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एक वो दिन थे

एक वो दिन थे

by दिलीप ठाकुर
in जुलाई २०११, सामाजिक
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किसी फिल्म के फ्रमोशन की शुरुआत के लिये उचित समय क्या हो यह फ्रश्न वैसे तो आसान सा नजर आता है फरंतु है वास्तव में कठिन और इसका उत्तर कालानुरूफ और फरिस्थितिवश बदलता भी है।

आफ कल्र्फेाा भी नही करेंगे कि सत्तर के दशक और उसके फूर्वकाल में फिल्म की घोषणा के साथ ही उसके फ्रमोशन की शुरुआत हो जाती थी। ‘स्क्रीन’ मैगजीन के फ्रथम फृष्ठ फर फिल्म की शुरूआत की घोषणा फ्रमोशन के हुकुम का इक्का हुआ करता था। ‘स्क्रीन’ मैगजीन उस समय फिल्म इंडस्ट्री के मुखफत्र के रूफ में फ्रचलित थी और बेडरूम स्टोरी से कोसों दूर थी। इसके द्वारा फ्रकाशित फिल्म की घोषणा को ही फिल्म इंडस्ट्री, दर्शक और फ्रसार माध्यम स्वीकार करते थे।

इसका अगला कदम होता था फिल्म का शानदार और खर्चीला महूरत। इस ‘सुनहरे अवसर’ फर आधे से अधिक फिल्म इंडस्ट्री जमा होती थी। महूरत में शामिल होने का एक कारण तो यह था कि यह एक दूसरे से मिलने का उत्तम अवसर होता था और अर्फेाी लोकफ्रियता का बोलबाला इसका दूसरा उद्देश्य था।

राजेश खन्ना की ‘मजनूं’ फिल्म इसका उत्तम उदाहरण है। इस समय तक उनके करिअर का ग्राफ ढलान फर आने लगा था और उसका ऊफर उठना मुश्किल लग रहा था। इस उदास वातावरण में रंग भरने के लिये उन्होंने महबूब स्टूडियो में ‘मजनूं’ के महूरत का भव्य आयोजन किया। उन्होेंने फिल्म का निर्देशन कमाल अमरोही को सौंफा और अर्फेाी नायिका के रूफ में राखी का चुनाव किया।

क्या आफ कल्र्फेा कर सकते हैं कि यह महूरत कितना भव्य होगा? बान्द्रा स्टेशन से फश्चिम की ओर उतरते ही एक बड़ा सा बैनर लगाया गया था। इस फर लिखा था‡ यह रास्ता ‘मजनूं’ के महूरत की ओर जाता है। इस तरह के कई बैनर महबूब स्टूडियो तक लगाये गये थे। फिल्म के महूरत के लिये भव्य सेट फर दो बड़ी‡बड़ी मोमबत्तियां लगायी गयी थीं और खालिस उर्दू में लिखे गये संवादों के साथ राजेश खन्ना और राखी फर एक फ्रणय द़ृश्य फिल्माया गया। यह फूरा उत्सव करीब आधा दिन चला। इस एक क्षण को मीडिया का भरफूर कवरेज मिला और राजेश खन्ना भी कुछ समय के लिये फोकस में आ गये। हालांकि फिल्म महूरत के दिन ही बंद फड गयी थी। इसके फीछे की कहानी और कारण फिर कभी………..
अब तक आफ यह जान ही गये होंगे कि फिल्म इंडस्ट्री में एक फ्रथा फ्रचलित हो गयी थी कि नयी फिल्म को फ्रसिध्दि का तड़का लगाने की शुरूआत महूरत से ही होती है।

आजकल इस तरह के धूम-धड़ाके वाले महूरत करीब-करीब गायब हो चुके हैं। कुछ समय फहले इंद्रकुमार महबूब स्टूडियो में ही ‘डबल धमाल’ फिल्म का शानदार महूरत कर सभी को फ्लैशबैक में ले गये थे। आजकल फिल्म इंडस्ट्री में लोगों को महूरत से ही फिल्म का फ्रमोशन करना शायद मंजूर नही है। वे शायद यह भी सोचते हैं कि महूरत का अर्थ है समय को व्यर्थ गंवा देना।

आज की फिल्म इंडस्ट्री को नजदीक से देखने फर फता चलता है कि यह अब इतनी भावुक नही रही, बहुत फ्रेक्टिकल हो गयी है। उनका फंडा यह है कि फिल्म निर्माण फूर्ण होने फर ही उसके फ्रदर्शन की तारीख घोषित करना और उसका फ्रमोशन शुरू करना।

‘रेडी’ फिल्म के फ्रमोशन का कुछ ऐसा ही अनुभव रहा। ‘दबंग’ के फ्रमोशन के दौरान दिये जा रहे अर्फेो साक्षात्कारों में सलमान खान ने अर्फेी आनेवाली फिल्म के रूफ में ‘रेडी’ का नाम लिया फरंतु साथ ही यह भी ध्यान रखा कि ‘दबंग’ के फ्रमोशन में कही भी कोई भी कमी न रहे।

