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नए कदमों में तेजी लाने की चुनौती

नए कदमों में तेजी लाने की चुनौती

by जगदीश उपासने
in जुलाई -२०१५, राजनीति
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भारत जैसे विविधताओं भरे देश में सरकार चलाना अपने आप में इतनी बड़ी चुनौती है कि केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार की साल-दर-साल की चुनौतियों का विश्लेषण कुछ असंगत-सा है। आदर्श स्थिति यह है कि पांच वर्ष के लिए चुनी गईं सरकारों के कामकाज का लेखाजोखा उनके चुनावी घोषणापत्र के आधार पर पांच साल बाद किया जाए। लेकिन भाजपा की २८२ लोकसभा सीटों के भारी-भरकम जनादेश के साथ नरेंद्र मोदी की अगुआई में केंद्र में आई राजग सरकार के सत्ता में पहले वर्ष के कामकाज की विशेषज्ञों और मीडिया के एक वर्ग ने जिस तरह बाल की खाल निकाली, उससे उन करोड़ों मतदाताओं को जरूर अचंभा हुआ जिन्होंने देश का भाग्य बदलने के लिए मोदी पर भरोसा किया और जिनका विश्वास साल भर में दरकने का अंदेशा इधर-उधर तक नहीं था। केंद्र में सत्तारूढ़ किसी सरकार के पहले वर्ष के हर दिन के कामकाज और कमियों की ऐसी जांच स्वतंत्र भारत में शायद ही किसी और सरकार की गई हो। लेकिन १० वर्ष के यूपीए के कुशासन तथा भ्रष्टाचार के अंधेरे दौर के बाद सुशासन और सबका विकास के नए प्रतिमान कायम करने वाले निर्णयक्षम और समर्थ नेता मोदी को लेकर देशभर में जगी गगनचुंबी उम्मीदोंं को देखते हुए यह उतना अस्वाभाविक भी नहीं, लेकिन अनोखा जरूर था।

मोदी सरकार के साल भर के कामकाज की खुर्दबीन से छानबीन के पीछे एक वजह और थी। गुजरात में मोदी का लगभग १३ वर्ष का मुख्यमंत्रित्व काल जिसे तथाकथित सेक्युलर मीडिया के एक वर्ग, फर्जी एनजीओ और मानवाधिकारवादियों ने दुराग्रहपूर्वक नकारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि मोदी के नेतृत्व में गुजरात की चहुंओर उन्नति और समाज के सुख-सौहार्द के किस्से देश के दूरदराज के हिस्सों में पहुंच गए लेकिन यह वर्ग शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर घुसाए रहा। मई २०१४ में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की ऐतिहासिक विजय के बाद यह शुतुरमुर्गी तबका अपना सिर रेत से बाहर निकालने और हकीकत का सामना करने को विवश हुआ।

