सऊदी अरब के कथित ‘आदर्श’ की हकीकत

सऊदी अरब जैसे कट्टर वहाबी देश के युवराज अब कह रहे हैं कि वे उदारवाद की ओर लौटना चाहते हैं। इसके नमूने के तौर पर वे महिलाओं को वाहन चलाने की अनुमति देने की बात पेश करते हैं। इसकी दुनियाभर में खूब चर्चा भी हुई। लेकिन असलियत कुछ और ही बयान करती है।
सऊदी अरब के युवराज ने हाल ही में कहा है कि ‘वे पुन: उदारवाद की ओर जाना चाहते हैं।’ सऊदी ही मुसलमानों का उद्गम स्थान है। वहां की परंपराएं, प्रथाएं तमाम मुस्लिम समाज के लिए आदर्श मानी जाती हैं। परंतु आज भी महिलाओं तथा अन्य सम्प्रदायों के लिए उनके मन में जो भावना है, वह कहीं से भी उदारता की निशानी नहीं है। लिहाजा मानसिक रूप से उदार होने के लिए उन्हें अपना दृष्टिकोण तो बदलना होगा ही, साथ ही लंबा इंतजार भी करना होगा।
इस्लामी जगत पर सऊदी अरब के प्रभाव को देखते हुए, वहां के आंतरिक जीवन में झांकना और उसका सही विश्लेषण, आज के समय की जरूरत है। इस विषय पर संवाद और चर्चाओं का अभाव है। हाल ही में वहां महिलाओं को वाहन चलाने की ‘अनुमति’ दी गई है। अतः तथ्यान्वेषण और गहन विमर्श का यह समय है।
दुनिया भर के मीडिया में खूब चर्चा हुई कि सऊदी अरब ने महिलाओं को गाड़ी चलाने की अनुमति दे दी है। इसे बहुत बड़े परिवर्तन के रूप में पेश करने में खुद सऊदी प्रचार तंत्र लगा है। आखिरकार दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम इस मुल्क को इस्लाम के ‘आदर्श’ के रूप में देखते हैं। लेकिन हकीकत क्या उतनी ही रंगीन है, जैसा कि उसका जश्न मनाया जा रहा है। क्या महिला अपने पति या पिता को साथ लिए बिना गाड़ी चलाकर बाजार या अस्पताल जा सकेगी? क्योंकि यहां महिला को घर के बाहर अपने ‘वली’ के बिना निकालने की इजाज़त नहीं है। वली उसका अधिकृत अभिभावक होता है। ये पिता, पति, भाई या चाचा होता है। इसके बिना वह बाहर निकलें तो बात गंभीर हो सकती है। वली की अनुपस्थिति कहीं भी उसे मुसीबत में डाल सकती है। अदालत या किसी सरकारी कार्यालय में भी।
महिलाएं वहां दोयम दर्जे की नागरिक हैं। सऊदी अरब में महिलाओं के पास पहचान पत्र नहीं हैं। वे एक वस्तु की तरह पिता द्वारा अपने पति को स्थानांतरित हो जाती हैं। व्यापार अथवा नौकरी नहीं कर सकतीं। शासन, प्रशासन का हिस्सा नहीं बन सकतीं। दम घोंटने वाला परदा तो है ही। मई २०१७ में महिलाओं को इजाजत मिली है कि वह अपने ‘वली’ की मर्जी के बिना अपना इलाज़ करवा सकती हैं।
ताकतवर मुल्ला, जो सत्ता पर भी मजबूत पकड़ रखते हैं, उन्हें टीवी-अखबार या सार्वजनिक कार्यक्रमों में यह कहते सुना जा सकता है कि महिलाओं के दिमाग का आकार पुरुषों से एक चौथाई होता है। वे पुरुष के बिना सही निर्णय नहीं ले सकतीं। बाजार, शॉपिंग माल या सड़कों पर मजहबी पुलिस उन्हें रोक सकती है, कि उनके चेहरे पर मेकअप क्यों दिख रहा है, या बुर्के में से हाथ अथवा पैर का पंजा क्यों दिख रहा है। ऐसे ‘गंभीर’ अपराधों के लिए वह सड़क पर पिट भी सकती है। बेइज्जत तो होती ही हैं।
