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गुरु बिन भ्रम ना जासी

गुरु बिन भ्रम ना जासी

by अमोल पेडणेकर
in जुलाई - सप्ताह दूसरा गुरु पूर्णिमा विशेष, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
1

गुरु के सत्संग के प्रहार से व्यक्ति के जीवन में प्रकाश आता है। लेकिन वर्तमान में शिक्षा और अध्यात्म व्यापार बन गया है, ऐसे में नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने वाले गुरुओं की तलाश करना हमारे लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है। सच्चे गुरु की आज भी उतनी ही दरकार है, जितनी पहले थी।

संत कबीर ने कहा है, ‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय।’ संत कबीर के सामने ऐसी घड़ी आ गई कि उनके सामने गुरु और गोविंद दोनों खड़े थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि पहले किसको नमन करूं। लेकिन गोविंद ने ही बता दिया कि पहले गुरु चरणों में प्रणाम कीजिए। गुरु का स्मरण करने का यह दिन आषाढ़ी पूर्णिमा है।

गुरु शब्द की व्याप्ति विशाल है। परंतु जिन्होंने हमें उंगली पकड़कर जीने का पाठ पढ़ाया, वही अपने लिए गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: होते हैं। इसलिए गुरु के संदर्भ में कृतज्ञता व्यक्त करने का दिवस गुरु पौर्णिमा होता है। गुरु अति प्राचीन वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ है, जो अपने जीवन के संपूर्ण अंधकार को दूर कर दें। यह अंधकार सिर्फ आत्मा का अंधकार नहीं होता, मनुष्य के अंदर बसे त्रिस्तरीय अंधकार करे दूर करने की बात होती है। मनुष्य के जीवन में भौतिक जगत, मानसिक जगत और आध्यात्मिक जगत का अंधकार होता है। वह मनुष्य के अहंकार के कारण होता है।

गुरु वही होता है जो इन अहंकार को दूर करके अपने शिष्य के अंदर मानवता को जागृत करता है। उसके आत्मिक स्तर को बढ़ाता है और उसे उज्ज्वल प्रकाश की ओर ले जाता है। ऐसे गुरु को त्रिस्तरीय गुरु कहा जाता है। प्राचीन काल में गुरु अक्षर, ज्ञान, शास्त्र और उससे अधिक व्यवहार ज्ञान की शिक्षा अपने छात्रों को देते थे। गुरु मानते थे कि विद्वान होने के साथ-साथ यदि व्यक्ति व्यावहारिक ज्ञान में निपुण नहीं है तो वह अपने जीवन में उच्च शिखर को छू नहीं सकता।

भारत में गुरु- शिष्य परंपरा धरोहर के रूप में हमें मिली है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में गुरु की विशेष महिमा मानी जाती है। उदाहरण के लिए श्रीकृष्ण के सांदीपनी ऋषि, पांडवों के द्रोणाचार्य, शिवाजी के समर्थ गुरु रामदास, स्वामी दयानंद सरस्वती के वीरजानंद जी, स्वामी विवेकानंद के रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी के गोखले। इन गुरुओं ने अपने शिष्यों को परम ज्ञानी बनाते हुए उनके मध्यम से देश और जन कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर शिष्यों की अमर कीर्ति विश्व मैं चारों ओर फैलाने में सहायक रहे।

भारत में जो गुरु परंपरा रही है उसे देखते हुए हम यह गीत गुनगुनाते हैं, गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, या सब धरती कागज करूं, गुरु गुण लिखा न जाए। ऐसी बात होते हुए भी अक्सर कई लोग कहते हैं कि हमें गुरु की जरूरत नहीं है। आदमी भ्रम में पहले ही पड़ा हुआ है, इस कारण बिना गुरु के उसका भ्रम नहीं जाएगा। घट में है पर बतावे, दूर की बात निरासी। कहत कबीर सुनो भाई साधो, गुरु बिन भ्रम ना जासी। हम जिस ज्ञान को ढूंढने के लिए मंदिर -मंदिर, तीर्थ स्थान, काशी -मथुरा घूमते हैं, वह तो अपने आसपास ही है, यह बताने के लिए हमारे साथ अच्छा गुरु होना आवश्यक होता है। बिना गुरु के उसको ज्ञान की अनुभूति कभी नहीं हो सकती।

