तनाव में तारे

बच्चे को यह बतलाएं कि जीवन के विशाल कैनवस पर, स्कूली परीक्षाएं केवल एक रंग है जो तस्वीर को अकेले पूरा नहीं कर सकता। तस्वीर को सुन्दर बनाने के लिए उसमें विभिन्न रंगों का होना ज़रूरी है और उससे भी ज़रूरी है उन रंगों का तालमेल। इस तरह चमकते तारे को तनाव से बचाए।

मेरे सारे दोस्तों ने शर्त लगाई है आपस में माँ…।
कैसी शर्त?
यही की हमारे दस के ग्रुप में से सिर्फ तीन ही हैं जो इस बार मेरिट में आकर ग्यारहवीं में विज्ञान और गणित ले सकेंगे। बाकी सब का तो पास होना भी मुश्किल ही है।
और तुम क्या सोच रहे हो?
यही कि मैं पास हूँगा या नहीं।
इतना कहकर सैम, चुप हो गया। लेकिन उसकी ख़ामोशी में जो चिंता, तनाव और भय था उसके चेहरे से साफ झलक रहा था। इतनी सी उम्र में, इतना तनाव कि उसकी मां शालिनी का दिल किया कि आज ही उसकी पढ़ाई लिखाई छुड़वा दे। आखिर अपनी मां और अपने पिता के रहते उसे किस बात का डर था? कक्षा दस की परीक्षा ही तो शुरू होने वाली थी, कोई हादसा थोड़े हो गया था कि सैम इतनी गहन सोच में डूब जाए कि अपनी उम्र से बीस साल अधिक बड़ा दिखने लगे।
दरअसल ग़लती ना शालिनी की थी और ना ही सैम की। ग़लत था तो वो माहौल जिसमें शालिनी जैसी मांए और सैम जैसी संताने जीने को मजबूर हैं। कड़ी प्रतिस्पर्धा के इस दौर में, हम सब बस समाज के सफ़लता पैमाने में किसी भी क़ीमत पर खरे उतरना चाहते हैं। और यही कारण है कि न चाहते हुए भी बच्चों का अपने माता-पिता से और माता-पिता का अपने बच्चों के साथ वो मज़बूत, सहज, सुंदर रिश्ता बन ही नही पाता जो वास्तविकता में होना चाहिए। प्रकृति की देन ये रिश्ता सदा उलझनों और ग़लतफ़हमियों में ही घिर कर रह जाता है जो व्यक्ति को उसकी सच्ची खुशियों से वंचित रखता है।
और केवल माता-पिता ही क्यों, प्रतिस्पर्धा की इस रेस में सबसे अधिक नुकसान तो तब होता है जब आपस में भाई बहन ही एक दूसरे की सफलता से परेशान हो जाते हैं या फिर एक दूसरे की असफलता की खिल्ली उड़ाते हैं।
आर्मी में तैनात प्रकाश सिंह के बड़े बेटे अजीत को उसका छोटा भाई बात-बात पर ताने इसलिए मारता था क्योंकि अजीत उससे हर काम में बेहतर था। बचपन से लेकर बड़े होने तक, खेलकूद, पढ़ाई, फिर आर्मी में जॉब और सामाजिक मान प्रतिष्ठा में भी अजीत ही हमेशा बाज़ी मारता रहा। इस बात ने उसके छोटे भाई को कभी भी खुशी नहीं दी। बल्कि वह इस बात से सदा कुंठित ही रहा कि अपने भाई की बराबरी कभी नहीं कर पाया। अगर इन दोनों के बचपन में ही इनके माता-पिता ने इस बात को नज़रअंदाज़ ना किया होता और बच्चे के करीब होकर उसे जीवन की परीक्षा में सफलता का अर्थ समझाया होता तो शायद अजीत और उसके भाई, दोनों के ही जीवन में समान खुशियां होतीं। अपनी अलग-अलग क्षमताओं का उनको भान होता, तो स्वयं पर विश्वास भी होता और भाइयों के बीच ईर्ष्या की जगह प्रेम होता। ऐसे और भी कई लोग शायद आपके आसपास भी आपने देखे होंगे। चर्चा का विषय बनते ऐसे लोग, क्यों इस तरह के हो जाते हैं ये समझने का यदि हम प्रयास करें तो पाएंगे कि बचपन की बातें, चाहे सुखद हो या दुःखद और परवरिश का माहौल, विशेष रूप से माता-पिता से बच्चे के सम्बंध ही उसका भविष्य निर्धारित करते हैं। उसके स्वस्थ और सुकून भरे जीवन के लिए माता-पिता को ख़ास मेहनत करनी होती है। जब तक बच्चे को अपने ही परिवार में सुरक्षा का अनुभव नही होगा तो संपूर्ण जीवन असुरक्षा में ही बीतेगा। और इस भविष्य निर्धारण का एक बहुत ही अहम पड़ाव है बच्चे की तनाव मुक्त शिक्षा-दीक्षा और उसका सर्वांगीण विकास।