ऐसे पुरुष, जो आपके परिवार के नहीं हैं, उनसे बात करने पर सफाई देनी पड़ सकती है। ऐसे में महिला- और पुरुष दोनों पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है, जिसमें महिला को अधिक दोषी माना जाता है। ज्यादातर सरकारी इमारतों, बैंकों और कॉलेजों में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रवेश द्वार हैं। ये विभाजन सरकारी परिवहन, पार्क, समुद्री बीच पर भी लागू है। स्वीमिंग पूल पुरुषों के लिए हैं। जिम अलग-अलग हैं। होटलों या सार्वजनिक स्थानों पर जो स्वीमिंग पूल हैं, उस ओर कोई महिला नजर उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं कर सकती क्योंकि वहां पुरुष ‘स्वीमिंग सूट’ में होते हैं।
२०१६ में सऊदी अरब ने ओलम्पिक की मेजबानी करने की बात कही थी, बशर्तें कि उसमें महिला खिलाड़ी भाग न लें। २०१२ के लंदन ओलंपिक में किसी तरह कुछ महिला खिलाड़ियों को भेजा गया, तो सऊदी मौलानाओं ने उन्हें ‘वेश्याएं’ करार दिया था। इसी तरह शॉपिंग मॉल में कपड़े खरीदते समय उन कपड़ों को पहनकर देखना भी गुनाह के दायरे में आता है। कई बंदिशें कानून में हैं तो कई बंदिशें बिना कानून के भी कानून की तरह महिलाओं पर लागू होती हैं।
सऊदी अरब की महिलाओं की यह समस्या सिर्फ उन तक सीमित नहीं है, क्योंकि वहां की बातों को इस्लाम का ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ (आचार संहिता) मानकर दुनिया भर की मुस्लिम महिलाओं पर थोपने की कोशिशें की जाती हैं। ये तथाकथित ‘इस्लामी आदर्श’ आज के समय के हिसाब से कितने आदर्श हैं इस पर एक नजर डालनी जरूरी है।
सऊदी अरब एक कट्टरपंथी वहाबी देश है। अबू बकर अल बगदादी और लादेन इसी विचारधारा के हैं। उनके विचार केवल इतनी भिन्नता रखते हैं कि वे स्वयं को सशस्त्र जिहाद का अधिकारी समझते हैं, जबकि सऊदी अरब और कतर जैसे देश उसे शासन की अनुमति के बिना करना नाजायज मानते हैं।
वहाबी या सलाफी विचार पैदा हुआ था आज से ७५० वर्ष पूर्व जब अरब में जन्मे इब्न-तैमिया नामक इस्लामी आलिम के साथ मंगोल हमलावर अरब तक पहुंचे और उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया लेकिन अपनी कुछ पुरानी मंगोल परंपराओं को भी बनाए रखा। तैमिया ने इसे इस्लाम में हो रही मिलावट कहकर इसके खिलाफ आक्रामक एवं हिंसक रूख अपनाया। उसने ऐसे मुस्लिमों के विरूद्ध हिंसक जिहाद का फतवा या तकफीर जारी करना शुरू किया। तैमिया की विचारधारा को अठारहवीं सदी में मुहम्मद इब्न-अब्द-अल-वहाब (१७०३-१७९२) ने अपनाया और उसका अरब में प्रचार किया। उसी के नाम पर इस तथाकथित ‘शुद्ध इस्लाम’ का आक्रामक प्रचार करने वाली विचारधारा वहाबी कहलाई। इस विचार को वहां के शासक परिवार ‘सऊद’ ने अपना लिया, जिसके नाम पर ये हिस्सा सऊदी अरब कहलाया।
वहाबी विचार की मारक क्षमता को समझने के लिए एक छोटी सी मिसाल। पैगंबर मुहम्मद के देहांत के बाद कुरान की आयतों को संकलित करने का काम शुरू हुआ जो तीसरे खलीफा तक चलता रहा। बारहवीं सदी में तैमिया ने इसकी अपने तरीके से व्याख्या करते हुए कहा कि कुरान आसमान से उतरी किताब है। ये हमेशा से थी। इसे मानव निर्मित कहना कुफ्र है। इब्न तैमिया ने घोषणा की, कि कुरान को मानव निर्मित कहने वाला या तो माफी मांगे अथवा उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाएगा। तैमिया के अनुयायी वहाबी उसके शब्दों पर कायम हैं।
शब्दों के इस हेरफेर से बड़ी समस्या खड़ी होती है। कुरान में कई आयतें ऐतिहासिक संदर्भों में हैं जिनमें सशस्त्र जिहाद की बात कही गई है। यदि वहाबी विचार को मान लिया जाए तो काफिरों की गर्दनें उड़ाने वाली वे आयतें आज भी जस की तस लागू हो जाएंगी। वहाबी आज की दुनिया को मध्यकालीन चश्मे से देख रहे हैं। संकट यह है कि दो अति धनाढ्य देश सऊदी अरब और कतर, जहां वहाबी या सलाफी संप्रदाय राज्य का मजहब है, इसे दुनिया में पूरी ताकत के साथ फैलाने में लगे हैं।
