डॉक्टर हेडगेवार एक महान दृष्टा

चुनाव के समय भारत में युद्ध सी स्थिति दिख रही थी। अब सारी धूल बैठने के बाद चित्र स्पष्ट हो गया है। देश की जनता ने राष्ट्रीय पक्ष को मज़बूत समर्थन दे कर सत्तासीन किया है। आरोप-प्रत्यारोप के घमासान में विभाजनवादी राजनीति करने  वाले खेमे से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी अकारण-आधारहीन आरोप लगते रहे।

स्वातंत्र्यवीर सावरकर और द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) के वक्तव्यों को बिना संदर्भ, बिना आधार के उल्लेख कर संघ का नाम अनावश्यक घसीटा गया पर किसी ने भी संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार का उल्लेख तक नहीं किया। यह ध्यान देने वाली बात है कि संघ का मूल तो डॉक्टर हेडगेवार से ही है। ऐसे में उनके व्यक्तित्व को समझे बिना संघ को समझना सम्भव नहीं।

अभी 21 जून को उनके महानिर्वाण को 89 वर्ष हो रहे है। इस निमित्त उनका एक स्मरण भ्रामक सन्दर्भों की धूल छांटने तथा सही परिप्रेक्ष्यों को समझने के लिए आवश्यक हो जाता है।

डॉक्टर हेडगेवार देशभक्त और श्रेष्ठ संगठक थे। उन्हें भारतीय दर्शन, संस्कृति तथा इतिहास को गहराई से अनुभव करने के कारण उन्हें तत्कालीन चुनौतियां, इनके समाधान की राह तथा भविष्य की संकल्पनाएं स्पष्ट थीं। वे एक दृष्टा(visionary)  थे। He was deeply rooted in the philosophy, culture and history of Bharat and simultaneously had a farsighted vision for future.

संक्षेप में  कहें तो सामान्य से दिखने वाले असामान्य प्रतिभा के धनी थे डॉक्टर जी।

ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध उनके मन में कैसी चिढ़ थी यह उनके बचपन के अनेक प्रसंगों से दिखता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए चलने वाले, अहिंसक सत्याग्रह से लेकर सशस्त्र क्रांति तक सभी मार्गों में वे सतत सक्रिय रहे।परंतु इसके साथ ही स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आवश्यक मानसिक, धार्मिक, सामाजिक क्रांति का महत्व वे बख़ूबी जानते थे। इसीलिए उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण समाज के संगठन का कार्य आरम्भ किया।केवल जेल जाना ही देशभक्ति नहीं है, बाहर रहकर समाज जागृति करना भी जेल जाने के समान ही देशभक्ति का कार्य है ऐसा उन्होंने प्रथम सत्याग्रह में भाग लेते समय 1921 में कहा था। तब उनकी आयु केवल 31 वर्ष की थी। उनका मन तत्कालीन ‘राष्ट्रीय मानस’ के साथ एकरस था।

His mind was in tune with the ‘National Mind’ of his times.

 दो वर्ष भारत भ्रमण करने के बाद 1893 में स्वामी विवेकानंद अमेरिका और बाद में यूरोप गए। चार वर्ष के बाद 1897 में  पश्चिम के देशों से भारत वापस आने के बाद उन्होंने भारतवासियों को साररूप में तीन बातें कहीं। पहली- “ पश्चिम से हमें संगठन करना सीखना चाहिए।” 

दूसरी- “हमें मनुष्य निर्माण करने की कोई पद्धति, तंत्र विकसित करना चाहिए।”

तीसरी- “सभी भारतवासियों को आनेवाले कुछ वर्षों के किए अपनी अपनी देवी-देवताओं को एक ओर रखकर केवल एक ही देवता की आराधना करनी चाहिए, और वह है अपनी ‘भारतमाता।”

