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भूखे भजन न होय…

भूखे भजन न होय…

by धर्मेन्द्र पाण्डेय
in प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७, सामाजिक, साहित्य
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जिंदगी हर मनुष्य का इम्तहान लेती है और किंवदंतियां बनाने वालों को भी सोचने पर मजबूर कर देती है। नहीं तो कभी भूख से मरने वाला यूनान का एक भिखारी ‘होमर’ आज वहां का राष्ट्रकवि बन जाता और भीख मांगने के दौरान गाई जाने वाली लंबी पद्यावलियों का संकलन आज विश्व की सर्वश्रेष्ठ क्लासिक रचनाओं में सर्वोपरि मानी जाती…
शाम के पांच बज चुके हैं। धर्मपत्नी जी द्वारा जबरदस्ती कराए जा रहे उपवास या यूं कहूं कि प्रताड़ना की वजह से आंतें आपस में चिपक गई हैं। शरीर की समस्त इंद्रिया, जितनी भी होती होंगी (इस समय याद भी नहीं आ रहा कि कितनी हैं! भाड़ में जाएं) सब उदर पर केंद्रित हो गईं हैं। गांव में व्यक्ति जब अति दार्शिकाना मूड में आता है तो एक कहावत उसके मुंह से बरबस निकल पड़ती है- भइया, पेट ना होता तो किसी से भेंट ना होता! अर्थात् हम कितना भी उच्च स्थान प्राप्त कर लें, पेट सर्वोपरि होता है। जीवन की हर सुख-सुविधा जुटाने से पहले दो जून की रोटी कमाने की बात उठती है। सनातन संस्कृति की बात करें अथवा अब्राहम के यहूदियत की, इस्लाम के आखिरी पैगंबर की बात उठे या तथागत की; पेट भर भोजन, तन पर वस्त्र और सिर पर मामूली छत के बाद की प्रत्येक वस्तु विलासिता की श्रेणी में आंकी गई है। जिन महावीर के अनुयायियों की दृष्टि में तो भोजन भी ईश्वर प्राप्ति में बाधक होता है। सृष्टि के नीले वितान तले महा उपवास कर रहे दिगम्बर (निर्वस्त्र) जैन मुनियों को देख कर मन श्रद्धा से नत हो जाता है। भारतवर्ष को एकीकृत करने वाले प्रथम ऐतिहासिक सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने ३९ दिनों तक उपवास कर निर्वाण प्राप्त किया था।
लगभग हर धर्मावलम्बियों को उपदेश दिया जाता है कि, ‘अल्पाहारी बनिए। यदि आप अपनी शारीरिक आवश्यकता से अधिक भोजन करते हैं तो वह पाप की श्रेणी में आता है क्योंकि वह किसी और के हिस्से का अन्न था जिसे आप उदरस्थ कर चुके हैं।’ पर वास्तविकता इसके ठीक उलट है। दुनिया के हर कोने में ज्यादा खाने वाले लोगों को लेकर तमाम किस्से व किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। पिछले दिनों मेरे एक मैथिल फेसबिुकया मित्र ने अपनी वाल पर एक फोटो चस्पां की थी। मौका था, मधुश्रावणी के मौके पर वधु पक्ष द्वारा समधी के स्वागत का। समधी जी के स्वागत में इतने पकवान, मिष्ठान्न और मुखशुद्धि के पदार्थ रखे थे कि मैं उन्हें गिनने में असमर्थ था। तस्वीर देख कर ही मेरा मन भर गया था। पता नहीं समधी महोदय की क्या दशा हुई होगी? पूरी संभावना है कि यह प्रथा अब प्रतीकात्मक मात्र रह गई हो पर किसी समय पूरी भी होती रही होगी। वैसे भी हमारे पूर्वांचल समेत बिहार के बाकी हिस्सों में भी मैथिल लोगों की भोजन ग्राह्यता को लेकर तमाम बातें चलती रहती हैं तथा किसी मैथिल से मिलने पर ऐसा ही कोई प्रसंग छिड़ जाता है। वहां किसी भोज कार्यक्रम में भोजन के दौरान मछली व रसगुल्ला परोसने के विशेषज्ञ होते हैं जो खाने वाले व्यक्ति से पूछते नहीं बल्कि परोसते जाते हैं, जब तक कि सामने वाला अपने सामने पड़े पत्तल पर लगभग साष्टांग वाली मुद्रा में न आ जाए।