दरअसल जिस प्रकार की शिक्षा प्रणाली बच्चों को प्राप्त हो रही है उसका सीधा असर ये हो रहा है कि उनपर स्वयं को योग्य सिद्ध करने का दबाव बढ़ता ही जा रहा है। और यह दबाव एकतरफा नहीं- शिक्षकों से लेकर अभिभावकों तक बच्चे केवल यही सुनते हैं कि जब पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन होगा तभी जीवन में सफलता प्राप्त होगी अन्यथा सारी आधुनिक सुख सुविधाएं, भौतिक संसाधन और सामाजिक प्रतिष्ठा से वे वंचित ही रहेंगे।
कुछ वाक्य हैं जैसे कि –
’अपने मामा के बेटे को देखो कितनी उन्नति की है उन्होंने’
या
’अपने बड़े भाई को देखो कितने अच्छे नंबर लाता है, तुम तो हमेशा सिर्फ पास ही होते हो’।
या
’पढ़ाई में मन नहीं लगाओगे तो घर के नौकरों की तरह तुम भी दूसरों के घरों में नौकर बनोगे’।
और ऐसी बहुत सी बातें हैं जो हम आमतौर पर अपने बच्चों से बस यूंही कह देते हैं लेकिन यह ज़रा भी नहीं सोचते कि उनके दिमाग पर ये सब बातें क्या असर करेंगी। अपने स्वयं का तनाव और अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ भी माता-पिता अपने बच्चों पर डालते हैं। जो कुछ वह जीवन में नही कर पाते वह सब अपने बच्चों से करवाना चाहते हैं। जो बहुत घातक हो सकता है उनके बच्चों के लिए। जैसे विकास ने अपने 45 वर्ष अपनी परिस्थितियों और परिवार को अपनी असफलताओं का दोषी ठहराते हुए निकाल दिए। लेकिन अपनी संतान होते ही उसने हर कोचिंग इंस्टीट्यूट में, क्रिकेट, नृत्य, गायन, कराटे, स्विमिंग और विभिन्न विषयों की ट्यूशन में उसे भर्ती करवा दिया, साथ में स्कूल भी। लेकिन विकास के इस मूर्खता भरे कुंठित प्रयास ने बच्चे पर बहुत दबाव डाल दिया। बच्चे को तनावग्रस्त कर दिया जो उसको मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार कर गया। अपने बच्चे से जुड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा के दबाव में माता-पिता यह भूल ही जाते हैं कि उनके बच्चों पर इस सबका कितना घातक असर पड़ सकता है।
दूसरों से अपने बच्चों की तुलना करना, चाहे बाहर वालों से चाहे घर वालों से, भी बच्चे में तनाव पैदा करता है। अक्सर अपने टैलेंटेड बच्चे को प्रोत्साहित न करना, उसकी अवहेलना करना भी बच्चे को तनावग्रस्त कर देता है। यही कारण है कि कई बच्चे परीक्षा में अच्छे नंबर न ला पाने के बाद या फिर परीक्षा देने से पहले ही डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं।
मीरा की मां, सुजाता शर्मा अपने शहर की एक बहुत ही प्रीतिष्ठित महिला हैं और ऐसी ही जगह अपने लिए उनके बच्चे भी बना सकें ऐसी उम्मीद वह अपने बच्चों से करती हैं। अपने बच्चों से उम्मीद करना गलत नहीं लेकिन, पाँचों बच्चों से एक सी उम्मीद करना हास्यास्पद ज़रूर है। सुजाता अपने चार बेटों और एक बेटी को जीवन में आगे बढ़ना ही सिखाती रहीं। हालांकी, मीरा जन्म से ही भाइयों से अधिक टैलेंटेड रही, लेकिन सुजाता की अपने पाचों बच्चों को एक ही जगह देखने की चाहत ने मीरा को सक्षम होने के बावजूद भी तनाव से भर दिया। जब भी कोई स्कूल में मीरा के अच्छे नंबर या खेलकूद में उसके अच्छे प्रदर्शन के लिए सुजाता को बधाई देता तो वे बेहद खुश