संघकार्य और संघ शाखा इन तीनों बातों का ही मूर्तरूप है।

‘जातिप्रथा और उसका निर्मूलन’ पुस्तक में बाबासाहेब आम्बेडकर जी ने इस बात को अधोरेखित किया है कि “राजकीय क्रांति हमेशा सामाजिक और धार्मिक क्रांति के बाद ही हुई है, ऐसा इतिहास बताता है। मार्टिन लूथर किंग के द्वारा शुरू हुआ सुधार आंदोलन यूरोप के लोगों के राजकीय मुक्ति की पूर्वपीठिका थी। नैतिकतावाद (Puritanism ) ने ही इंग्लैंड और अमेरिका में राजकीय स्वतंत्रता की नींव रखी। मुस्लिम साम्राज्य की भी यही कहानी है। अरबों के हाथ राजकीय शक्ति आने के पूर्व हज़रत मोहम्मद द्वारा किए गए मजहबी क्रांति के मार्ग से ही उन्हें जाना पड़ा। भारतीय इतिहास भी इसी निष्कर्ष को बल देता है। चंद्रगुप्त के नेतृत्व में हुई राजकीय क्रांति के पहले भगवान बुद्ध की धार्मिक-सामाजिक क्रांति हो चुकी थी। महाराष्ट्र में भी संतों के द्वारा किए गए धार्मिक- सामाजिक सुधार के बाद ही शिवाजी के नेतृत्व में वहाँ राजकीय क्रांति सम्भव हुई। गुरुनानक देव के धर्म और सामाजिक क्रांति के बाद ही सिखों की राज्य क्रांति हुई। यह समझने के लिए कि ‘किसी भी राष्ट्र के राजकीय मुक्ति के लिए प्रारम्भिक आवश्यकता के नाते उसका मन और आत्मा की मुक्तता  आवश्यक है,’ -और अधिक उदाहरण देना अनावश्यक होगा।

इसीलिए यह तथ्य ध्यान रखने वाला है कि स्वतंत्रता आंदोलन को सफल और सबल बनाने के लिए ही डॉक्टर हेडगेवार ने राष्ट्र के मन और आत्मा की मुक्ति का कार्य, समाज संगठन का कार्य, प्रारम्भ किया।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी अपने ‘स्वदेशी समाज’ नामक पुस्तक में यह बात आग्रह पूर्वक कही है कि कल्याणकारी राज्य (Welfare state) भारतीय परम्परा नहीं है। भारत में समाज के  सभी आवश्यक कार्य राज्य के अधीन नहीं रहते थे। कुछ ही महत्व के विभाग राज्य के अधीन रहकर अन्न, जल, स्वास्थ्य, विद्या आदि सभी विषय  समाज के अधीन रहते आए हैं। यदि एक तंबू एक ही खम्भे पर खड़ा और वह खंभा टूट जाए तो सारी व्यवस्था धराशायी हो जाती है। परंतु तंबू 4-5 खम्भों पर खड़ा हो और किसी एक खंभा को क्षति पहुंचे तब भी वह धराशायी नहीं होता, उसे अंदर से ही मरम्मत कर फिर से खड़ा करने की गुंजाइश रहती है। इसी तरह इस्लामिक जिहाद और ईसाई क्रूसेड द्वारा, ऐसे राज्यों को, जहाँ सभी व्यवस्थाएँ केवल राज्य-आधारित  थीं , शासक  को परास्त करने पर, उस राज्य के सभी को इस्लाम या ईसाईयत में कन्वर्ट कर सके। किन्तु भारत में 850 वर्षों तक इस्लामिक शासकों का और 150 वर्षों तक ईसाइयों का शासन रहने पर भी वे केवल 15% को इस्लाम में और 3% को ईसाईयत में कन्वर्ट कर सके। ऐसा केवल भारत में ही सम्भव हुआ कारण भारत की समाज रचना राज्य आधारित व्यवस्था के एकमात्र खम्भे पर नहीं टिकी थी। समाज की राज्य से स्वतंत्र अपनी भी व्यवस्थाएँ थी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रचना भी इन्हीं तत्वों पर हुई है। संघ का कार्य तो सम्पूर्ण स्वावलम्बी है, राज्य पर आधारित क़तई नहीं है। संघ के स्वयंसेवकों द्वारा 1 लाख 30 हज़ार से अधिक सेवा कार्य जो समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में चल रहे है उनमें से भी  90प्रतिशत सेवा कार्य सरकारी सहायता पर अवलंबित नहीं है। मैं जब गुजरात में प्रांत प्रचारक था तब श्री केशुभाई पटेल के नेतृत्व में भाजपा के शासनकाल में जनजातीय विकास हेतु आवंटित राशि को वनवासी कल्याण आश्रम को देने की पहल भाजपा द्वारा हुई। वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा जनजातीय क्षेत्र में अनेक सेवाकार्य चलते है। परंतु कल्याण आश्रम के कार्यकर्ताओं ने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया। कुछ वर्ष पूर्व संघ के एक कार्यकर्ता ने मुझे जब पूछा कि कल्याण आश्रम  सरकारी सहायता क्यों नहीं लेते है? मैंने उसे श्री विनोबा भावे की भाषा में जवाब दिया कि “ सरकार के पास पैसा कहाँ से आता है?  समाज ही  सरकार को टैक्स के रूप में पैसा देता है। माने सरकार नौकर है और समाज मालिक है। हम नौकर से क्यों माँगे? मालिक से माँग रहे है और वह दे भी रहा है।”

