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बिहार चुनाव प्रादेशिक नहीं, राष्ट्रीय!

बिहार चुनाव प्रादेशिक नहीं, राष्ट्रीय!

by अमोल पेडणेकर
in जुलाई -२०१५, राजनीति
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राजनीति और खेती बिहार की सांस है। बिहार की सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था इन दो बातों में उलझी हुई है। शिक्षा, नौकरी, उद्योग की अपेक्षा सामाजिक व राजनीतिक प्रतिष्ठा बड़ी है। यह प्रतिष्ठा गिनी जाती है “बीघा” इन दो अक्षरों में! “बीघा” जितना बड़ा, उतना सामर्थ्य का नापजोख बड़ा! गंगा का पानी व उर्वरा भूमि होने के बावजूद स्वतंत्रता के बाद से अब तक के काल में बिहार में कृषि क्षेत्र का रकबा नहीं बढ़ा; लेकिन बिहार की अनुभूति मात्र बड़े पैमाने पर विस्तारित हुई। दिल्ली की सत्ता को १९७४ में बिहार के जयप्रकाश नारायण ने ही चुनौती देने वाला रणशिंग फूंका था। बिहार भारतीय राजनीति की प्रयोग भूमि मानी जाती है। इस प्रयोग भूमि में जो साबित होता है उससे ही बाद में राष्ट्रीय मानदण्ड स्थापित होते हैं। महात्मा गांधी का चम्पारण सत्याग्रह इसी बिहार में हुआ। दूसरा स्वतंत्रता संग्राम अर्थात आपातकाल विरोधी संघर्ष करने वाले जयप्रकाश नारायण इसी राज्य के हैं। ऐसे बिहार राज्य में आगामी सितम्बर-अक्टूबर में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं। चुनाव आयोग ने हाल में यह संकेत दिया है।

बिहार राज्य के कर्पूरी ठाकुर, मिश्रा बंधु के हाथ से सत्ता की डोर बाद में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव के हाथ आ गई। यह डंका पीटा गया कि लालू प्रसाद यादव आदि लोग दलितों के उद्धारकर्ता, प्रगतिवादी हैं। बिहार में पूर्व की राजनीति में उच्च वर्णियों ने बिहार को लूटा, इसके बाद ये लोग सत्तासीन हुए। फिर भी, बिहार की लूट नहीं थमी। लालू ने अपने कार्यकाल में अपराधियों को पनाह ही नहीं दी, बल्कि उन्हें राज्य में ऊधम मचाने की छूट दे दी। लालू के राज्य में बिहार में विकास दरकिनार हो गया। लेकिन ये दिन पलट रहे थे। अनेक वर्षों के बाद बिहार की स्थिति में सुधार का चित्र दिखाई दे रहा था। २००५ में नीतिश कुमार मुख्यमंत्री बने व उनके नेतृत्व में बिहार का विकास हुआ। आधारभूत सुविधाएं निर्माण हुईं। बिहार में गुंडागर्दी, अपराधी प्रवृत्तियों के लोगों की राजनीति रोकी जा रही थी। २०१० के विधान सभा चुनाव में नितीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन कर लालू प्रसाद-कांग्रेस का सफाया कर दिया। बिहार की २४३ सीटों में से नितीश कुमार की पार्टी को ११४ सीटें मिलीं, जबकि भाजपा को ९१ सीटें मिलीं। अर्थात इस गठबंधन को २४३ में से २०५ सीटें मिली थीं। लालू प्रसाद यादव को राष्ट्रीय जनता दल केवल २२ सीटें ही प्राप्त कर सका। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति पर नजर रखने वाले नितीश कुमार में अहंकार जागा। भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में तय करते ही नितीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़ा। मोदी प्रधान मंत्री बनने के बाद राजशिष्टाचार का पालन करने के लिए मुख्यमंत्री के रूप में प्रधान मंत्री मोदी के स्वागत के लिए जाना ही होगा यह जानकर नितीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया। जीतनराम मांझाी नामक दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाया। स्पष्ट होता है कि राजनीति में इस तरह के दांव आत्मघाती साबित होते हैं।

२०१४ के लोकसभा चुनाव जीतनराम मांझाी के नेतृत्व में लड़े गए और जदयू को मार पड़ी। पार्टी को केवल दो ही सीटें मिलीं। इसमें भाजपा ने ४० में से ३१ सीटें प्राप्त कीं। भाजपा के सहयोगी दल रामविलास पासवान के लोजपा को छह सीटें मिलीं। कांग्रेस को केवल दो सीटों पर संतोष करना पड़ा। कुल मिलाकर नितीश कुमार की अहंकारी वृत्ति व दुविधा को बिहार की जनता ने कचरे की टोंकनी दिखा दी। इसी बीच बिहार विधान सभा चुनाव के नगाड़ें भी बजने लगे। चुनाव के पूर्व सत्ता हाथ में होने के लिए मांझी को हटाने का विचार नितीश कुमार ने किया। राजनीति में यह एक प्रकार की धोखाधड़ी ही है। क्या आगामी विधान सभा चुनाव ही इस धोखाधड़ी का माकूल जवाब देंगे?

