चीन से कैसे निपटें?

भारत कठोर, मुखर और दूरगामी रणनीतियों के साथ आगे बढ़े तो चीन को समुचित जवाब दिया जा सकेगा। चीन से निपटना एक दो दिन या कुछ दिनों के युद्ध का मामला नहीं है; पूरे देश को लंबे समय के लिए धैर्य के साथ एकजुट होकर तात्कालिक क्षति, परेशानियों को झेलते हुए विजय और लक्ष्य प्राप्ति के संकल्प के साथ आगे बढ़ना होगा।

चीन और भारत की सेनाओं के बीच गलवान घाटी में पूर्व स्थिति बहाल करने पर बनी सहमति से दोनों देशों के संबंधों में कायम जटिलताओं में कोई अंतर नहीं आया है। एक ओर चीन बात कर रहा है और दूसरी ओर लद्दाख के गलवान घाटी से लेकर डेप्सांग तक में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा रहा है। इसमें हैरत की कोई बात नहीं। चीन दूरगामी सुनियोजित रणनीति के तहत ही कुछ करता है। हालांकि भारत ने उसे जिस तरह का जवाब दिया है उससे उसकी योजनाओं को धक्का लगा है। किंतु यह पर्याप्त नहीं है।  वास्तव में देश में चीन से स्थायी रूप से निपटने का वही वातावरण है और चीन के रवैये को देखते हुए यह सही है। चीन की सोच और उसकी पूरी रणनीति को समझने वाले जानते हैं उसके लिए किसी समझौते का अर्थ केवल अपनी विस्तारवादी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करना है। इसलिए यह मूल प्रश्न आज भी उसी तरह कायम है कि चीन से निपटा कैसे जाए? यह प्रश्न नया नहीं है। 1949 में कम्युनिस्ट क्रांति के साथ ही चीन की माओवादी साम्राज्यवादी कम्युनिज्म ने सभी पड़ोसी देशों के लिए समस्याएं पैदा करनी शुरू कर दी थीं। 1962 के युद्ध के बाद से यह प्रश्न लगातार हम पर हथौड़ों की तरह प्रहार करता रहा है। जब-जब चीन ने अपनी शक्ति के दंभ मे उदण्डता की तब-तब इस पर बहस हुई और फिर अध्याय जैसे बंद हो गया।

तंग शिआओ पिंग ने राजीव गांधी के साथ जिस नीति की शुरुआत की उसका मूल यही था कि सीमा विवाद को अगली पीढ़ी के लिए छोड़कर हमें आपसी सहयोग को आगे बढ़ाना चाहिए। उसके बाद से शांति, विश्वास स्थापना तथा सीमा व्यवहार के समझौते होते गए। यह भी सच है कि 1975 के बाद भारत चीन सीमा पर कोई गोली नहीं चली। सामान्य विवाद हुए भी तो उसके लिए जो नियम बनाए गए थे उसके तहत निपटा लिया गया। किंतु चीन ने कभी भारतीय भूमि पर न अपना दावा छोड़ा, न सीमा विवाद को सुलझाने की कोशिश की और भारत को कमजोर और दबाव में रखने की नीति बदली।

  जो असभ्य और बर्बर खूनी जंग इस समय गलवान घाटी में हुआ है वह आज न कल होना ही था। चीन की नीतियों में आक्रामकता पिछले करीब डेढ़ दशक से बढ़ी है। पिछले छः वर्षों में भारत ने जिस तेजी से लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक सड़कें, पुल, रेलवे आदि नागरिक एवं सैन्य आधारभूत संरचना का विस्तार करना आरंभ किया, चीन की उदण्डता बढ़ती गई है। इससे प्रश्न जरूर मुखरता से उभरा है किंतु है यह पुराना ही और अगर अब भी भारत ने स्थायी नीति के तौर पर चीन से निपटने का रास्ता नहीं पकड़ा तो फिर यही कहा जाएगा कि हम धोखा खाकर भी अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना नहीं सीख पाए।