गुरु क्या होते हैं? गुरु लुहार होते हैं, और शिष्य लोहा। लुहार जिस प्रकार से लोहे को अग्नि में डालकर तपाता है, उसी प्रकार से लुहार रूपी गुरु लोहे जैसे शिष्य को जिज्ञासा रूपी अग्नि में डालकर उस लोहे को लाल कर देता है। उस गर्म लोहे पर सत्संग रूपी हथौड़े से निरंतर प्रहार करता रहता है। गुरु अपने शिष्य का रूप ही बदल देता है। जब लोहे का रूप बदल जाता है तो वह लोहे का टुकड़ा नहीं रहता। गुरु शिष्य को जिस रूप में ढ़ालना चाहता है उस प्रकार से उसका आकार बन जाता है। अपने जीवन में कोई हाथ पकड़ने वाला होना आवश्यक है। सिर्फ शब्दों से काम नहीं चलेगा, गुरु के पास अग्नि हो, हथौड़ा भी हो और अपने शिष्य का स्वरूप बदलने के लिए खुद परिश्रम करने में गुरु को कोई संकोच ना हो। हमारे जीवन में आनंद की बहार लाने वाला गुरु हमें प्राप्त होना अत्यंत सौभाग्य की बात होती है। जिस प्रकार से सभी दवाइयां, चिकित्सा शास्त्र तथा चिकित्सा की सारी सुविधाएं हमारे आसपास होते हुए भी व्यक्तिगत रूप में डॉक्टर की आवश्यकता हमें होती है। व्यक्ति के जीवन का ताना-बाना सही ढंग से बुनने के लिए भी गुरु की आवश्यकता भी वैसे ही होती है। गुरु ही जानता है कि शिष्य के लिए क्या उपयुक्त है।

जरा सोचें, आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा क्यों मनाई जाती है? आषाढ़ महीने में आकाश घने बादलों से घिरा हुआ होता है। घने बादलों के कारण पूर्णिमा को चांद कभीकभार दिखाई देता है। लेकिन जिसने भी आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में चुना है, वह हमें इशारा कर रहा है। वह कह रहा है कि गुरु तो पूर्णिमा के चांद जैसा है और शिष्य आषाढ़ महीने जैसा। आषाढ़ के महीने में आकाश बादलों से घिरा हुआ रहता है, लेकिन ऐसे वातावरण में भी चांद चमक कर रोशनी निर्माण करता रहता है। लेकिन चांद के पास अपनी रोशनी नहीं होती है, इस बात को भी हमें थोड़ा समझना होगा। चांद सूरज की रोशनी से चमकता है। सदियों से बहुत सोच समझ कर हमारे पुरखों ने आषाढ़ महीने की पूर्णिमा के चांद को गुरु के स्मरण दिवस के रूप में चुना है। इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं। गुरु के पास भी रोशनी अपनी नहीं होती है, वह रोशनी परमात्मा से उसे मिलती है। गुरु शिष्यों को जो ज्ञान देता है उसका अपना कुछ भी नहीं होता है, गुरु केवल निमित्त मात्र होता है। अपने इसी गुरु परंपरा के कारण हमारे मन में पक्की धारणा बनी हुई है- ‘गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, या सब धरती कागज करूं। गुरु गुण लिखा न जाए।’

