नकलची का हश्र

एक गधे को अपनी भद्दी सी आवाज कतई पसंद न थी। एक दिन जब गधा घास चर रहा था तो उसकी भेंट गीत गुनगुनाते एक टिड्डे से हुई। गधा उसकी आवाज सुनकर मोहित हो गया और पूछ बैठा-‘‘भई टिड्डे ! अपनी इस मधुर आवाज का राज मुझे भी तो बताओ।’’
‘‘ओस की बूंदें।’’ टिड्डा बोला-‘‘जिन्हें मैं रोज सुबह खाता हूं।’’
गधा आखिर गधा ही था। अब उसने और भी जोशो-खरोश से घास खाना शुरू कर दी। खासकर वह सुबह के समय ही घास खाता था, जब वह ओश से भीगी रहती थी। लेकिन उसकी आवाज न बदलनी थी, न ही बदली। हाँ, घास खा-खाकर वह इतना मोटा जरूर हो गया कि किसी काम लायक न रहा।

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