*ओरी ब्रेफमेन तथा रॉड बेकस्ट्रॉम द्वारा लिखित

दि स्टारफिश एंड स्पाईडर’ नामक पुस्तक में संस्था या समाज के ‘पावर स्ट्रक्चर’ कैसे होते हैं, इसकी तुलना की गई है। इसके लिये दो उपमाओं का प्रयोग हुआ है। एक स्पाईडर (मकड़ी) है, जिसके अनेक पैर होते हैं। एक-दो पैर टूट भी जाएं तो भी उसका काम चलता रहता है। उसकी सारी जीवन शक्ति उसके छोटे से सिर में केन्द्रित होती है। एक बार यह सिर नष्ट हुआ तो स्पाईडर मर जाती है। दूसरी और स्टारफिश ऐसी मछली है जिसकी जीवन शक्ति एक जगह केन्द्रित ना रहकर सारे शरीर में अनेक केन्द्रों में बिखरी होती है इसलिए ऐसा कोई एक स्थान नहीं, जिसे नष्ट करने से स्टारफिश तुरंत मर जाए। आप उसके दो टुकड़े करोगे तो उससे दो स्टारफिश बन सकती हैं। यह समझाने के लिए इस पुस्तक में लेखक ने एक उदहारण दिया है।

लैटिन अमेरिकन हिस्ट्री के विशेषज्ञ प्रोफेसर नेविन ने अपनी पुस्तक 

में एक घटनाक्रम बताया है। सोलहवीं शताब्दी में यूरोप और स्पेन से अनेक लोग अपनी सेना लेकर अन्य क्षेत्रों को लूटने के लिए,

सोना खोजने के लिए जहाज लेकर निकले। यह दौर ‘सी एक्सपेडिशन’ नाम से ज्ञात है। इसी तरह स्पेन से सेना की एक टुकड़ी अपने जहाज लेकर लैटिन अमेरिकन भू-भाग की तरफ गई। जहाँ जमीन दिखे वहाँ जाकर कब्जा करना था। 1519 में स्पैनिश सेना की एक  टुकड़ी ‘एज़्टेक’ नामक जनजाति के राज्य में जा पहुँची। वहाँ के मुखिया के सिर पर बन्दूक तान कर कहा कि सारा सोना दे दो, वर्ना मार डालेंगे। उस मुखिया ने स्वप्न में भी यह सोचा नहीं था कि ऐसे लूटने वाले लोगों से भी कभी पाला पड़ेगा। उसने स्वाभाविक ही अपनी जान बचाने हेतु सारा सोना दे दिया। इन्होंने सोना लेकर भी उसे मार डाला। दो ही वर्ष में, 1521 तक सारा ‘ ‘एज़्टेक’ राज्य स्पैनिश कब्जे में आ गया। सन् 1534 में ऐसी ही एक स्पैनिश टुकड़ी लैटिन अमेरिका के ऐसे भूभाग पर पहुँची, जहाँ ‘इंका’ नामक जनजाति का राज्य था। वहाँ भी यही इतिहास दोहराया गया और दो ही वर्षों में, 1536 तक ‘इंका’ का राज्य स्पैनिश सेना के अधीन हो गया। इसी तरह एक के बाद एक जनजाति के राज्य को स्पैनिश सेना निगलते चली। परन्तु 1618 में एक अजीब घटना हुई। स्पेन से एक सैनिक टुकड़ी सन् 1618 में ‘अपाची’ नामक जनजाति के राज्य में पहुँची। वहाँ भी उन्होंने वहाँ के मुखिया को मार डाला। यह जनजाति लूटने के लिए बहुत संपन्न नहीं थी। इसलिए स्पैनिश लोगों ने उन्हें कन्वर्ट करते हुए खेतों में काम पर लगाना शुरू किया। परन्तु धीरे- धीरे उनके ध्यान में आया कि मुखिया को मारने के बाद भी समाज में विरोध लगातार बढ़ रहा है और अब तक सभी स्थान पर जैसे दो-तीन वर्षों में सारा राज्य स्पैनिश कब्जे में आता था, वैसा यहाँ नहीं हुआ। 200 वर्षों तक संघर्ष चला और आखिर स्पैनिश सेना को वहाँ से वापिस जाना पड़ा।