गुरु साक्षात परब्रह्म

महान गुरु के प्रति शिष्य के मन की कृतज्ञता बयां करने वाली कुछ कथाएं अपनी भारतीय परंपरा में निरंतर सुनाई जाती है, जिनमें शिष्य की गुरु भक्ति और श्रध्दा प्रकट होती है। एकनाथी भागवत ग्रंथ में दत्तात्रेय के 24 गुरुओं का उल्लेख है। उसमें एकाग्रता यह गुण दत्तात्रेय ने लुहार के पास से लिया है, ऐसा संत एकनाथ बताते हैं। संत एकनाथ बताते हैं, एक राजा का भव्य जुलूस लुहार की दुकान के सामने वाले रास्ते से गुजरता है। सद्गुरु दत्तात्रेय लुहार को पूछते हैं कि राजा का जुलूस किस रास्ते से गया हुआ है? दत्तगुरु के इस सवाल पर लुहार कहता है, मुझे कुछ मालूम नहीं; क्योंकि मेरा पूरा ध्यान अपने काम में था। ज्ञान की साधना में इसी प्रकार से एकाग्रता होनी आवश्यक है। इस प्रकार का ज्ञान श्री दत्तात्रेय को सामान्य माने जाने वाले लुहार से मिला। इसीलिए अपने 24 गुरुओं में उन्होंने लुहार को भी शामिल किया है। धौम्य ऋषि अपने शिष्य आरुनी को मूसलाधार बारिश में खेत से बहते हुए पानी को रोकने के लिए कहते हैं। गुरु की आज्ञा को मानकर बहता हुआ पानी रोकने के लिए आरुनी खुद रात भर मूसलाधार बारिश में बांध के सूराख को रोककर सो गया। पानी को रोको, अपने गुरु की इस आज्ञा का आरुनी ने पूरी आत्मीयता से पालन किया। मनुष्य में इसी प्रकार की आज्ञाधारिता होनी अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार का यह संदेश आरुनी की कथा देती है। द्रोणाचार्य कौरव पांडवों के गुरु थे। उन्होंने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से इनकार किया। तब एकलव्य ने अपार श्रद्धा से द्रोणाचार्य का पुतला बनाया और उसी पुतले को गुरु मानकर स्वयं के प्रयास से धनुर्विद्या में निपुणता हासिल की। आगे चलकर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में उसका अंगूठा मांगा। एकलव्य ने बिना सोचे समझे गुरु आज्ञा का पालन करते हुए अपना अंगूठा काटकर गुरु को अर्पित किया। गुरु पूजन और गुरु भक्ति का यह अद्भुत प्रमाण है।

अवतारी पुरुष होने के बाद भी श्री कृष्ण ने सांदीपनी के आश्रम में जंगल से सूखी लकड़ियां लाकर गुरु की सेवा की है। अपने सेवा धर्म को जागकर साक्ष्यात परमेश्वर भी गुरु के संदर्भ में कृतज्ञता व्यक्त करता है। इस प्रकार का भाव इस प्रसंग से मिलता है। इन कथाओं से गुरु- शिष्य परंपरा और शिष्यों के माध्यम से गुरूओं का स्मरण व्यक्त होता है। ये कथाएं हमें यही बताती हैं कि अपने जीवन में गुरु स्मरण और गुरु के संदर्भ में कृतज्ञता हमेशा जागृत रहनी चाहिए।
——-