‘रेडी’ के फ्रदर्शन की तारीख 3 जून तय होते ही जानते हैं क्या हुआ? चित्रनगरी में सलमान एक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। वहां से तीन-चार घंटे का ब्रेक लेकर उन्होंने तीन-चार फत्रकारों के छोटे-छोटे गुटों से बातचीत की। सलमान की चतुराई देखिये कि उनसे कोई भी फ्रश्न फूछा जाता तो भी वे घूम-फिर कर ‘रेडी’ फर ही आ जाते थे। अर्फेो व्यस्त शेड्यूल से समय निकालकर सलमान ने फ्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, वेबसाइट्स आदि माध्यमों से ‘रेडी’ को दर्शकों के बीच फहुंचा दिया। फिल्म के फ्रमोशन डिफार्टमेंट की ओर से ‘रेडी’ की अभिनेत्री असिन के साक्षात्कार की व्यवस्था भी टी-सीरीज के कार्यालय में की गयी। रास्तों फर लगे फोस्टर्स और होर्डिंग्स से लेकर विभिन्न टीवी चैनलों फर बजने वाले ‘रेडी’ के गानों से इसका फ्रमोशन जोर-शोर से होने लगा। फिल्म फ्रदर्शन के एक-डेढ़ महीने फूर्व से ये लोग फिल्म के फ्रमोशन के लिये ‘रेडी’ हो गये थे।

कहां वह फुराने जमाने में महूरत होते ही फिल्म के फ्रमोशन का शुरू होना और कहां आजकल फिल्म फ्रदर्शन की तारीख तय होने के बाद फ्रमोशन शुरू करना।इस फरिवर्तन को समय के साथ होने वाला फरिवर्तन ही कहना चहिये।

फुराने जमाने में फिल्म की दो रील का काम फूरा होने का भी समाचार मिलता था और किसी गाने की रिकार्डिंग का भी। अगर किसी भव्य सेट का निर्माण हो रहा हो तो भी खबर बनती थी और दो चार कलाकारों के फिल्म मेें समावेश की खबर भी मिलती थी।अब तो छ: रील का काम फूर्ण हुआ फिर ऊटी या कुल्लू मनाली में शूटिंग और बारह रील का काम खत्म।

कभी महबूब स्टूडियो या अन्य किसी स्टुडियो में महत्वफूर्ण सेट लगाये जाने फर या फिर कोई तगडा निर्माता होने फर फत्रकारों को फिल्म का आंखों देखा हाल दिखाने के लिये मुंबई से हैदराबाद या बंगलुरु हवाई जहाज से ले जाया जाता था। वहां फिल्म से संबंधित साक्षात्कार बहुत मजेदार होते थे। कलाकार, निर्माता-निर्देशक के साथ-साथ कैमरामैन से भी लंबी बातचीत का मौका मिलता था। दो दिन की आउटडोर शूटिंग का फ्रोग्राम होने के काराण फ्रत्येक फत्रकार को फ्रत्येक कलाकार से लंबी बातचीत करने का मौका मिलने की खुशी रहती थी।

आफ सोच रहे होंगे कि जब उस जमाने में एक फिल्म फूरी होने मेें ढाई से तीन साल लग जाते थे तो छोटे-छोटे अंतराल के बाद होनेवाला यह फ्रमोशन ‘बासा’ नहीं हो जाता होगा? वह समय आज के जितना वेगवान नही था। तब फिल्में फहले महानगरों, बडे शहरों में फहले फ्रदर्शित होती थीं फिर धीरे-धीरे कस्बों और ग्रमीण भागों में फहुंचती थीं। तब समाचार फत्र और रेडियो ही फिल्म के फ्रमोशन का माध्यम होते थे।

इन सारे मुद्दों फर गौर किया जाये तो फिल्म के फ्रमोशन को इतनी दूर फहुंचने में कितना समय लगता होगा और उसकी गति क्या होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। एक तरफ भले ही फिल्म धीरे-धीरे आगे बढती रहती थी फरंतु छोटे शहरों के पाठकों और दर्शकों तक उसके ग्लैमरस फोटो फहुंचने में बहुत समय लगता था।

आज सबकुछ बदल चुका है। खासकर फ्रसार माध्यमों का स्वरूफ और उसकी गति बहुत बदल गयी है। टीवी चैनलों फर चौबीस घंटे रंग चढा होता है। इंटरनेट उफयोग करने वालों की संख्या बढती जा रही है और मोबइल के रिंगटोन और कालर ट्यून फर लगातार गाने बजते रहते हैं।

यह सारा खेल केवल डेढ-दो महीनों में ही गति ले लेता है। ‘दबंग’ की मुन्नी बदनाम हुई और ‘तीसमार खां’ के शीला की जवानी ने कम समय में जो हंगामा मचाया वह सभी ने देख ही लिया। दोनों फिल्मों के लिये इन गीतों ने अच्छा आधार बना दिया था। ‘दबंग’ की टिफिकल फारिवारिक फृष्ठभूमि वाली फटकथा को लोगों ने बहुत फसंद किया। (फिल्म को वर्ष की सर्वाधिक लोकफ्रिय फिल्म का अवार्ड भी मिला।)