सऊदी अरब विशाल सऊद परिवार की राजशाही और वहाबी विचार में जकड़ा हुआ एक बंद समाज है। यहां का सरकारी-मजहबी पाठ्यक्रम बच्चों को सिखाता है कि दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक सलाफी अथवा वहाबी मुस्लिम, जो कि अल्लाह के चुने हुए लोग हैं, जो जीतने वाले लोग हैं और जो जन्नत में जाएंगे और शेष हारे हुए, धिक्कारे हुए लोग हैं, जिनमें दूसरे मुस्लिम, यहूदी, ईसाई और अन्य गैर मुस्लिम हैं जो जहन्नुम में जाने वाले हैं। गैर सलाफी या गैर वहाबी मुस्लिमों को ये पाठ्यक्रम केवल नाम का मुस्लिम बतलाता है जो कि नफरत के काबिल हैं। इसीलिए सऊदी अरब का मुस्लिम सारी दुनिया के शेष मुस्लिमों को हेय दृष्टि से देखता है।
नफरत का जहर बच्चों के खून में घोला जा रहा है। नौवीं कक्षा में पढ़ाई जा रही हदीस की बानगी देखिए-‘‘फैसले का दिन (कयामत का दिन) तब तक नहीं आएगा जब तक मुसलमान यहूदियों से लड़ेंगे नहीं और यहूदियों को कत्ल नहीं करेंगे। और जब यहूदी किसी पेड़ या पत्थर के पीछे छिप जाएगा तो वह पेड़ या पत्थर चीख उठेगा कि ‘‘ओ मुस्लिम! ओ अल्लाह के गुलाम! मेरे पीछे एक यहूदी छिपा है। आओ और इसे कत्ल कर दो। केवल वही पेड़ चुप रहेगा जो यहूदी पेड़ होगा।’’
मजहबी पाठ्यक्रम तय करने वाले लोग सरकार के द्वारा चुने गए और सरकार से तनख्वाह पाने वाले लोग हैं। सरकारी पाठ्यक्रम कहता है कि दुनिया के ९५ प्रतिशत मुसलमान कहने भर के मुसलमान हैं। सऊदी अरब में टीवी, सरकारी चैनल, पुस्तकालयों में पाई जाने वाली किताबें, सरकारी और निजी विद्यालय, सभी केवल सलाफी विचार को ही मान्यता देते हैं। यहां सलाफियों के अतिरिक्त कोई और इतिहास अथवा मजहबी शिक्षा नहीं दे सकता। शियाओं के खिलाफ अपमानजनक या हिंसक टिप्पणी भी कोई अनोखी बात नहीं। गौरतलब है कि ओसामा बिन लादेन का मानस किसी मदरसे में नहीं, सऊदी अरब के शिक्षातंत्र में गढ़ा गया था। वहां के मजहबी नेता भी कभी तालिबान अथवा लादेन के खिलाफ नहीं बोले।
सर कलम करने की सार्वजनिक सजाएं आम हैं। इस व्यवस्था का सर्वोच्च आदर्श है सारी दुनिया पर इस्लाम का झंडा लहराना। विडंबना है कि यह सोच, यह विचार लेकर सऊदी अरब के विश्वविद्यालय दुनिया के देशों में अपनी शाखाएं खोल रहे हैं। वहाबी उपदेशक नफरत का जहर बोते घूम रहे हैं।
सऊदी सरकार दुनिया में सलाफी इस्लाम के फैलाव के लिए हर साल तेल से कमाए करोड़ों डॉलर खर्च कर रही है। सऊदी अरब के मजहबी विश्वविद्यालय दुनिया भर में मस्जिदें स्थापित कर रहे हैं और दुनिया भर के मुस्लिम छात्रों को सऊदी अरब आकर सलाफियत सीखने और सलाफी (बहाबी) बनने के लिए मोटी छात्रवृत्तियां दे रहे हैं। वे हर वर्ष हजारों सलाफियों को विश्व भर में भेज रहे हैं। विभिन्न भाषाओं में करोड़ों किताबें छाप कर मुफ्त बांटी जा रही हैं। बड़े-बड़े सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं। यह खतरनाक बात है। इस बहुप्रचारित, बहुचर्चित ‘आदर्श’ का तथ्यान्वेषण और इसके असर से दुनिया के मुस्लिमों को मुक्त करना जरूरी है।

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