वर्तमान में गुरु या आचार्य का पर्यायवाची शब्द शिक्षक है। हमारी परंपरा शिक्षक को राष्ट्र निर्माता के रूप में मानती है, क्योंकि हमारा विश्वास है कि वर्तमान के फिसलन भरे दौर में निष्ठा के साथ इसका भविष्य निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य शिक्षक ही निभा सकता है। यदि एक शिक्षक संकल्पित हो तो अपने शिष्यों के साथ देश का संपूर्ण वातावरण बदलने में सहायक होता है। आज गुरु के स्वार्थ का दायरा बढ़ता जा रहा है। व्यावसायिकता के वर्तमान दौर में गुरु का वास्तविक अर्थ ही बदल गया है। सामाजिक-आध्यात्मिक मंच से लेकर शिक्षण संस्थाओं तक चित्र में फैली हुई अर्थ की प्रधानता ज्ञान से कुछ ज्यादा बढ़कर सर चढ़कर बैठ गई है। ज्ञान बांटने के नाम पर अधिकाधिक धन कमाने की लालसा शिक्षा और आध्यात्मिक संस्थाओं में दिखाई देती है। यह लालसा आध्यात्मिक गुरुओं में भी दिखाई देने लगी है। गुरु के सत्संग के प्रहार से व्यक्ति के जीवन में प्रकाश आता था, यह अपनी धरोहर है। लेकिन वर्तमान में शिक्षा और अध्यात्म व्यापार बन गया है, ऐसे में नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने वाले गुरुओं की तलाश करना हमारे लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है। अमेरिका मे गुलामों की प्रथा समाप्त करने वाले महान सामाजिक योद्धा अब्राहम लिंकन ने अपने पुत्र के शिक्षक को लिखा हुआ पत्र विश्व भर के अनेक विद्यालयों के प्रांगण में टंगा या दीवार पर रंगा हुआ दिखाई देता है। पर आज ऐसे शिक्षक या अभिभावक ढूंढने पर भी नहीं मिलते जो अब्राहम लिंकन से सहमत हो।
वर्तमान में आध्यात्मिक गुरुओं की संख्या की भरमार हमें दिखाई देती है। परमात्मा, जीवात्मा, परब्रह्म, मोक्ष, ब्रह्म लोक, पुनर्जन्म इस प्रकार के शब्द गुरु के मुख से सुनते ही भक्त भावविभोर हो जाते हैं। लगता है कि अपना गुरु बहुत परम ज्ञानी है। शिष्यों के इसी अज्ञान के कारण ही उनकी अंधश्रद्धा बढ़ती जाती है। भक्तों को इस तरह भरमाकर अनेक आध्यात्मिक गुरु उनका आर्थिक शोषण भी कर रहे हैं। बुद्धिजीवी का अर्थ होता है स्वतंत्र रूप में विचार करने वाला व्यक्ति। लेकिन आज समाज से इस प्रकार के बुद्धिजीवी ज्यादातर लुप्त से हो गए हैं, ऐसा लगता है। इस कारण मध्यम वर्गीय समाज की विचार शक्ति पर ग्रहण लगा हुआ है। इस प्रकार का माहौल समाज के ज्यादातर क्षेत्रों में प्रतीत होता है।

समाज का सांस्कृतिक – सामाजिक नेतृत्व राजनीतिक नेताओं का पिछलग्गू बन गया है। वैश्वीकरण के कारण आज एक विपरीत अर्थ प्रधान व्यवस्था निर्माण हुई है। परिणाम स्वरूप समाज का आर्थिक स्तर ऊंचा हुआ है। लेकिन ऊंचे हुए आर्थिक स्तर का मूल्यांकन सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर उतरता कहीं दिखाई नहीं देता। इस कारण अपने समाज से ही अच्छे गुरु निर्माण होने की जो प्रक्रिया थी वह रुक सी गई है, ऐसा अवश्य लगता है।

गुरु दत्तात्रेय ने समस्त जगत में मौजूद हर वनस्पति- प्राणियों, ग्रह -नक्षत्रों को अपना गुरु माना था, जिनके आचरण और गुणों से बहुत कुछ शिखा जा सकता है। गुरु दत्तात्रेय ने समस्त जगत से जिनको गुरु के रूप में चुना था उनकी संख्या 24 थी। इसमें प्रमुख रूप में पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, सूर्य, चंद्र, मधुमक्खी, हाथी, अजगर, शलभ, हिरण, मछली, वेश्या, मकड़ी, बालक, कन्या, तीर आदि प्रमुख रूप में थे। जिनसे गुरु दत्तात्रेय ने कोई गुरु मंत्र या शिक्षा नहीं ली थी। उनकी गति, प्रकृति, गुणों को स्वयं देखकर या अनुभव करके अपनी दृष्टि और विचारों से शिक्षा पाई थी। उन्होंने अपने आत्म ज्ञान को प्राप्त कर लिया था। इससे ही श्री गुरु दत्तात्रेय जगत गुरु बन गए। गुरु दत्तात्रेय ने जगत को बताया कि मात्र कोई देहधारि मनुष्य या देवता ही गुरु नहीं होता बल्कि पूरे जगत की सभी रचनाओं में गुरु मौजूद है। यहां तक कि हमारे स्वयं के अंदर भी गुरु मौजूद है।