ऐसा नहीं है कि वहीं पर होता है। मथुरा के ब्राह्मणों के भोज प्रसंगों को लेकर भी तमाम कथाएं हवा में तैरती रहती हैं। ऐसा ही एक बहुचर्चित प्रसंग (जनश्रुति भी कह सकते हैं।) आपातकाल के दौरान का है। प्रशासन की ओर से १५ से अधिक बारातियों पर प्रतिबंध था। एक शादी में लगभग दो सौ बारातियों तथा सौ घरातियों को मिला कर कुल तीन सौ लोगों के खाने की व्यवस्था की गई थी। किसी अनजान शिकायत की बिना पर जिलाधिकारी समेत पूरा सरकारी अमला जांच के लिए पहुंच गया। बारातियों ने डर के मारे आसपास के खेतों की राह पकड़ी जबकि कन्या पक्ष के दो-चार को छोड़ कर बाकी लोग आसपास के घरों में दुबक गए। पर लोगों की पूर्व उपस्थिति का सबूत वहां मौजूद था, लगभग तीन सौ लोगों के लिए पकाया गया भोजन। साहेब के सामने लड़की के पिता की पेशी हुई तो उसने कहा- साहेब हम लोग तो कन्या के विवाह वाले दिन कुछ खाते ही नहीं। यह सारा खाना वर, वर के पिता, सामने उपस्थित चंद बारातियों और पंद्रह ब्राह्मणों के लिए बना है। डीएम साहब भड़क गए। उन्हें पता था कि हर विवाह समारोह में शासन के आदेश का उल्लंघन हो रहा है। पर यह तो सीधे-सीधे उनकी आंखों में धूल झोंकने जैसा था। साथ ही डर था कि कोई गुमनाम चिट्ठी संजय गांधी तक पहुंच गई तो वे नप सकते थे। ज्ञात हो कि राजनीतिक कुंठा की चपेट में आ जाने के कारण वह सामाजिक उथल-पुथल का दौर था। एक व्यक्ति और देवस्थान पर बाल बनाने वाले नाई को सिर्फ इसलिए जेल में डाल दिया गया था क्योंकि उस देवस्थल पर अपने पोते का मुंडन करवाते समय अपने चंचल पोते को डराने के लिए उस व्यक्ति ने नाई से मात्र इतना कहा था कि, संजय (पोते का नाम) के बाल खूब दबा कर छीलना। देशभर में फैले हुए शासन के गुप्तचरों में से कोई एक वहीं आसपास मौजूद था। और दादाजी नप गए, साथ में बेचारा नाई भी। खैर, मथुरा के पंद्रह ब्राह्मण आए और उनके सामने पत्तल परोस दिए गए। आचमन कर उन्होंने भोजन शुरू किया तो तब तक नहीं रुके जब तक कि गृहस्वामी ने आकर हाथ नहीं जोड़ लिए कि, ‘प्रभो! भोजन समाप्ति पर है।’ जिलाधिकारी महोदय सिर खुजाते निकल लिए।
हमारे देश की महिलाएं तो ‘ज्यादा खाना खाने’ यानी उनकी भाषा में कह लें तो ‘उपवास’ की एक्सपर्ट होती हैं। उन्हें तो उपवास का बहाना चाहिए। पर किसी मुगालते में मत रहिएगा कि यह बचत की अवधारणा का प्रतीक है बल्कि उनके व्रत-उपवास से पति नामक प्राणी की जेब हल्की हो जाती है। फलाहार व अल्पाहार के सामानों की सूची देख कर उसके पसीने छूट जाते हैं। उस पर तुर्रा यह कि यह सब उपवास वगैरह मैं परिवार की भलाई के लिए ही तो कर रही हूं। बड़े-बड़े तुर्रमखां की औकात नहीं है कि कह सकें कि व्रत के दौरान तुम इतना खाती हो कि एक दिन के उपवास के चक्कर में हफ्ते भर का बजट बिगड़ जाता है और कार्बोहाइड्रेड की अधिकता के कारण तुम मोटापे की चपेट में हो। आप दुनिया भर के तमाम ग्रंथ उलट-पलट डालें। आपको किसी भी ग्रंथ में महिलाओं के अत्यधिक भोजन करने वाली कथा नहीं मिलेगी, सिवाय एक को छोड़ कर। कारण साफ है। भले ही लोग यह कहते फिरें कि महिलाएं हजारों सालों से दोयम दर्जे का जीवन जी रही हैं पर किसी भी तथाकथित महान लेखक की हिम्मत नहीं हुई कि उनके ज्यादा भोजन करने वाली बात को कहीं रेखांकित कर सके। बस विष्णुगुप्त चाणक्य ही कह सके। कारण साफ था। वे पत्नी विहीन थे, उस खौफ से पूरी तरह अंजान।
बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे कि जब व्यक्ति को दरिद्र घेरता है तो उसकी भूख बढ़ जाती है। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई थी क्योंकि संस्कृत के नीतिशास्त्र में कहा गया है कि ब्रह्मचारी विद्यार्थी को भर पेट जबकि गृहस्थ को ३२ कौर, वानप्रस्थ धारण करने वाले को १६ कौर तथा संन्यास ग्रहण करने वाले को ८ कौर भोजन करना चाहिए। जाहिर सी बात है कि ये सारे नियम आम नागरिकों के लिए बनाए गए थे। समृद्ध वर्ग अन्य सामाजिक बंधनों की ही तरह इनसे मुक्त था। क्षत्रिय और सैनिक वर्ग भी इनसे परे रहता होगा क्योंकि इनका समुचित भोजन इनकी शारीरिक दृढ़ता के लिए आवश्यक था। बचपन में पढ़ा था कि सिंहगढ़ का सूबेदार उदयभान नाश्ते में एक बकरा और बीस सेर राशन लेता था। इसी एक बात ने कई हफ्ते तक हम बाल बुद्धिजीवियों को अपनी गिरफ्त में ले रखा था क्योंकि हमारे गांव में सबसे ज्यादा भोजन करने वाले चाचाजी भी इसका समुचित उत्तर देने में असमर्थ थे। कभी-कभी लगने लगता कि अभी उन चाचाजी की भोजनभट्टता हमारे लिए रहस्य बनी हुई थी तब तक सरकार ने एक और नई चुनौती सामने ला दी थी।
दरअसल कुछ दिनों पूर्व ही उन चाचाजी का गौना आया था। हमारे यहां विवाह या गौना अर्थात् रिश्तेदारों खास कर ससुराल से मायके आई हुई लड़कियों का जमघट। इसी माहौल में एक दिन वे अपने पिताजी के साथ भोजन कर रहे थे। उनके द्वारा रोटी के लिए मना करने पर पिताजी ने व्यंग्य किया कि, ‘ कैसे नौजवान हो! तुम्हारी उम्र में मैं पूरा खाना खाने के बाद भी चार-छह रोटियां खा जाता था।’ वैसे इस तरह की वीरता के किस्से पिछली पीढ़ी वाले आज भी नई पीढ़ी के लोगों को सुनातेे रहते हैं पर हमेशा की ही तरह अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ी की बात को एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देती है। पर चचा हमारे सीरियस हो गए। दूसरे दिन वे अपने पिताजी से लगभग आधे घंटे पहले चौके में पहुंच गए। नियत समय पर पिताजी खाना खाने पहुंचे तो उनकी छोटी बहन ने कहा कि, ‘थोड़ा समय लगेगा। फिर से आटा गूंथा जा रहा है।’ ‘फिर से क्या मतलब?’ ‘भइया पूरा खाना खा गए। फिर से सब्जी भी बन रही है।’ वे बाहर आए तो देखा कि चाचाजी सामने खाट पर लेटे हुए उस समय की प्रथानुसार रेडियो पर विविध भारती सुन रहे थे। उनके पिताजी हाथ जोड़ कर बोले, ‘भगवन्! आप बारह लोगों का खाना अकेले खा गए?’ चाचाजी बोले, ‘आपने ही तो कल ताना मारा था।’ उनके पिताजी बोले, ‘पर मुझे थोड़े ही पता था कि मैं एक राक्षस को चुनौती को दे रहा हूं। इतना भी नहीं विचार किए कि दूसरे के घर से एक लड़की आई हुई है। वह क्या सोचेगी?’