मोदी सरकार के वर्ष भर के कामकाज की सख्त पड़ताल के बाद दूसरे साल में उनके लिए उभरने वाली चुनौतियों की बात होनी ही थीं। चुनौतियां किस सरकार के सामने नहीं रहीं? स्वतंत्रता प्राप्ति के ६८ वर्ष बाद भी जहां ३५ से ४५ फीसदी जनसंख्या को घोर गरीबी में जीवन-बसर करना पड़ रहा हो, दो जून खाने, पीने के साफ पानी, इलाज की तुरंत, बेहतर और सस्ती सुविधा, पढ़ने-लिखने, रोजी-रोटी कमाने और सम्मानपूर्वक जीवन बसर करने की आजादी न हो, जहां देश की आधी से भी अधिक आबादी का भरण-पोषण करने वाली खेती-किसानी घाटे और मुफ्त में जान गंवाने का सौदा बन गई हो, करोड़ों शिक्षित युवाओं के लिए रोजगार हासिल करना सबसे बड़ा सिरदर्द हो, उद्योग-धंधों के विकास, निर्माण, औद्योगिक उत्पादन, फायदेमंद निर्यात बढ़ाने तथा महंगाई को काबू में रखने की समस्या हो और पूंजी निवेश के लिए हर दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ रही हो और तिस पर सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से भी जूझना पड़ रहा हो, जहां सरकारी मशीनरी को कार्यक्षम तथा जनता के प्रति जवाबदेह बनाना एक बड़ी समस्या हो वहां चुनौतियों की कोई कमी है भला? मोदी सरकार पर बेसिर-पैर के सवाल उछालने वाले कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को अपनी खुद की पार्टी से ही पूछना चाहिए कि ३०-३५ वर्ष के कांग्रेस के शासन के बावजूद ऐसे हालात क्यों हैं कि मोदी सरकार को देश की परिस्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए जी-जान एक करना पड़ रहा है। कांग्रेस के पिछलग्गू बने विपक्षी दलों, जो कभी न कभी कांग्रेस या भाजपा के साथ केंद्र की सत्ता में रहे, को भी अपने गिरेबां में झंकना चाहिए कि उनका जनवाद-समाजवाद देश की स्थिति बदलने में क्यों नाकाम रहा? और अब भी जिन राज्यों में इन विपक्षी दलों की सरकारें हैं, वहां की जनता त्राहिमाम् करने को क्यों विवश है?

लगभग हर मोर्चे पर मोदी सरकार के निर्णायक कदमों से घबराई कांग्रेस और विपक्षी दलों की गोलबंदी संभवत: मोदी सरकार के लिए आने वाले दिनों में सबसे बड़ी चुनौती साबित होने वाली है। मई २०१४ में लोकसभा चुनाव से शुरू हुआ मोदी की विजय का राजनैतिक अश्वमेध दिल्ली विधान सभा चुनाव को छोडक़र झारखंड, महाराष्ट्र और भाजपा के लिए अब तक अविजित रहे जम्मू-कश्मीर की विधान सभा के चुनाव तक अबाध चला। अब बिहार को जीतने की चुनौती है जहां नीतीश कुमार और चारा घोटाले में सजा मिलने के कारण जनप्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित लालू प्रसाद के साथ कांग्रेस का नितांत अवसरवादी गठबंधन सिर्फ मोदी और भाजपा को रोकने के लिए बिहार में कुख्यात ‘‘जंगल राज’’ का नया संस्करण लाने में भी गुरेज नहीं कर रहा। और यह एकता ऐसी है कि सजा की बदनामी का विष पीने वाले लालू प्रसाद ने ‘‘ज़हर का घूंट’’ पीकर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में कबूल कर लिया! लेकिन जातिगत स्वार्थों और संघर्षों के जंजाल में उलझे बिहार में इस गठबंधन को भाजपा और उसके सहयोगी दल आसानी से खारिज नहीं कर सकते। इस मायने में यह बड़ी चुनौती है।
दरअसल, कांग्रेस और विपक्षी दलों के मौकापरस्त गठजोड़ को प्राणवायु दिल्ली विधान सभा चुनाव में एक नौसिखिया पार्टी से भाजपा की पराजय तथा संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून पेश किए जाने के बाद मिली। अर्थव्यवस्था से लेकर अंतरराष्ट्रीय मोर्चे और प्रशासनिक सुशासन से लेकर देश की सुरक्षा तक मोदी सरकार की धड़ाधड़ कामयाबियों से कांग्रेस और क्षेत्रीय विपक्षी दलों के सामने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने का जो संकट खड़ा हुआ उसने इन सबको ताबड़तोड़ एक कर दिया, भले ही यह ‘एकता’ क्षणभंगुर हो। लेकिन इससे मोदी सरकार की तेजी में बाधा जरूर आई। नतीजतन लोकसभा में बहुमत के बावजूद राजग देश भर में एक जैसे व्यापार-सेवा कर (जीएसटी) की व्यवस्था और विकास की योजनाओं पर अमल के लिए भूमि अधिग्रहण कानून जैसे सुधारवादी कदम लागू नहीं कर सकी। राज्यसभा में अल्पमत को सरकार का हर सुधारवादी कदम रोकने के लिए इस्तेमाल किया गया। मोदी सरकार के सबसे बड़े लक्ष्य ‘सबका साथ, सबका विकास’ के लिए कृषि से लेकर उद्योग तक जिन सुधारों की जरूरत है, उनके विरूद्ध संसद में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और माकपा जैसे धुर विरोधियों ने भी हाथ मिला लिए। यहां तक कि म्यांमार सीमा पर नगा आतंकवादियों के विरूद्ध सेना की अब तक अकल्पनीय, त्वरित और सफल कार्रवाई पर भी कांग्रेस के विरोधी सुर सुनाई दिए। इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसलों पर देश के किसी दल ने सत्तारूढ़ दल की कार्रवाई का विरोध किया हो। इससे पता चलता है कि कांग्रेस और उसके साथ खड़े विपक्षी दल मोदी-विरोध में किस सीमा तक जा सकते हैं। मोदी सरकार को इस चुनौती से पार पाने के लिए बिहार विधान सभा चुनाव में जीत का परचम लहराना संभवत: पहले से अधिक जरूरी हो गया है। बिहार के बाद उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में विधान सभा के चुनाव होने हैं।

