कश्मीर में लौटेगा बहुलतावादी चरित्र

जम्मू कश्मीर राज्य के जन्म के समय से ही चली आ रही कश्मीर समस्या के निदान का रास्ता नरेंद्र मोदी सरकार ने खोल दिया है। दशकों से इस राज्य के भीतर जो लोग आतंक के साये में और घाटी से विस्थापित जो पंडित मातृभूमि से खदेड़े जाने का दंश झेलते हुए शिविरों में जी रहे थे, उन्हें राहत मिलने जा रही है। इन लोगों की पीड़ा को पूरा देश और केंद्र में रही सरकारें बखूबी जानती थीं, लेकिन इस यथास्थिति को तोड़ने की हिम्मत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ही दिखा पाए। आश्चर्य की बात यह रही कि पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल और मनमोहन सिंह इस पीड़ा का निदान इस दर्द को भोगने के बाद भी नहीं कर पाए। ये दोनों देश के प्रधानमंत्री तो बन गए, लेकिन विवादास्पद धारा 370 के चलते जम्मू-कश्मीर में पार्षद बनने की भी हैसियत नहीं रखते थे। जबकि ये बंटवारे के बाद भारत आए थे। इस समस्या के सामाधान की कोशिश अटल बिहारी वाजपेयी ने इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत का मंत्र देकर की थी। लेकिन इस उदारता को राज्य के मुख्यमंत्री रहे फारूक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आजाद, मुफ़्ती मोहम्मद सईद, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती ने कतई अहमियत नहीं दी। यही नहीं इन मुख्यमंत्रियों ने कभी विस्थापित कश्मीरी पंडितों को फिर से बसाने की भी उचित पहल नहीं की, बल्कि कश्मीर के चरित्र को धर्म-निरपेक्ष विरोधी और इस्लामिक राज्य बनाने की कोशिशों को प्रोत्साहित करते रहे। नतीजतन अलगाव और आतंकवाद पाकिस्तान की शह और छाया-युद्ध के जरिए पनपा, फलस्वरूप घाटी का चरित्र केवल मुस्लिम बहुल होता चला गया। अब धारा-370 के एक खंड को छोड़, सभी खंडों की सामाप्ति और 35-ए के खात्में के साथ कश्मीर में विस्थापित चार लाख पंडित, सिख, बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों की वापसी संभव होगी, जो कश्मीर के बहुलतावादी चरित्र को बहाल करेगी।

कश्मीर के बहुसंख्यक चरित्र में अल्पसंख्यक विस्थापितों का पुर्नवास करने पर  जनसंख्यात्मक घनत्व की समावेशी अवधारणा सामने आएगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि वीपी सिंह से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक ऐसी कोई इच्छाशक्ति सामने नहीं आई जिससे विस्थापितों के पुनर्वास की बहाली होती। यहीं वजह रही कि कश्मीर आतंकवादियों का एक आसान ठिकाना बनकर रह गया और जब भी देश का कोई प्रमुख पदाधिकारी कश्मीर का दौरा करता तो बतौर चेतावनी आतंकी घटना को अंजाम दे दिया जाता है, जिससे कश्मीर में जो सांप्रदायिक एकरूपता बनी। उसके चरित्र को कोई हानि न पहुंचे। कश्मीर का इकतरफा सांप्रदायिक  चरित्र तब से गढ़ना शुरू हुआ, जब 30 साल पहले नेशनल कांफ्रेस के अध्यक्ष और तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. फारूख अब्दुल्ला के घर के सामने सितम्बर 1989 में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टीकालाल टपलू की हत्या हुई थी। अलगाववादी हड़ताल तथा उग्र प्रदर्शन से बाज नहीं आ रहे थे, तब अल्पसंख्यक हिन्दुओं के सामूहिक पलायन का सिलसिला शुरू हुआ था। उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य में कांग्रेस तथा नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार थी और खुद डॉ. फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। इस बेकाबू हालत को नियंत्रित करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की बजाय, 20 जनवरी 1990 को एकाएक डॉ. अब्दुल्ला कश्मीर को जलता छोड़ लंदन भाग खड़े हुए थे।

केन्द्र में वीपी सिंह, पीवी नरसिंहराव, अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारें रहीं। इनमें से नरसिंह राव और वाजपेयी ने तो कश्मीर में शांति-बहाली की पहल की, किंतु वीपी सिंह और मनमोहन सिंह ने हमेशा आंखें मूंदे रखीं। नतीजतन आतंक और अलगाववाद कश्मीर में सिर चढ़कर बोलने लगा। अलबत्ता नासूर खत्म करने के जितने भी उपाय किए गए, उनमें अलगाववाद को पुख्ता करने, कश्मीर को और अधिक स्वायत्तता देने और पंडितों के लिए केंद्र शासित अलग से ‘पनुन कश्मीर’ राज्य बना देने के प्रावधान ही सामने आते रहे थे। एक संप्रभुता वाले राष्ट्र-राज्य की संकल्पना वाले नागरिक समाज में न तो ऐसे प्रस्तावों से कश्मीर की समस्याएं हल होने वाली थीं और न ही कश्मीर का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहाल होने वाला था, जो भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है।