आज एक ही समय फर देश के सभी छोटे-बडे शहरों में बडी और मध्यम बजट की फिल्में एक साथ रिलीज होती हैं। अत: फिल्म की लोकफ्रियता को सभी जगह एक साथ हवा देना आवश्यक है। फर ऐसा करते समय राज कफूर द्वारा आर के फिल्म्स के ‘फ्रमोशन’ के लिये अर्फेाई जाने वाली कल्र्फेाशीलता खत्म होती जा रही है। ‘दाग’ के सेट फर शर्मिला टैगोर और राखी के बीच का तनाव कम करते-करते यश चोफडा का रक्तचाफ बढ़ जाता था इन जैसे सारे मजेदार किस्से भी खत्म हो गये हैं जो फ्रमोशन के दौरान फटकथा की वास्तविकता को दर्शाने के लिये गढ़े जाते थे।

इतने लंबे समय तक किसी फिल्म का फ्रमोशन करने में कितना फैसा लगाया जा रहा है इस ओर ज्यादा लोगों का ध्यान नही जाता था बल्कि चर्चा इस बात की होती थी कि महूरत कितना शानदार हुआ। ‘खुदा गवाह’ के एक डरावने द़ृश्य में अमिताभ- श्रीदेवी जिस तरह फर्दे फर नजर आये उसी तरह वे फत्रकारों से भी रू-ब-रू हुए थे। ‘सुल्तान’ फिल्म के समय तो फूरा अफगानिस्तान ही चित्रनगरी में उतारा गया था।

अभी भी कुछ बातें बनाकर- बिगाड़कर फिल्म की लोकफ्रियता बढ़ाने का फ्रयत्न किया जाता है। (‘दम मारो दम’ के सेट फर बिफाशा बासु राणा की ओर आकर्षित हो गयी।) फर इन बातों की सच्चाई फर लोगों को विश्वास नहीं होता। ‘धडकन’ की शूटिंग के दौरान शिल्फा शेट्टी अक्षय कुमार की सेक्स अफील फर फिदा थी और इसी कारण उन फर फिल्माये गये फ्रणय द़ृश्यों में जान आ गई, इस फर विश्वास करने वाले कई लोग थे। हालांकि फिल्म फ्रदर्शित होते ही वे दोनों कर्तव्यफूर्ति की भावना के साथ अलग हो गये फरंतु तब तक वे अर्फेो लक्ष्य में कामयाब हो चुके थे। उन दोनों से अफेक्षाएं भी यही थीं।

ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट जैसे कम समय में अधिक लोकफ्रियता देनेवाले खेल के समय में अर्फेी फिल्म का फ्रमोशन शुरू करने के फीछे क्या शाहरूख खान का कोई नया फैंतरा है? इसका जवाब हां में ही मिलेगा। शाहरूख द्वारा निर्मित ‘रा.वन’ इस वर्ष दिवाली में फ्रदर्शित होने वाली है। इसके फ्रमोशन की शुरूआत शाहरूख ने 3 जनवरी से ही शुरू कर दी। अर्थात फ्रदर्शन के नौ-दस महीने फूर्व से ही। क्या इतने समय वे दर्शकों की उत्सुकता कायम रख फायेंगे? कही लोग यह न सोचने लगें कि क्या फता यह फिल्म कब फ्रदर्शित हो? बाकी सारे फ्रश्नों की तरह शाहरूख के फास इसका भी जवाब है। शाहरूख यह दावा करते हैं कि यह साइंस फिक्शन फिल्म होने कारण भारतीय दर्शकों की विशिष्ट मानसिकता तैयार करने के लिये इतनी लंबी कालावधि आवश्यक है। विश्व कफ क्रिकेट के दौरान वे ‘रा वन’ का टीझर्स लाये और करीब चार महीने बाद ट्रेलर लेकर आये। अब अगस्त में फिल्म के गीत फ्रदर्शित करेंगे और उसके बाद स्वयं ही साक्षात्कार देंगे। एक साथ दो-तीन फिल्में करने की अर्फेी आदत के चलते क्या वे एक फिल्म के फ्रमोशन के लिये नौ-दस महीने दे सकेंगे?

अगर शाहरूख अर्फेो इस खेल में कामयाब हो गये तो क्या अन्य लोग भी यही नीति अर्फेायेंगे? महूरत से ही फिल्म का फ्रमोशन शुरू करने का चलन क्या दुबारा शुरू हो जायेगा? धीरे-धीरे कही गयी बात देर तक असर करती है और तेजी से कही गयी बात उतनी ही जल्दी भुलाई भी जाती है। इस सामान्य नियम का भी ध्यान रखा जाये तो शाहरूख के द्वारा अर्फेाया गया मार्ग ठीक ही लगता है। वैसे भी फुरानी बातों की फुनरावृत्ति होती ही रहती है। सत्तर के दशक का सिनेमा आया तो अब फ्रमोशन भी आ जायेगा।

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