चीन के राष्ट्पति शी जिनपिंग ने स्वयं को जीवन भर का शासक बनाने के बाद माओ से आगे निकल जाने की कल्पना में चीन को सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बनाने की योजना पर आगे बढ़ रहे हैं। भारत से तनाव के बीच उनके तीन भाषण सामने आए हैं। उन्होंने सबसे बुरी स्थिति की कल्पना करते हुए सेना से सीमा तथा आर्थिक हितों की रक्षा के लिए युद्ध की तैयारी की बात की है। चीन के विरुद्ध दूरगामी रणनीति बनाने और उस पर आगे बढ़ने के पहले शी के इस निजी और राजनीतिक लक्ष्यों को गहराई से समझना होगा। हमारा तो 43 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर उसका कब्जा है।

14 नवंबर 1962 को समूची भूमि को वापस लेने का संसद का प्रस्ताव केवल कागजोें पर तो नहीं रहना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दो सार्वजनिक वक्तव्य आ चुके हैं। एक मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक में तथा दूसरा सर्वदलीय बैठक में। इसके अनुसार भारत की एक ईंच जमीन और एक भी पोस्ट पर चीन ने कब्जा नहीं किया। यह एक आश्वासन है जिसे देश को स्वीकारना चाहिए। यह सही है कि गलवान में चीनी सैनिकों के निर्माण का विरोध तथा उन्हें पीछे हटने के लिए दबाव बढ़ाने के कारण ही खूनी घटना घटित हुई। इसके साथ उन्होंने साफ कहा कि संप्रभुता की रक्षा के लिए भारत प्रतिबद्ध है, हम जबसे उनको रोकने-टोकने लगे हैं तबसे उनकी परेशानियां बढ़ी हैं, लेकिन सैन्य लामबंदी जिसमें मिसाइल रक्षा प्रणाली तक शामिल है आदि की तैनाती का क्रम जारी है। उन्होंने सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सैनिकों से अपने स्तर पर निपटने की खुली छूट दिए जाने की भी घोषणा कर दी। उन्होंने यह भी कहा कि आज हमारे पास इतना सामर्थ्य है कि कोई हमारी एक ईंच भूमि पर भी आंख उठाकर नहीं देख सकता। इससे साफ है कि भारत की नीति अब सैन्य स्तर पर पहले से ज्यादा आक्रामक होगी। खुली छूट का मतलब समझौते के अनुसार सेना के सामने अब वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हथियार लेकर न जाने का बंधन खत्म। वे चीनी सेना को उसके अनुसार जवाब दे सकेंगे जिसमें हथियारों का उपयोग करना शामिल है। सेना को 500 करोड़ रुपए तक की आपात खरीदारी की स्वतंत्रता दे दी गई है।

हम लद्दाख के आसमान पर वायुसेना के हेलिकॉप्टरों और लड़ाकू विमानों तक को उड़ान भरते तथा गश्त करते देख सकते हैं। थल सेना, वायुसेना और नौसेना को हाई अलर्ट पर रखा गया है। लद्दाख के आसमान में वायुसेना के लड़ाकू विमान गश्त लगा रहे हैं। वायुसेना प्रमुख एयरचीफ मार्शल आरकेएस भदौरिया ने लेह और श्रीनगर वायुसेना अड्डे का दौरा किया। यह दौरा इस बात का संकेत है कि अगर सरकार ने चीन के खिलाफ सैन्य कार्रवाई का फैसला किया तो नौसेना को अपनी भूमिका निभाने में मिनट का समय नहीं लगेगा। पूर्वी लद्दाख इलाके में किसी भी प्रकार के ऑपरेशन के लिए ये दोनों वायुसेना अड्डे सबसे महत्वपूर्ण हैं। हैदराबाद में इंडियन एयरफोर्स अकैडमी की पासिंग आउट परेड में हिस्सा लेने पहुंचे भदौरिया ने कहा कि वायुसेना एलएसी या किसी अन्य मोर्चा पर उपजी आपात स्थितियों से निपटने को पूरी तरह से तैयार है। गलवान घाटी में शहीदों के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देगी। हमें सभी स्थितियों का अंदाजा है और और हम उनकी भी सभी तैयारियों से वाकिफ हैं फिर चाहे वो उनकी एयर डिप्लॉयमेंट की बात हो या किसी भी और तैयारी की। हमने सभी स्थितियों की समीक्षा की है और इनसे निपटने के लिए तमाम जरूरी कदम भी उठाए गए हैं।