हिंदू समाज में गुरु पूजन का महत्व अनन्य साधारण है। साथ में आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन सनातनी, वैदिक, बुद्ध, जैन गुरुपौर्णिमा मनाते हैं। अपने आध्यात्मिक अथवा भौतिक गुरु का स्मरण करते हैं। भारत की ऐसे अद्भुत परंपरा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उदाहरण भी अद्वितीय और अद्भुत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी ने परम पवित्र भगवा ध्वज को गुरु मानने की प्रथा शुरू की। संघ ने अपनी परंपरा में भगवा ध्वज को अपना गुरु माना है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रथम गुरु पूजन का उत्सव जब मनाया गया तब डॉक्टर हेडगेवार जी ने अपना गुरु भगवा ध्वज है, यह संदेश सभी स्वयंसेवकों को दिया। भगवा ध्वज अपने राष्ट्र का प्रतीक है। भगवा ध्वज अपनी संस्कृति का प्रतीक है। भगवा रंग अपने त्याग, तपस्या और समर्पण का रंग है। डॉ. हेडगेवार जी ने भगवा ध्वज को गुरु कहकर संघ को तत्व पूजक और कार्य पूजक बनाने में सहय्यक भूमिका निभाई है। व्यक्ति पूजक बनाने से सभी स्वयंसेवकों को कोसों दूर रखा है। इसी कारण 1925 में स्थापित हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश कार्य के लिए समर्पित सैकड़ों सहयोगी संगठनों का निर्माण कर पाया। लेकिन संघ के साथ निर्माण हुई अन्य विचारधाराओं के अन्य संगठन आज लुप्त हो गए हैं, ऐसा कहा जाता है। किसी व्यक्ति से नहीं तो भगवा ध्वज से प्रेरणा लेकर कर्तव्य भाव से समर्पित वृत्ति से राष्ट्र निर्माण कार्य में स्वयंसेवक निरंतर काम कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भगवा ध्वज को गुरु मानने की अपनी अद्भुत परंपरा से भारतीय गुरु पूर्णिमा के उत्सव को एकमेवद्वितीय विरासत के रूप में दुनिया को अद्भुत उदहारण दिया है।

आचार्य्यो मृत्यु:। गुरू मृत्यु है। शिष्य जब गुरु के पास आता है तो वह अहंकार से भरा हुआ होता है। गुरु अपने ज्ञान प्रकाश से प्रथम शिष्य के अहंकार की मृत्यु कराता है। उसके बाद शिष्य को आत्मबोध देता है। संत कबीर कहते हैं, गुरु के घर का दरवाजा मुक्त होता है। यानी गुरु कभी शिष्य को बांधकर नहीं रखता। गुरु दयालु है, गुरु एक हाथ से अपने शिष्य के अंदर बैठे हुए अहंकार को मार देता है। एक हाथ से उसके अंदर के अहंकार को, तमोगुण को मिटाता चला जाता है। और दूसरे हाथ से अपने शिष्य का उद्धार करता चला जाता है। जो मिटने को राजी है उसे ही गुरु से प्रकाशमान बनने का सौभाग्य देता है।

वर्तमान में अनुशासन प्रियता, नियम के अनुसार काम, भ्रष्टाचार न करने की वृत्ति, देश प्रेम गुणों को हम अपने आप में अपनाने का प्रयास करें, इन मूलभूत परिवर्तन के साथ हम अपने आप को परावर्तित करने का प्रयास करें। समाज में निर्माण होने वाले प्रलोभन से भरे विभिन्न भावों को हम अपने जीवन से दूर रखने का प्रयास करेंगे, तो ही आज हम अपने अंदर छुपे हुए गुरु को जाग्रत कर सकते हैं। हमारे स्वयं के अंदर भी गुरु मौजूद है। वह जाग्रत मन ही एक सच्चा गुरु ढूंढने में तुम्हें सहायक हो सकता है।
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Comments 1

  1. Anonymous says:
    5 years ago

    बहुत सुंदर

    Reply

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