जनता परिवार संघटन की प्रबल चिंता

बिहार में हो रहे विधान सभा चुनाव में सभी दल अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सब कुछ दॉंव पर लगाने के लिए तत्पर हैंं। दिल्ली की पराजय के कारण बिहार के चुनाव भाजपा के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण बन गए हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिले भरपूर यश के कारण जमीन पर उतरे लालू प्रसाद यादव व नितीश कुमार ने भाजपा को विधान सभा चुनाव में सफलता न मिले इसलिए एक होने का निश्चय किया है। इसके साथ ही जनता परिवार के नाम से छह दलों का विलीनीकरण हुआ। इस परिवार के नेताओं के बीच अहंकार, उनकी महत्त्वाकांक्षाएं देखें तो ये दल एकत्रित हो तो गए, केवल टूटने के लिए ही, यह जो चित्र निर्माण हुआ था उसमें तथ्य है यह अब कुछ मात्रा में अनुभव होने लगा है। जनता परिवार में छह दल हैं। इन छह दलों के झण्डे, चिह्न अलग-अलग हैं। विलीनीकरण का निर्णय करने के पूर्व एकीकृत दल का झण्डा कौनसा हो, यह तय नहीं हुआ। अब इसी मुद्दे पर बिहार विधान सभा चुनाव के पूर्व विलीनीकरण असंभव बताया जा रहा है। इन छह दलों के नेताओं को लोहियावादी समाजवाद आदि की चिंता नहीं है। नरेंद्र मोदी व उनकी राजनीति से अपना अस्तित्व बचाना, यही उनकी प्रबल चिंता है।

भाजपा के सामने की चुनौतियां

बिहार विधान सभा चुनाव ध्यान में रख कर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने छह माह पूर्व से ही अपने दल का प्रचार अभियान आरंभ किया है। लोकसभा में मोदी ने बिहार में भारी विजय दर्ज की थी, लेकिन मोदी का चेहरा व लोकप्रियता की लहर पर सवार भाजपा को नौसिखिए केजरीवाल की पार्टी ने धूल चटा दी। इसलिए आगामी बिहार विधान सभा चुनाव भाजपा व मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होंगे। भाजपा की संगठनात्मक शक्ति बेहतरीन है। वहां भाजपा के सदस्य पंजीयन में ९३ लाख से अधिक के नाम दर्ज हैं। फिर भी पार्टी का नेतृत्व कर सके ऐसा कोई भी प्रभावशाली नेता भाजपा के पास नहीं है। बिहार में लालू प्रसाद यादव व नितीश कुमार ये दो बलवान चेहरे विरोध में हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में नितीश, लालू व कांग्रेस में वोटों के विभाजन से भाजपा की विजय आसान हुई थी। अब यदि ये लोग एकत्र हुए तो क्या चित्र अलग होगा?

जनशक्ति दल के नेता रामविलास पासवान ने १०० सीटें लड़ने की इच्छा व्यक्त की है। इतनी सीटें भाजपा उन्हें नहीं देगी। ऐसी स्थिति में उनकी निश्चित भूमिका क्या होगी, यह भी भाजपा के लिए महत्त्वपूर्ण है। दलित समाज के वोट जीतनराम मांझी के कारण एकगट्ठा होंगे। रामविलास पासवान भाजपा के साथ है। जीतनराम मांझी भी भाजपा के साथ रहे तो “महादलित” समाज साथ देगा व उसका लाभ भाजपा को होगा।

बिहार के चुनाव भारत की दीर्घकालीन राजनीति को मोड़ देने वाले होंगे। भाजपा के लिए यह चुनाव और एक राज्य जीतने तक सीमित नहीं है। बिहार की सफलता पर अगली बड़ी लड़ाइयां निर्भर हैं। बिहार में आरंभ चुनावी मौसम तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश तक पहुंचने वाला है। यहां लोकसभा में मिली सफलता कायम रखने कोे प्राथमिकता होगी। इसके साथ ही दिल्ली की पराजय से उबरने के लिए बिहार में नेत्रदीपक विजय हासिल करनी होगी। इसी कारण बिहार के चुनाव महज प्रादेशिक नहीं हैं, उनका स्वरूप राष्ट्रीय है।

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