     थल सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने पहले लेह स्थित सैन्य अस्पताल में गलवान में घायल सैनिकों से मुलाकात की और उसके बाद अग्रिम मोर्चा पर जाकर जवानों का हौंसला बढ़ाया। इससे भी चीन को भारतीय दृढ़ता का सीधा संदेश गया होगा। भारत लगातार सैटेलाइट, ड्रोन और पी-8आई जैसे लंबी दूरी के नेवेल एयरक्राफ्ट्स तैनात कर रहा है। रडार और इलेक्ट्रो-ऑप्टिक सेंसर से लैस ये सर्विलांस प्लैटफॉर्म एलएसी पर चीनी सेना की तैनाती को ट्रैक करने में पूरी तरह से सक्षम हैं। तिब्बत के गरगांसा, होटन, काशगर, गोंगर और कोरला जैसे चीनी वायुसेना अड्डों की भी नियमित रूप से निगरानी की जा रही है। लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक फैली 3488 किमी लंबी एलएसी पर, जिसमें गलवान घाटी के अलाव दौलत बेग ओल्डी, चुशूल और डेपसांग इलाके शामिल हैं, उनमें अपने सैनिकों की तैनाती की संख्या बढ़ा दी है। लंबे समय बाद उस क्षेत्र में टैंकों की तैनाती हुई है। सेना ने वहां टी 90 टैंक तैनात कर दिया है। सेना ने डेमचोक और पैंगोंग इलाके के सीमावर्ती गावों को खाली कराने का निर्देश दिया है। इन सीमावर्ती गांवों के मोबाइल फोन नेटवर्क को भी फिलहाल बंद कर दिया गया है। नौसेना ने हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी सतर्कता बढ़ा दी है जहां चीनी नौसेना की नियमित तौर पर गतिविधियां होती हैं।

इस तरह सैन्य स्तर पर युद्ध की अवस्था से पहले की स्थिति कायम कर दी गई है। इससे चीन को सीधा संदेश गया है। इसके पहले कभी इस स्तर पर चीन के खिलाफ सैन्य लामबंदी नहीं हुई थी। यह बात सच है कि चीन शक्ति की भाषा समझता है। शक्ति के भय से वह दबाव बनाता है और उसी तरह की भाषा हम इस्तेमाल करने लगे जो अब किया गया है तो फिर चीन को भारत के विरोध में दुस्साहस करने से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा। हम यहां इसमें नहीं जाना चाहते कि किसकी रक्षा ताकत कितनी है। मुख्य बात होती है किसी देश के संकल्प की। वियतनाम ने चीनी सैनिकों के दांत खट्टे कर दिए थे। हमारी सेना ने ही 1967 में चीनी सैनिकों को धूल चटा दी।

