प्रकृति की ऊर्जा का प्रतीक हैं, देवी दुर्गा

मनुष्य का जीवन भीतरी और बाहरी द्वंदों से भरा हुआ है। जब व्यक्तित्व ही अंतर्विरोधों से भरा है, तब किसी भी व्यक्ति या समाज का विरोधाभासी होना स्वाभाविक है। यही अंतर्विरोध आदर्श और पतन के व्यावहारिक रूप हैं। अंतर्विरोध का यही द्वंद्व चिंतन का प्रेरक तत्व है। निर्गुण और सगुण इसी भक्ति-काव्य की धाराएं हैं। इसीलिए हमारी कथनी और करनी में अंतर होता है। हमारे ॠषियों ने अपने अंतर्ज्ञान से जान लिया था। इसी भेद को दुनिया के अन्य देशों की सभ्यताओं ने अब जाना है और वे भौतिक प्रगति के साथ-साथ सामाजिक व आर्थिक समता की बात करने लगे हैं। यही द्वंद्व या अंतर्विरोध देवी दुर्गा के नौरूपों या कहलें आद्य शक्ती में है। यही दैवीय अथवा आसुरीय शक्तियों के रूप में प्रस्तुत है।

दैवीय शाक्तियां वे हैं, जो मनुष्य के अनुकूल हैं, अर्थात फलदायी हैं और आसुरी शाक्तियां वे हैं, जो मनुष्य के प्रतिकूल हैं, अर्थात उसे हानि पहुंचाने में समर्थ हैं। नवरात्रों का आयोजन दो ॠतुओं की परिवर्तन की जिस बेला में होता है, वह इस बात का द्योतक है कि जीवन में बदलाव की स्वीकार्यता अनिवार्य है। नवरात्रों का आयोजन अश्विन मास के शुक्ल पक्ष में किया जाता है। शुक्ल पक्ष घटते अंधकार या अज्ञान का प्रतीक है, वहीं कृष्ण पक्ष बढ़ते अंधकार और अज्ञान का प्रतीक है। प्रति माह उत्सर्जित और विलोपित होने वाले यही दोनों पक्ष जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष की प्रवृत्तियां हैं। प्रकृति से लेकर जीवन में हर जगह अंतर्विरोध व्याप्त है। इन्हीं विरोधाभासी पक्षों में सांमजस्य बिठाने का काम करते दुर्गा के बहुआयामी रूप।

मार्कंडेय पुराण में प्रकाश और ऊर्जा के बारे में कहा गया है कि देवों ने एक प्रकाश पुंज देखा, जो एक विशाल पर्वत के समान प्रदीप्त था। उसकी लपटों से समूचा आकाश भर गया था। फिर यह प्रकाश पुंज एक पिंड में बदलता चला गया, जो एक शरीर के रूप में अस्तित्व में आया। फिर वह कालांतर में एक स्त्री के शरीर के रूप में आश्चर्यजनक ढंग से परिवर्तित हो गया। इससे प्रस्फुटित हो रही किरणों ने तीनों लोकों को आलोकित कर दिया। प्रकाश और ऊर्जा का यही समन्वित रूप आदि शक्ति या आदि मां कहलाईं। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि अव्यक्त से उत्पन्न तीन तत्वों अग्नि, जल और पृथ्वी के तीन रंग सारी वस्तुओं में अंतर्निहित हैं। अत: यही सृष्टि और जीवन के मूल तत्व हैं। अतऐव प्रकृति की यही ऊर्जा जीवन के जन्म और उसकी गति का मुख्य आधार है।

इस अवधारणा से जो देवी प्रकट होती है, वही देवी महिषासुरमर्दिनी है। इसे ही पुराणों में ब्रह्माण्ड की ‘मां’ कहा गया है। इसके भीतर सौंदर्य और भव्यता,  प्रज्ञा और शौर्य, मृदुलता और शांति विद्यमान हैं। चरित्र के इन्हीं उदात्त तत्वों से फूटती ऊर्जा इस देवी के चेहरे को प्रगल्भ बनाए रखने का काम करती है। ॠषियों ने इसे ही स्त्री की नैसर्गिक आदि शक्ति माना है और फिर इसी का दुर्गा के नाना रूपों में मानवीकरण किया है। उपनिषदों में इन्हीं विविध रूपों को महामाया,  योगमाया और योगनिद्रा के नामों से चित्रित व रेखांकित किया गया। इनमें भी महामाया को ईश्वर या प्रकृति की सर्वोच्च सत्ता मानकर विद्या एवं अविधा में विभाजित किया गया है। विद्या व्यक्ति में आनंद का अनुभव कराती हैं, जबकि अविद्या सांसरिक इच्छाओं और मोह के जंजाल में जकड़ती है। विद्या को ही योगमाया या योगनिद्रा के नामों से जाना जाता है। योगमाया सृष्टि की वैश्विक व्यवस्था का प्रतीक है, जबकि येगनिद्रा सृष्टा की समाधि की अवस्था में आई निद्रा है। यह स्थिति चेतन अवस्था से अंधकार के क्षेत्र में प्रवेश को दर्शाती है, जो प्रलय की भी द्योतक है। अंतत: यही आदि शंक्तियां क्षीर सागर में शेष शैया पर लेटे भगवान नारायण, नरायाण यानी जल में निवास करने वाले विष्णु को चेताती हैं कि समाधि के शून्य-भाव से जागों और अंधकारमयी विरोधी ताकतों से ब्रह्माण्ड को मुक्त कराओ। देवी की प्रकृति रूपी यही अवस्थाएं सत्व,  रज और तम गुणों में रूपांतरित होकर सृष्टि को संतुलित बनाए रखने का काम करती हैं। इसीलिए देवी को आद्य या असाधारण शक्ति कहा गया है। विश्व की इस जननी के बिना शिव भी ‘शव’ मात्र हैं।

