एक था नाई

एक नाई था। राजा का नाई। राजा उसे अच्छा वेतन देता था। फिर भी नाई के मन को चैन न था। वह हमेशा सोचता कि काश, मेरे पास खूब धन होता। अपनी पत्नी को अच्छे-अच्छे गहने बनवाकर देता।

वह हर महीने पैसे बचाने लगा। धीरे-धीरे काफी धन इकटठा हो गया। एक दिन वह बाजार जाकर पत्नी के लिए सोने का हार खरीद लाया।

पत्नी ने सोने का हार पहना, तो नाई खुशी से बोला, ‘हां, अब तुम धनी परिवार की लग रही हो। काश, कुछ और गहने होते तुम्हारे पास।’

सोचते-सोचते नाई फिर चिंता में पड़ गया। वह हर वक्त सोने और गहने के बारे में ही सोचता रहता। एक दिन वह बड़बड़ाता हुआ जंगल से होकर जा रहा था और सोच रहा था कि बस, मुझे ढेर-सा सोना मिल जाए। फिर कोई चिंता नहीं रहेगी।

तभी उसे लगा, पास के एक पेड़ से आवाज आ रही है, ‘सुनो, सुनो, क्या तुम्हें सोना चाहिए ?’

नाई दौड़कर उस पेड़ के नजदीक गया। बोला, ‘हां, हां, मुझे सोना चाहिए।’

पेड़ ने कहा, ‘घर जाकर भीतर वाली कोठरी में देखना। तुम्हें सोने से भरे सात घड़े रखे मिलेंगे।’

नाई दौड़ा-दौड़ा घर गया। पत्नी से बोला, ‘भीतर वाली कोठरी में जाकर देखो। सात घड़े होंगे।’

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पत्नी ने एक के बाद एक सभी घड़ों का ढक्कन हटाया। सोना देख, नाई और उसकी पत्नी खुशी से पागल हो गए। तभी नाई की पत्नी की नजर सातवें घड़े पर पड़ी। वह आधा खाली था। नाई ने भी देखा। दोनों उसे देख, उदास हो गए।

‘अगर यह घड़ा भी भर जाए, तो कितना आनंद आएगा,’ नाई ने कहा और सोचने लगा। उसी दिन वह अपनी पत्नी के गहने सुनार के पास ले गया। उन्हें भी गला लिया।

फिर उस सोने को घड़े में डाल दिया। अब नाई पहले से भी ज्यादा कंजूसी करने लगा। जो भी धन जमा होता, उससे सोना खरीदकर घड़े में डाल देता पर घड़ा वैसे ही खाली रहा। नाई की चिंता और बढ़ गई। नाई को चिंतित देख, एक दिन राजा ने कारण पूछा। नाई ने कहा, ‘महाराज, रूपए-पैैसे की किल्लत रहती है।’

राजा ने नाई का वेतन दुगुना कर दिया मगर नाई वैसा ही दुखी नजर आता। राजा ने उसका वेतन कुछ और बढ़ा दिया।

इस पर भी नाई के चेहरे पर चिंता की रेखाएं गहरी होती गईं। आखिर एक दिन राजा ने पूछा, ‘कहीं तुम्हें सात घड़े तो नहीं मिले ?’

नाई के हां कहने पर राजा ने कहा, ‘सातवां घड़ा हमेशा खाली रहता होगा।’

‘हां, हां, महाराज। आपको कैसे पता चला ?’ नाई ने हैरानी से पूछा।

‘मुझे भी पहले इसी तरह सात घड़े मिले थे। पेड़ ने मुझे बुलाकर सोना दिया था। सातवां घड़ा खाली था। मैंने उसे भरने के लिए अपना आधा खजाना खाली कर दिया पर वह वैसे ही खाली का खाली रहा। मैं समझ गया कि यह तो तृष्णा का घड़ा है। जैसे इच्छाएं कभी पूरी नहीं होतीं, ऐसे ही यह घड़ा भी खाली रहेगा और मुझे परेशान करता रहेगा। मैंने वे घड़े वापस कर दिए।’

उस दिन नाई राजमहल से लौटा, तो उसके मन में उथल-पुथल मची थी। सोच रहा था कि अगर राजा के आधे खजाने से भी वह घड़ा नहीं भरा, तो मेरी क्या बिसात ? वह घर न जा, सीधा उस पेड़ के पास गया। बोला, ‘वे घड़े वापस ले लो। मुझे नहीं चाहिए।’

घर आया तो सचमुच घड़े गायब हो चुके थे। इसके साथ ही उसका बचाया हुआ धन और गहने भी पर उस दिन के बाद नाई प्रसन्न रहने लगा।

-नरेंद्र देवांगन

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