आक्रोश और लंबे समय के लिए मानसिक रूप से तैयार होने के संकल्प में जमीन आसमान का अंतर होता है। चाहे आक्रोश जितना हो मुकाबला करने के लिए शांति और संतुलन के साथ दूरगामी स्थायी नीति की आवश्यकता है। सैन्य लामबंदी स्थायी रूप से नहीं रखी जा सकती। यह आवश्यक इसलिए है ताकि चीन को लगे कि भारत अब जैसे को तैसा सैन्य व्यवहार के लिए पूरी तरह तैयार हो चुका है। देखना होगा यह दबाव कितना काम करता है। चीन द्वारा गलवान घाटी पर लगातार अपना दावा करने के बाद भारत ने साफ कर दिया है कि वहां की स्थिति स्पष्ट है और आपको पीछे जाना ही होगा। अगर आज चीन थोड़ा पीछे हट भी जाए तो उससे समस्या का समाधान नहीं होगा। फिर मौका देखकर धोखे से आगे आ जाएगा। जो देश पूरे अरुणाचल को अपना कहता है तथा लद्दाख पर जिसकी नजर है वह आसानी से अपने इरादे का परित्याग नहीं करने वाला।

सैन्य मोर्चा के साथ हमें चीन संबंधी अपनी पूरी नीति को नए सिरे से निर्धारित करने की जरूरत है। हालांकि चीन के साथ बेहतर संबंध बनाने की तमाम कोशिशों के बावजूद भारत उसके इरादे के खिलाफ जागरुक नहीं था ऐसा नहीं कहा जा सकता। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों बार पहली विदेश यात्रा भूटान से की और इसका एक बड़ा उद्देश्य चीन के बढ़ते प्रभाव को खत्म करना था जिसमें सफलता मिली। पांच वर्ष पहले उन्होंने जापान की यात्रा के दौरान बयान दिया था कि यह समय सहयोग का है जबकि एक देश किसी की भू सीमा में घुस जाता है तो किसी की समुद्री सीमा पर दावा करता है। चीन ने जिस तरह एनएसजी यानी नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह में हमारे प्रवेश को बाधित किया हुआ है, मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने के रास्ते नौ वर्ष तक खड़ा रहा उसका सामना सरकार ने किया है। भारत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन में कोरोना में चीन की भूमिका की जांच का मुखर समर्थन किया। किंतु दूरगामी नीति बनाकर मुखरता से काम नहीं किया गया। जैसे हम जम्मू कश्मीर वाले पाकिस्तानी भाग को पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं उसी तरह अक्साई चिन को चीन अधिकृत लद्दाख कहना शुरू करें। इससे एक अलग भाव पैदा होता है तथा दुनिया को संदेश जाएगा कि भारत इसे वापस लेने की कार्रवाई आज न कल करेगा।

यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि इतिहास में चीन कभी हमारा पड़ोसी नहीं था। हमारा पड़ोसी तिब्बत था जिसकी स्थिति विशिष्ट थी। बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र के रूप में उसकी प्रतिष्ठा हमेशा थी तथा उसके अनेक गांवों के लोग भारत को अपना मालगुजारी देते थे। वे अपने को भारत का अंग मानते थे। भारत का राजनीतिक अंग न भी माने तो वह एक बफर स्टेट की भूमिका निभाता था। 1951 में चीन ने उसे हड़प लिया। उसके बाद से पूरी स्थिति बदल गई। जब चीन ने वहां आक्रमण किया तो लोगों को उम्मीद थी कि भारत आकर उन्हें बचाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक समय ऐसा आया जब 1959 में तिब्बती धर्मगुरु तथा वहां के शासक दलाई लामा को अपने लोगों के साथ भारत में शरण लेनी पड़ी। सवाल है कि हमने दलाई लामा और तिब्बतियों को शरण क्यों दिया? अब तक भारत सरकारेंं इस मुगालते में रहीं कि तिब्बत को चीन का स्वायत्त क्षेत्र मान लेने के बाद चीन उनके क्षेत्रों से दावा वापस ले लेगा। यह गलत और आत्मघाती नीति थी।