जब ब्रह्माण्ड में उर्जा का विघटन होता है तो आसुरी शक्तियां जागृत हो जाती हैं। ऊर्जा जब अव्यवस्थित हो जाती है, तब भी ध्वंसात्मक स्थितियों का निर्माण होता है। आज विध्वंसकारी वैज्ञानिक प्रयोगों के चलते दुनियाभर में ऊर्जा का ध्वंसात्मक रूप दिखाई दे रहा है। अराजकता का बनता यही परिवेश नकारात्मक यानी आसुरी ऊर्जा को बढ़ाता है। इस ऊर्जा को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम ब्रह्मा, विष्णु, महेश करते हैं। देवी महात्म्य में कहा भी गया है कि देव और असुरों के बीच जब महायुद्ध हुआ तो वह सौ दिन तक चला। इस समय राक्षस महिष असुरों का राजा था और इंद्र देवताओं के अधिपति थे। इस संघर्ष में असुरों ने देवताओं का परास्त कर दिया। फलत: महिष देवों का भी सम्राट बन बैठा।

पराजित देवता प्रजापति ब्रह्मा के नेतृत्व में विष्णु व शिव के पास गए। उन्होंने युद्ध और फिर पराजय का दुखद वृत्तांत विष्णु व शिव को सुनाया। इसे सुनकर दोनों आक्रोश से लाल हो गए। विष्णु ने मुख खोला और उससे तीव्र गति से अक्षय ऊर्जा बाहर आई। ऐसा ही रोष ब्रह्मा और शिव ने ऊर्जा के रूप में मुख से प्रकट किया। इंद्र के शरीर से भी ऊर्जा का प्रस्फुटन हुआ। अन्य देवों ने भी अपने-अपने मुखों से ऊर्जा छोड़ी। ऊर्जा के इस प्रवाह से नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित होने लग गई। मुखों से उत्सर्जित इन ऊर्जा रूपी लपटों ने एक पर्वत का आकार ग्रहण कर लिया। इसी पर्वत से कात्यायनी प्रकट हुईं। दुर्गा का यही रूप महिषासुरमर्दिनी कहलाया।

लीला भाव में यही दुर्गा चार पैरों के राजा सिंह की पीठ से टिककर खड़ी हैं। सिंह भी क्रूर शक्ति का प्रतीक है, लेकिन उसे वश में कर लिया गया है। देवी अराजक महिष के शरीर को रौंद रही हैं। उनका एक पैर असुर के सिर पर है। महिष शक्तिशाली तो है, लेकिन उसका आचरण क्रूर है, इसलिए वह ब्रह्माण्ड के आध्यात्मिक आधार के अनुकूल नहीं है। यही कारण है कि कात्यायनी महिष को पददलित कर उसके अहंकार को चूर कर देती हैं। महिष के प्राण हरने के बाद कात्यायनी महिषासुर-मर्दिनी कहलाती हैं। इसीलिए इन्हें ब्रह्माण्ड की जननी कहा गया,  जो पृथ्वी का प्रतीक है। ब्रह्माण्ड के अस्तित्व का यही बीज है। प्रकृति के इन्हीं रूपों का मानवीकरण करते हुए ॠग्वेद में कहा गया है कि ज्ञान के सभी विषय और क्रियाकलाप अंतत: देवी के रूप हैं। सृष्टि सृजन के आरंभ से लेकर अब तक नारियां मां का रूप हैं। नारी के मातृत्व की डिंब में स्थित इस ऊर्जा को प्रजापति ब्रह्मा ने स्वयं विभाजित करके मानव के अस्तित्व को सृजित किया था। वह नारी ही है, जो अपनी ऊर्जा से मनुष्य को मनुष्यतत्व प्रदान करती है। साफ है,  भगवती दुर्गा मूल प्रकृति का वह रूप हैं,  जिसमें समस्त शक्तियां समाहित हैं।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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