शासन के पहले वर्ष में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने, सकल घरेलू उत्पाद की दर चीन से भी अधिक ७.४ प्रतिशत पर पहुंचाने और पूंजी निवेश के सर्वाधिक प्रस्ताव हासिल करने से सिर्फ एक चरण पूरा हुआ है। औद्योगिक उत्पादन तथा कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में मंदी है और निर्यात न्यूनतम स्तर पर है। कंपनियों की बैलेंस-शीट उत्साहजनक नहीं हैं। ३ लाख करोड़ रू. से अधिक के एनपीए (नॉनपरफार्मिंग एसेट, ऐसा कर्ज जिसका मूलधन या ब्याज ९० दिनों तक अदा नहीं किया जाता) के बोझ (इसमें एक-चौथाई कृषि क्षेत्र का कर्ज है) से दबे बैंकों के हाथ ऋण देने के मामले में तंग हैं। बाजारों से रौनक गायब है। गरीब तबके और मध्यम वर्ग को अच्छे दिनों की आस है। नीतिगत निर्णयों में तेजी, नियमों में ढील और योजनाओं को त्वरित मंजूरी के बाद भी भारत उद्योग-धंधे चलाने के लिए सुविधाजनक वातावरण देने वाले देशों की विश्व बैंक की सूची में १४२वें नंबर पर है। राज्यों का प्रशासन ढिलाई, लालफीताशाही, गैरजवाबदारी और भ्रष्टाचार से ग्रस्त है। भारत तभी विकास कर सकता है जब उसके राज्य विकास करें। २०२२ तक सभी भारतीयों के सिर पर छत, बिजली, पीने का साफ पानी, शौचालय, स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा और काम-धंधा करने का हुनर (स्किल डेवलपमेंट) सिखाने तथा १० करोड़ नौकरियों के सृजन का लक्ष्य प्राप्त करने के अभियान की शुरूआत मोदी चाहें तो भाजपा-शासित ११ राज्यों से कर सकते हैं। वे केंद्र सरकार की तरह हर राज्य में स्वच्छ, पारदर्शी, ईमानदार, कार्यक्षम और जनता के प्रति जवाबदेही वाला प्रशासन लाने की गारंटी भी भाजपा-शासित राज्यों में ले सकते हैं। ‘मेक इन इंडिया’ वैश्विक स्तर पर मात्र १७ फीसदी हिस्सेदारी वाले भारत को चीन से आगे ले जा सकता है। भारत में ८४ प्रतिशत औद्योगिक रोजगार सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों में है। इनके लिए पूंजी की उपलब्धता, स्किल डेवलपमेंट और श्रम कानूनों को कामगारों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा की गारंटी के साथ लचीला बनाने की जरूरत है।