ध्यान रखिए, पंचशील समझौतेे में भारत ने न केवल तिब्बत को चीन के एक स्वायत्त प्रांत के रूप में मान्यता दी थी, बल्कि तिब्बत में अपने दो वाणिज्य दूतावास चलाने, सेना की टुकड़ियां रखने, व्यापार मंडियां चलाने और टेलिग्राफ तंत्र बनाए रखने की जो सुविधाएं मिली हुई थीं उन्हें भी छोड़ दिया था। साफ है कि भारत खुलकर तिब्बत की आजादी का समर्थन करे। अमेरिका, यूरोप और एशिया में भी जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देश तिब्बत पर चीन की नीति के विरुद्ध हैं, दलाई लामा को अनेक देशों ने अपने यहां के उच्चतम पुरस्कार दिए हैं, तिब्बत के पक्ष में संसदों में प्रस्ताव तक पारित हुए हैं। किंतु यह मसला भारत का है और इसे ही मुखर होना होगा।

भारत चीन सीमा नाम की कोई चीज नहीं है, भारत तिब्बत सीमा है। तो इसका यही नामकरण कर दिया जाए। बौद्धों के तीन धर्मगुरुओं में से दो भारत में हैं और हम पता नहीं क्यों इनका लाभ नहीं उठाते। मोदी ने बौद्ध कूटनीति में बौद्ध धर्म मानने वाले देशों से संबंधों को भावनात्मक स्तर पर लाने का जो प्रयास किया वह सही था और उसे विस्तार और सुदृढ़ करने की जरूरत है। धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता दी जाए तथा भारत अन्य देशों को भी इसके लिए तैयार करे। दलाई लामा को भारत रत्न जैसा सर्वोच्च पुरस्कार देकर उनकी हैसियत बढ़ाए।

इससे बड़ा अस्त्र चीन को दबाव में लाने का कुछ हो ही नहीं सकता।  इसके साथ भारत ताइवान को स्वतंत्र देश की मान्यता दे। साथ ही चीन द्वारा हड़पे गए पूर्वी तुर्कीस्तान, दक्षिणी मंगोलिया की आजादी का समर्थन करे, हांगकांग और मकाउ के लोगों के संघर्ष में साथ होने का ऐलान किया जाए। यह सब चीन की दुखती नस है। जब मोदी ने मंगोलिया की यात्रा की थी तब चीन बिलबिलाया था। उस नीति को आगे बढ़ाया जाए। चीन के नक्शे में 6 देश पूर्वी तुर्किस्तान, तिब्बत, इनर मंगोलिया या दक्षिणी मंगोलिया, ताइवान, हांगकांग और मकाउ शामिल हैं। इन सभी देशों का कुल क्षेत्रफल 41 लाख 13 हजार 709 वर्ग किमी से ज्यादा है। यह चीन के कुल क्षेत्रफल का 43 प्रतिशत है। कल्पना करिए, इनकी आजादी का बिगुल बज जाए तो चीन की क्या दशा होगी? इनके नागरिकों को हम अपने यहां आने के लिए वीजा का प्रावधान खत्म करें।

कहने का तात्पर्य यह कि चीन के संदर्भ मेंं समूची विदेश नीति में आमूल परिवर्तन किया जाए एवं सघन कूटनीति हो। चीन की सीमा 14 देशों से लगती है और अपनी विस्तारवादी महत्वाकांक्षा में इसने 23 देशों के साथ सीमा विवाद पैदा कर लिया है। जापान के साथ तो उसका समुद्री सीमा विवाद काफी तीखा हो चुका है। दक्षिणी चीन सागर पर दावों के कारण इंडोनेशिया, चीन, फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ताइवान और ब्रुनेई से उसका तनाव है। इस पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला आ चुका है। चीन के खिलाफ अमेरिका ने वहां अपनी नैसेना और वायुसेना का जमावड़ा किया है। भारत दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावे के खिलाफ है लेकिन अन्य देशों की तरह मुखर नहीं। भारत आगे बढ़कर इन सारे देशों को साथ लें एवं चीन को घेरने के लिए आगे बढ़े। चीन दुनिया का अकेला देश है जिसका आज कोई मित्र और विश्वसनीय साथी नहीं है। पाकिस्तान और उसके नए-नए मित्र बने नेपाल की बात अलग है।

