुल रॉय ने 3 नंवबर, 2017 को मुकुल रॉय ने औपचारिक रूप से भारतीय जनता पार्टी ज्वाइन कर ली। फिलवक्त देखना दिलचस्प होगा कि उसी टीएमसी के खिलाफ भाजपा को बढ़त दिलाने में मुकुल किस हद तक खुद के रणनीतिक कौशल को साबित कर पाते हैं।

मुकुल रॉय ने भाजपा की ओर से सौंपी गई जिम्मेदारियों को स्वीकार करते हुए बंगाल में भाजपा को राजनीतिक बढ़त दिलवाने की तैयारी शुरू कर दी है। इसी के तहत उन्होंने ममता के करीबी अर्जुन सिंह और भारती घोष समेत अन्य सांसदों को भी भाजपा का झंडा थमाया। मुकुल रॉय की मानें तो वह बंगाल में 23 सीटों पर भाजपा की जीत के प्रति पूरी तरह से तैयार हैं। इसके अलावा हाल ही में टीएमसी के कई नेता भाजपा में शामिल हुए हैं, जिनमें बिशनपुर से मौजूदा सांसद सौमित्र खान का नाम भी शामिल है। दल-बदल के इस पूरे अभियान में कहीं न कहीं बंगाल के सियासी समीकरणों में बदलाव की आहट सहज ही महसूस की जा सकती है।

इस बीच चुनाव पूर्व किए गए एक सर्वे में इस बात का दावा किया गया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा को बड़ी सफलता मिलने वाली है। सी वोटर की ओर से किए गए इस सर्वे की रिपोर्ट सार्वजनिक की गई जिसमें बताया गया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य की 42 में से 16 सीटें जीत सकती है। इसमें बताया गया है कि ग्रामीण बंगाल में बड़े पैमाने पर भाजपा को सफलता मिलेगी एवं मत प्रतिशत भी कम से कम 8 गुना बढ़ेगा। सर्वे में इस बात का उल्लेख किया गया है कि 34 सालों तक बंगाल की सत्ता पर काबिज रहने वाली वामपंथी पार्टियों को लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिलेगी। हालांकि कांग्रेस को मालदा या मुर्शिदाबाद में कोई एक सीट मिलने का दावा किया गया है।

केंद्र की सत्ता के निर्धारण में तो स्पष्ट रूप से पश्चिम बंगाल की भूमिका तो है ही, इन्हीं चुनावों से राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों के परिणामों की दशा व दिशा काफी हद तक इन्हीं नतीजों से तय हो जाएगी। राज्य की राजनीति में सक्रिय हर दल इस हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ है। इसलिए हर दल यहां से बढ़त बनाने की कोशिश करेगा। इस लिहाज से भी भारतीय राजनीति में रूचि रखने वालों की पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों पर करीब से नजर रहेगी।

रविंद्र सिंह भड़वाल, मीडिया शोधार्थी

 

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