देश के चौतरफा विकास के लिए व्यवसाय-उद्योग से भी संभवत: अधिक जरूरी खेती है जिसमें देश की ४९ प्रतिशत श्रमशक्ति लगी है लेकिन पिछले साल जिसकी विकास दर मात्र ०.२ प्रतिशत रही है और जिसमें बड़े पैमाने पर आंशिक बेरोजगारी है। सिंचाई का हाल यह है कि इस पर अब तक कई लाख करोड़ रूपए खर्च करने के बावजूद ५० प्रतिशत खेती वर्षा पर निर्भर है। सिंचाई के भूमिगत जल में ऐसी कमी हो गई है कि कभी देश का ‘अन्नदाता’ रहे पंजाब को हाथ में कटोरा लेना पड़ सकता है। फसल बीमा तकलीफ में पड़े किसानों के लिए संजीवनी हो सकती है लेकिन यह निकम्मेपन, लापरवाही और भ्रष्टाचार से ग्रसित है। अगर किसान को बचाना है और खेती की पैदावार बढ़ानी है, जो औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने तथा बुनियादी ढांचे के विकास जितना ही अहम लक्ष्य है, तो मोदी सरकार को कृषि क्षेत्र के चौतरफा विकास पर तुरंत ध्यान देना होगा। खेती की उपज की किसानों को योग्य कीमत दिलाने और खाद्यान्न महंगाई नियंत्रण में रखने के लिए राष्ट्रीय उत्पाद मंडी बनाने के विशषज्ञों के सुझाव गौर करने लायक हैं। खाद्यान्न और खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी, जिसे विशेषज्ञ २,००,००० करोड़ रू. प्रति वर्ष बताते हैं, का बड़ा हिस्सा निजी जेबों में जाने से रोकने के लिए सीधे सभी लाभार्थियों के बैंक खातों में भेजने की जिस योजना पर मोदी सरकार काम कर रही है, उस पर इस साल अमल जरूरी है।

मोदी सरकार ने पहले ही वर्ष में इतनी अधिक योजनाओं और अभियानों की शुरूआत की है, जितनी अब तक किसी सरकार ने नहीं की। केंद्र और राज्यों के सहयोग-समन्वय के लिए नीति-निर्णायक ‘टीम इंडिया‘, ‘मेक इन इंडिया’,‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्किल डेवलपमेंट’, ‘स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट’, ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता, नई शिक्षा नीति, स्वच्छता अभियान, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जनधन, पेंशन, बीमा योजनाएं, गंगा की सफाई, औद्योगिक गलियारे, राजमार्ग, जलमार्गों के विकास के लिए सागरमाला, अंतरराष्ट्रीय जगत में अमेरिका, यूरोपीय देशों, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया से संबंधों के नए आयाम के साथ ही ‘एक्ट ईस्ट‘ जैसी नई दृष्टि, रक्षा उत्पादन और राष्ट्रीय सुरक्षा पर अकल्पनीय सक्रियता और गरीबों-वंचितों के लिए सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं। इनमें शिक्षा ऐसा क्षेत्र है जिसमें आधारभूत ढांचा तथा गुणवत्ता को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने के लिए उद्योग तथा कृषि की ही तरह सर्वाधिक ध्यान देने की जरूरत है। यह मेक इन इंडिया, स्किल डेवलपमेंट, डिजिटल इंडिया से भी जुड़ा हुआ है। अपने शासन के दूसरे वर्ष में मोदी सरकार के सामने इन सभी में लक्ष्य प्राप्त करने का स्पष्ट और ठोस कार्यक्रम तैयार करके उस पर गंभीरता से अमल करने की चुनौती होगी।

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