एशिया से अफ्रिका तक चीनी कर्ज जाल में फंसे देश उसके खिलाफ हो चुके हैं। इसके विपरीत भारत के मित्र एवं सामरिक साझेदार देशों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। हिन्द महासागर और प्रशांत क्षेत्र के ज्यादातर देशों के साथ हमारा रक्षा सहयोग समझौता हो चुका है और वे सब चीन से सशंकित हैं। दक्षिण पूर्वी एशिया के ज्यादातर देश भारत से आगे बढ़कर विशेष भूमिका की अपील कर चुके हैं। चीन के खिलाफ घेरेबंदी के लिए इस पर तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है। आखिर हम हिन्द प्रशांत क्षेत्र में जापान, आस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ मालाबार सैन्य अभ्यास क्यों करते हैं? इसका लाभ तो उठाएं।

इसके साथ आता है चीन को आर्थिक रूप से धक्का देने का प्रश्न। भारत से चीन को व्यापार में करीब 50 अरब डॉलर का लाभ पिछले वर्ष हुआ है। इस समय चीनी सामग्रियों के बहिष्कार का माहौल है। व्यापारी संगठनोंं ने भी करीब 3000 ऐसी सामग्रियों की सूची बनाई है जिसके आयात को रोक सकते हैं। बेशक, औषधियों के लिए कच्चा माल से लेकर ऐसी अनेक सामग्रियों के लिए हम उस पर निर्भर हैं, इसलिए एकबारगी सब पर शुल्क बढ़ाना या आयात रोक देना राष्ट्रीय हित में नहीं होगा। हमारे यहां अनेक स्टार्टअप में उसने निवेश किया हुआ है जिसका रास्ता तलाशना है। किंतु अन्य अनेक सामग्रियां हैं जिनको रोका जा सकता है। जहां तक इलेक्ट्रोनिक सामग्रियों तथा नई संचार तकनीक का प्रश्न है हम स्वयं इसमें सक्षम होने की कोशिश करें।

ताइवान, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे इन मामलों में अग्रणी देशों का सहयोग लेकर 5 जी के हयुवाई कंपनी को रोक सकते हैं। सरकार ने दूरसंचार कंपनियों से चीनी तकनीकों एवं सामग्रियों के उपयोग न करने का संकेत दिया है। चीनी ठेकों पर विचार होने लगा है। कोरोना वायरस में संदिग्ध भूमिका के कारण चीन के साथ आर्थिक संबंध कमजोर करने का भाव पूरी दुनिया में है। अमेरिका के बाद कई देश उसकी सामग्रियों पर शुल्क बढ़ाने से लेकर दण्डात्मक कार्रवाई करने पर विचार कर रहे हैं। अनेक देशों की कंपनियों ने वहां से बोरिया बिस्तर समेटने का ऐलान किया है जिसका लाभ उठाते हुए भारत को इस भावना को आगे बढ़ाना चाहिए।

इस तरह कठोर, मुखर और दूरगामी रणनीतियों के साथ भारत आगे बढ़े तो चीन को समुचित जवाब मिलेगा एवं शी का दुनिया का सर्वोच्च महाशक्ति का शासक होने तथा सभी पड़ोसियों को दबदबे में रखने का सपना ध्वस्त हो सकेगा। चीन से निपटना एक दो दिन या कुछ दिनों के युद्ध का मामला नहीं है। पूरे देश को लंबे समय के लिए धैर्य के साथ एकजुट होकर तात्कालिक क्षति, परेशानियों को झेलते हुए विजय और लक्ष्य प्राप्ति के संकल्प के साथ आगे बढ़ना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

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