सचमुच, धन्य हैं वे लोग जिनका जीवन निर्बाध भोजनमय बना रहता है क्योंकि हम कृषि प्रधान मुल्क के बाशिंदों अर्थात् भारतीयों की सब से बड़ी समस्या अनवरत बढ़ती जनसंख्या और निरंतर घट रही कृषि योग्य भूमि भी तथाकथित तौर पर मानी जाती रही है। पर क्या यही सच है? बिल्कुल नहीं। फाइव स्टार से लेकर ढाबों तक से निकलने वाला जूठन, बड़ी पार्टियों का बचा खाना देख कर कोई नहीं कह सकता कि हम वही देश हैं जहां पर अमेरिका की आबादी के दो तिहाई जितनी जनसंख्या को दो जून की रोटी मयस्सर नहीं है। यह खांई आज की नहीं बल्कि सनातनी है। रामायण में प्रसंग आता है कि महाप्रतापी राक्षसराज रावण का धुरंधर भ्राता कुंभकर्ण तो हर छह महीने बाद केवल खाने के लिए ही उठता था। उठते ही जनता की गाढ़ी मेहनत का फल सफाचट कर फिर से लग जाता था, अगले षट् मास के शयन पर ताकि अगले सेमेस्टर में होने वाली जनता की खून-पसीने की कमाई रूपी मलाई पर जीभ फेर सके। कहीं आपको भी मेरी ही भांति महाशय जी की आदतें आजकल के नेताओं सी नहीं लगतीं कि आप खटो और नेताओं को स्विस बैंक जमा करने के लिए व्यवस्था बना दो।
ऐसे ही एक बड़ी धांसू सी कथा महाभारत में भी मिलती है जब दो पेटू भोजन के लिए भिड़ गए थे और परिणामस्वरूप उनमें से एक को अपनी जान गंवानी पड़ गई थी। हुआ कुछ यूं था कि बकासुर को एक छकड़ा भर मिलने वाले साप्ताहिक भोजन में से भीमसेन भी अपना हिस्सा बंटाने पहुंच गए थे। गलती उनकी भी नहीं थी। राजा के महाबलशाली और गदाधारी का पेट भला भिक्षा से भर सकता था। पर शायद बक को मंजूर न था। यह भी कोई बात हुई कि छकड़ा पहुंचाने के एवज में आप पूरे छकड़े भर खाने पर हाथ फेर जाना चाहो।It”s too undiplomatic. संभवतः कहा भी हो कि, ‘भइया, अइसा करो कि तुम भी एक छोटी सी गठरी बांध लो और रास्ते में खा लेना।’ पर उसे थोड़े ही पता था कि उसका पाला पांडुनंदन वृकोदर से पड़ गया था और वे रावण की तरह ढुलाई के एवज में पूरे माल पर ही हाथ साफ कर जाना चाहते थे।
कुछ ऐसा ही वाकया दंतकथाओं में महापंडित रावण और अवढर दानी शिव का भी मिलता है जबकि सोने की लंका का गृह प्रवेश पूजन करवाने के एवज में रावण ने उनसे सोने की लंका ही मांग ली थी। आखिरकार, दो पेटू भोजन पर वर्चस्व के लिए भिड़ गए। पर कहां भीमसेन और कहां एक मामूली सा राक्षस। बक बेचारे को पता ही नहीं रहा होगा कि कुछ महीने पहले इसी बंदे ने एक लड़की के चक्कर में उसके गुरू हिडिम्ब को यमपुरी के दर्शन करवा दिए थे। वैसे भीम को भी बता देना चाहिए था कि, ‘भई, हम वही वाले पहलवान हैं।’ पर शायद वे भूख की अधिकता के कारण भूल गए होंगे।
वैसे हम बनारसियों का खाने और खिलाने में कोई सानी नहीं है। पूरी दुनिया को अटपटा लग सकता है पर हम लोग तो गाली खाने और खिलाने में भी विश्व रिकार्डधारी हैं। पक्का महाल के एक नगर सेठ तो गली से गुजरने वाले किसी अनजान बटोही पर ऊपर से पान की पिचकारी फेंक कर उसके द्वारा ऊंचे स्वर में दी जाने वाली गालियों का भरपेट प्रसाद ग्रहण कर लेने के पश्चात् अपने नौकर को भेज कर ऊपर बुला लेते थे। उसके बाद उस व्यक्ति को खाना खिला कर तथा नया कपड़ा देकर विदा करते थे। वहां आंखों के सामने ही पंडे आपकी अंटी का सारा माल कपड़े समेत हजम कर जाते हैं और आप ‘हम किसके मौसा हैं!’ वाली हास्यास्पद मुद्रा में तौलिया लपेटे भीगे बदन गंगा घाट पर खड़े हंसी के पात्र बने खड़े रहते हैं। बाबा कीनाराम को तो उस समय खिलाने की क्षमता रखने वाला व्यक्ति कोई नहीं था। साथ ही कोढ़ में खाज का काम करती थी उनके साथ चलने वाली मुफ्तखोरों की दुर्वासी सेना जिससे वे भी तंग आ चुके थे। एक बार तो गुस्से में वे उन सारे शोहदों को लेकर गंगा पार की नई-नई बनी कांच फैक्ट्री में पहुंच कर पिघल रहा गरम सीसा पीने लगे। तथाकथित चेलों की फौज भाग खड़ी हुई। वैसे हमारे यहां करपात्री महाराज भी हुए थे। वे हथेली भर में ही समा सकने भर की मात्रा का सेवन करते थे। वे महापुरुष थे। आधुनिक शंकराचार्य थे। अपन तो इतने में ही धराशायी होने वाले हैं। पता नहीं ऊपर वाला इन जीवट जीवों को किस तालाब की मिट्टी से बनाता है।