1990 में शुरू हुए पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था। इस मंशापूर्ति में वे सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। ऐसा हैरान कर देने वाला उदाहरण अन्य किसी देश में नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 45 लाख कश्मीरी अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 4 से 7 लाख विस्थापन का दंश झेल रहे हैं।

कश्मीर की महिला शासक कोटा रानी पर लिखे मदन मोहन शर्मा ‘शाही’ के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास ‘कोटा रानी’ पर गौर करें तो बिना किसी अतिरिक्त आहट के कश्मीर में शांति और सद्भाव का वातावरण था। प्राचीन काल में कश्मीर संस्कृत, सनातन धर्म और बौद्ध शिक्षा का उत्कृष्ट केंद्र था। ‘नीलमत पुराण’ और कल्हण रचित ‘राजतरंगिनी’ में कश्मीर के उद्भव के भी किस्से हैं। कश्यप ॠषि ने इस सुंदर वादी की खोज कर, मानव बसाहटों का सिलसिला शुरू किया था। कश्यप पुत्र नील इस प्रांत के पहले राजा थे। कश्मीर में यहीं से अनुशासित शासन व्यवस्था की बुनियाद पड़ी। 14 वीं सदी तक यहां शैव और बौद्ध मतों ने प्रभाव बनाए रखा। इस समय तक कश्मीर को काशी, नालंदा और पाटली पुत्र के बाद विद्या व ज्ञान का प्रमुख केंद्र माना जाता था। कश्मीर में पंडितों की ॠषि परंपरा और सूफी संप्रदाय साथ-साथ परवान चढ़े। लेकिन यही वह समय था जब इस्लाम कश्मीर का प्रमुख धर्म बन गया।

सिंध पर सातवीं शताब्दी में अरबियों ने हमला कर, उसे कब्ज़ा लिया। सिंध के राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने भागकर कश्मीर में शरण ली। तब यहां की शासिका रानी कोटा थीं। कोटा रानी के आत्म-बलिदान के बाद पर्शिया से आए इस्लाम के प्रचारक शाह मीर ने कश्मीर का राजकाज संभाला। यहीं से जबरन धर्म परिवर्तन करते हुए कश्मीर का इस्लामीकरण शुरू हुआ। जिस पर आज तक स्थायी विराम नहीं लगा है। विस्थापित पंडितों के घरों और बगीचों पर स्थानीय मुसलमानों का कब्ज़ा है। इन्हें निष्कासित किए बिना भी पंडितों की वापसी मुश्किल है ? कश्मीर घाटी में विस्थापितों का संगठन हिन्दुओं के लिए अलग से पनुन कश्मीर राज्य बनाने की मांग उठाता चला आ रहा है। हालांकि पनुन कश्मीर के संयोजक डॉ. अग्निशेखर पृथक राज्य की बजाय घाटी के विस्थापित समुदाय की सुरक्षित वापसी की मांग अर्से से कर रहे हैं। जायज भी यही है।

सच्चाई यह है कि कश्मीर मुद्दे पर इस निर्णय से पहले कभी राजनीतिक द़ृष्टिकोण और बौद्धिक प्रतिबद्धता मुखर प्रतिक्रियात्मक आयाम ले ही नहीं पाए। इसलिए कश्मीर को इस्लामी राज्य बनाने का दायरा लगातार बढ़ता गया। 1931 में जिस ‘मुस्लिम कॉन्फ्रेंस’ की बुनियाद कश्मीर के डोगरा राजवंश को समाप्त करने के लिए रखी गई थी, वह स्वतंत्र  भारत में भी विस्तार पाती रही। डोगरा राज का खात्मा और हिंदुओं का कश्मीर से विस्थापन इसी कड़ी का हिस्सा हैं।  कश्मीर की सरकारें म्यांमार से खदेड़े गए रोहिग्ंया मुस्लिमों को घाटी में बसाने और उन्हें कानूनी अधिकार व कल्याणकारी सरकारी योजनाओं का लाभ देने की पैरवी तो करती रही हैं, लेकिन उन मूल हिंदू शरणार्थियों के कानूनी हकों की पैरवी कभी नहीं कि जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए थे। विस्थापित हिंदुओं के पुनर्वास और शरणार्थी हिंदुओं के मताधिकार की पहल आजाद भारत में कश्मीर की किसी भी सरकार ने नहीं की, इससे साफ होता है कि कश्मीर की सरकारें कश्मीर में सिर्फ मुस्लिमों की बहुलता चाहती रही थीं। किंतु अब मोदी सरकार ने कश्मीर में आमूलचूल बदलाव की जो मंशा संसद में पेश कर जताई है, उसके कानूनी रूप में बदलते ही, कश्मीर में विस्थापितों की बहाली तो होगी ही, कश्मीर का धर्मनिरपेक्ष चरित्र भी बहाल हो जाएगा।

 

लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं ।

 

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