होती और कहती – जी ये बात तो है, मेरे सारे बच्चे बहुत ही टैलेंटेड हैं। मीरा को बात कभी समझ नहीं आई, कि जब उसके लिए बधाई दी जा रही है तो मां मीरा की प्रशंसा न करके बाकी सबके साथ उसको क्यों तोल रही है। और यदि उसके भाई कम नंबर लाकर भी मां की दृष्टि में उसके जितने ही गुणवान हैं तो फिर उसे भी ज़्यादा नंबर लाने के लिए पढ़ाई में इतना ध्यान लगाने की, इतनी मेहनत करने की क्या ज़रूरत है? क्या ज़रूरत है कि खेलकूद में मेहनत करे? मां को तो सभी बच्चे बराबर जो लग रहे हैं। और फिर उसकी जीवन में कुछ करने की इच्छा धीरे-धीरे मरने लगी। चारों बेटों को प्रोत्साहित करने के चक्कर में कब मीरा को सुजाता ने हतोत्साहित कर दिया, शायद व स्वयं भी नहीं जानती होंगी।
इस घटना पर यदि हम विचार करें तो न केवल बच्चों के लिए बल्कि माता-पिता के लिए भी आत्मनिरीक्षण ज़रूरी है यह सिद्ध होता है। बच्चों को जन्म देना, उनको महंगे वस्त्र पहनाना, महंगे स्कूलों में पढ़ाना ही माता-पिता का एकमात्र कर्तव्य नहीं। अपने बच्चे और उसकी क्षमताओं को समझना और फिर उसे आधार बनाकर अपने बच्चे को जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए उसका मार्गदर्शन करना सबसे बड़ा कर्तव्य है।
कई शोध और सर्वे से यह पता लगा है कि छात्रों को परीक्षाओं के दौरान इतना दबाव रहता है कि छोटी उम्र में ही उनके अंदर का हर्ष और उल्लास बिल्कुल निष्क्रिय हो जाता है। अकादमिक सफलता प्राप्त करने की उनकी चाहत उन्हें दिन प्रति दिन केवल निराश करती है। उनका करियर कैसे बनेगा, अच्छे कॉलेज में प्रवेश मिलेगा या नहीं, और भविष्य सुरक्षित होगा या नहीं ये सोच सोच कर वे डिप्रेशन में आ जाते हैं। खासतौर पर, कॉलेज अडमिशन्स के दौरान, कोई प्रोफेशनल कोर्सेज में पढ़ाई के दौरान, बोर्ड की परीक्षाओं के दौरान, बच्चों के सुसाइड की ख़बरें आम बन जाती हैं।
कहने को तो हर विद्यालय के लिए हर वर्ष मार्च का महीना उनके कार्यभार में वृद्धि लाने वाला एक महीना होता है लेकिन एक विद्यार्थी के लिए विशेष रूप से दसवीं और बारहवीं के विद्यार्थियों के लिए मार्च महीने से शुरू हुआ समय जीवन और मृत्य के बीच की दूरी जितना कठिन होता है।
इस दौर में बच्चा स्वयं को सहजता से संभाल सके, बिना हार जीत के भय के आगे बढ़ सके, उसके लिए माता-पिता का मज़बूत साथ बेहद ज़रूरी है। अपने बच्चे को सदा प्रोत्साहित करते रहें। उसके अंदर यह विश्वास जगाएं की परीक्षा का परिणाम सफलता हो या असफलता आप हमेशा उसके साथ हैं, हर परिस्थिति में। उसे बताएं कि किसी भी कक्षा की परीक्षा जीवन की परीक्षा के सामने छोटी है। बच्चे की जिस क्षेत्र में रूचि हो उसके अनुसार ही उसके शैक्षिक करियर का चुनाव करें जो निश्चित बच्चे को खुश भी रखेगा और उस करियर में वो ऊंचाइयां छू सकेगा।
यह बेहद ज़रूरी है कि कोई भी किताब या स्कूली पाठ पढ़ाने से पहले हम बच्चे को जीवन का पाठ समझाएं। उसे यह बतलाएं कि जीवन के विशाल कैनवस पर, स्कूली परीक्षाएं केवल एक रंग है जो तस्वीर को अकेले पूरा नहीं कर सकता। तस्वीर को सुन्दर बनाने के लिए उसमें विभिन्न रंगों का होना ज़रूरी है और उससे भी ज़रूरी है उन रंगों का तालमेल। तो परीक्षाओं के इस मौसम में अपने बच्चे के जीवन में खुशियों के नए रंग भरने की शुरुआत आज ही करें।

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