जीवट से ख्याल आया। एक जीवट थे हमारे गांव में। मेरे दादाजी के कथनानुसार उनकी पाचन शक्ति को खुदा ने सुंदर कन्याओं की ही भांति बड़े फुरसत से बनाया था। नया बना नार (रहट चलाने के लिए बनने वाली सन की रस्सी, जो दो बैलों द्वारा खींचे जाने पर लगभग दो-ढाई साल तक चल जाती थी) पत्थर के कोल्हू में फंसा कर तोड़ने के एवज में एक तसला घी (लगभग २० किलोग्राम) पी जाते थे। पर एक बात साफ है। इन धुरंधरों का बुढ़ापा बड़ा खतरनाक होता है। पेट तो थोड़ा ऊपर-नीचे कर अपनी ग्रहण क्षमता को संजोए रख जठराग्नि को बनाए रखता है पर दांतों के जवाब दे जाने के कारण उनकी स्थिति दंतविहीन गज सी हो जाती है। भूख भी है और भोजन भी। पर नहीं हैं तो उनका मिलाप कराने वाली दंत पंक्तियां। शायद इसीलिए कहा गया है कि जिंदगी हर मनुष्य का इम्तहान लेती है और किंवदंतियां बनाने वालों को भी सोचने पर मजबूर कर देती है। नहीं तो कभी भूख से मरने वाला यूनान का एक भिखारी ‘होमर’ आज वहां का राष्ट्रकवि बन जाता और भीख मांगने के दौरान गाई जाने वाली लंबी पद्यावलियों का संकलन आज विश्व की सर्वश्रेष्ठ क्लासिक रचनाओं में सर्वोपरि मानी जाती तथा वहां के ९ राज्य उसके अपने राज्य का निवासी होने का दावा करते। पर सत्य की अपनी विशेषता होती है कि वह सार्वभौमिक होता है। कोई फ्यूहरर असत्य को १०० बार दोहरा कर उसकी सत्यता का दावा अवश्य कर सकता है पर समय के साथ उसे स्वयं के सच का सामना करना ही पड़ता है। और मेरा वर्तमान सत्य यह है कि भूख ने मेरी सोचने की क्षमता को पंगु बना दिया है। कनपटियों के ऊपर माथे के दोनों हिस्सों में नसें तन सी गई हैं। परंतु इतने के बावजूद मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही है कि रेफ्रिजरेटर में छोटे भाई के लिए रखा गया खाना निकाल कर खा सकूं। यह औकात हर पति की होती है। सड़क का शेर घर में भीगा चूहा (बिल्ली भी नहीं) बन जाता है।
पर अब हम शहीदाना मूड में आ चुके हैं। पत्नियां हम सबकी जुबान और दिमाग में भय का ताला लगा सकती हैं पर हमारे मन तो स्वाधीन हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि दुनिया भर के तीसमार खां विश्व के रंगमंच पर वीरता का प्रदर्शन नहीं कर रहे होते बल्कि पत्नी द्वारा दी गई प्रताड़ना की कुंठा निकालते हैं। पर मैं विवश हूं क्योंकि मैं सशरीर अभी उस पिंजड़े के अंदर ही हूं, जिसे विद्वत्जन घर की संज्ञा देते हैं। मेरे पांव भले ही न आगे बढ़ सकें पर फ्रिज में रखे उस खाने की खुशबू मुझे पागल बनाए हुए है। मस्तिष्क का विवेक वाला कोना बार-बार कह रहा है कि, यह तेरा वहम है। फ्रिज के अंदर के खाने की खुशबू तुझ तक कैसे आ सकती है?’ पर बाकी इंद्रियों ने मेरा साथ छोड़ना शुरू कर दिया है। इसीलिए मुझे तमाम अवरोधों के बावजूद भगवान से क्षमा मांगते हुए (वैसे मुझे पता है कि उनके हृदय में मेरे लिए कोई मलाल नहीं है) अपने कदम बढ़ाने हैं; क्योंकि मुझे लगता है कि ऐसी ही किसी मुसीबत में फंसे किसी धीर-गंभीर ज्ञानी पुरुष ने कहा होगा – भूखे भजन न होय गोपाला।

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