यह कहकर प्रोफेसर नेविन लिखते हैं कि  ‘एज़्टेक’ और ‘इंका’ के पास जो सेना थी उनकी तुलना में ‘अपाची’ की सेना अधिक सशक्त नहीं थी। और ना ही ‘अपाची’ पर आक्रमण करने वाली स्पैनिश सेना अन्य दो स्पैनिश सेनाओं से कमजोर थी। फिर ऐसा कैसे हुआ? वे लिखते हैं उस समाज की संरचना राज्याधारित नहीं थी। यहाँ पर समाज के सारे शक्ति केंद्र मुखिया के पास एकत्रित नहीं थे। समाज की अपनी व्यवस्थाएँ थीं, जो राज्य से स्वतन्त्रा थीं। इसलिए राज्य पराजित होने के बाद भी समाज पराजित नहीं हुआ और लम्बा संघर्ष कर सका। इस रचना को समझना आवश्यक है।

इसलिए डॉक्टर अम्बेडकर के द्वारा कहा गया तत्व कि “किसी भी राष्ट्र के राजकीय मुक्ति के लिए प्रारम्भिक आवश्यकता के नाते उसका मन और आत्मा की मुक्तता आवश्यक है।” स्वामी विवेकानंद द्वारा “हमको राष्ट्र के नाते संगठित होने की आवश्यकता है” इस को अधोरेखित करना, और  समाजाधिपति, समाज नायक के माध्यम से “स्वदेशी समाज” की निर्मिति करना और उसे बनाए रखना यह कितना महत्व का, Vitally Importatant, मूलभूत कार्य है यह ध्यान में आ सकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयासों में इस कार्य की आवश्यकता और अनिवार्यता को ध्यान में रखकर ही डॉक्टर हेडगेवार जी ने सम्पूर्ण समाज को राष्ट्रीय दृष्टि से जागृत एवं सक्रिय करते हुए सम्पूर्ण समाज को संगठित करने का कार्य ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के रूप में शुरू किया, इस के महत्व को समझना चाहिए। इसीलिए डॉक्टर हेडगेवार एक महान दृष्टा एवं कुशल संगठक के नाते जाने जाते है।

                                                                                                                                                                                     – डॉ मनमोहन वैद्य, 

                                                                                                                                                                                        सह सरकार्यवाह 

                                                                                                                                                                                   राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 

 

This Post Has 4 Comments

  1. Sankul Pathak

    Bahut hi Uttam

  2. Sankul Pathak

    Bahut hi Uttam

  3. देवीलाल शीशोदिया( उरण) नवी मुंबई

    श्रीमान् वैद्य जी की लेखनी से मैने मराठी विवेक में बहुत पढ़ा है। समाज को अर्पित भाव से लिखा उनका हर वाक्य मननीय है।

  4. देवीलाल शीशोदिया( उरण) नवी मुंबई

    श्रीमान् वैद्य जी की लेखनी से मैने मराठी विवेक में बहुत पढ़ा है। समाज को अर्पित भाव से लिखा उनका हर वाक्य मननीय है।

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