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आई लव यू विज्ञापन

आई लव यू विज्ञापन

by अमोल पेडणेकर
in अगस्त -२०११, आर्थिक, सामाजिक
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प्रचार के पीछे भागना अच्छा नहीं माना जाता। आप अपने गुणों का खुद ही प्रचार करते फिरे इसकी अपेक्षा दूसरे आपके गुणों की तारीफ करें यह अच्छा माना जाता है। परंतु, आज की इस स्पर्धात्मक दुनिया का कायदा ही कुछ अलग है। प्रचार पाने में विफल होने का मतलब है खुद को सफलता की राह से दूर रखना। यह बयान वैश्वीकरण के इस दौर में अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए। दुनिया बदल रही है और उसीके साथ सफलता-असफलता के पैमाने भी बदल रहे हैं। व्यवसाय इस बदलते माहौल का एक प्रमुख अंग बन गया है। गलाकाट स्पर्धा में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ता है। विज्ञापन की अहमियत यहीं रेखांकित होती है। कारोबार के विकास के लिए विज्ञापन एक अनिवार्य आवश्यकता है। विज्ञापन खर्चीला होने पर भी उसके परिणाम सकारात्मक होते हैं। विज्ञापन की दुनिया में बढ़ती स्पर्द्धा से बात साबित होती है।

सूचना एवं प्रसारण के क्षेत्र का क्षेत्र निरंतर विकास हो रहा है। अत्याधुनिक सुविधाएं उपलब्ध हो रही हैं। किसी चीज को लोकप्रिय बनाना और उसे लोकप्रियता की चोटी तक ले जाकर स्थापित करना विज्ञापन का मकसद है। चाहे कोई उत्पाद हो, सेवा हो, संस्था-संगठन हो या कोई व्यक्ति विशेष हो सब के लिए यह बात लागू होती है। यहीं विज्ञापन का एवं विज्ञापन विधा का अपना कार्य संपन्न होता है। कुछ दशकों पहले इकलौते टीवी चैनल पर संतोष मानने वाले अपने देश में, आज सैकड़ों चैनल, मल्टीप्लेक्स सिनेमागृह, अखबार, साप्ताहिक-मासिक पत्रिकाओं और इन सभी के साथ आ पहुंचे करोड़ों संकेतस्थल आदि सभी प्रसार माध्यमों के जरिए विज्ञापन अपनी आंखों में, कानों में, मन में घुसकर वहीं बने रहने का प्रयास करते हैं। रेडियो, होर्डिंग्ज, पोस्टर्स, दुकाने, हॉटमेल से लेकर फेसबुक तक किसी माध्यम से छलांग लगाकर विज्ञापन हम पर कब काबू पा लेंगे इसका तो कई भरोसा नहीं है।

असल में विज्ञापन की ओर ‘लोकल को ग्लोबल’ से जोड़ने वाली मजबूत कड़ी के रूप में ही देखना उचित होगा। दुनिया के विभिन्न राष्ट्रों को जोड़ने का काम ‘संयुक्त राष्ट्र संगठन’ कहां तक कर पाया है यह कहना मुश्किल है, लेकिन इसमें कई संदेह नहीं कि विज्ञान- प्रोद्यौगिकी, संपर्क माध्यमों और मानव की जिज्ञासा-कौतूहल आदि सभी पर सवार हुए विज्ञापन वह काम करते हैं।

इक्का-दुक्का अभिनेता-अभिनेत्रियों का अभिनय, मात्र दो-तीन मिनट के लिए गूंथी हुई पटकथाएं, छाया-चित्रण का कौशल विज्ञापन को लाजवाब कला के रूप में पेश कर देता है।

विज्ञापन का स्वरूप भी बदला है। अभी हाल में बड़े-बड़े सिर, बड़ी तोंद, पतली छड़ी जैसे हाथ-पांव, गुडगुड बोली, लेकिन बढ़िया भाव-मुद्रा तथा देहबोली होने वाली शुभ्र-सफेद गुड़ियां पर्दे पर आ रही हैं और हंसते-हंसाते एक अनोखा आनंद बिखेर जाती हैं। उस आनंद भरे माहौल में ही वे अपने उत्पाद का संदेश भी पहुंचाती चलती हैं।

दूसरा विज्ञापन देखिए वोडाफोन का। एक छोटी-सी लड़की, उसका पाला हुआ कुत्ता। यह कुत्ता हर जगह उसके साथ रहता है। किसी अभिभावक के समान उसकी देखभाल करता है। स्कूल जाते समय लड़की अपनी टाई भूलकर घर में ही छोड़ जाती है। कुत्ता काफी बेचैन है। वह लड़की के बस के पीछे दौड़ता जाता है। लड़की तालाब में तैर रही है, कुत्ता उसका तौलिया मुंह में पकड़ कर उसके पास आता है। वह तैरते हुए जिस ओर भी जाती है, वहां वह तौलिया लेकर पहुंचता है। यह सब कुछ देखते हुए दर्शक गदगद होते रहते हैं। उसी क्षण ‘वांट टू हेल्प यू एव्री व्हेयर’ उभरता है और वोडाफोन का सिम्बल उभरता है। इस तरह विज्ञापन कमाल कर देता है, लोगों के दिलोदिमाग पर छा जाता है।

इस विज्ञापन में कोई बातचीत नहीं, वार्तालाप नहीं, लेकिन जिंगल और वार्तालाप की भरमार होनेवाले विज्ञापन की अपेक्षा यह विज्ञापन कई गुना बेहतर लगता है। यह विज्ञापन परिवार के सभी सदस्यों को आकर्षित करने में सफल हुआ।

आपको याद होगा एचडीएफसी का विज्ञापन। वयस्क पति-पत्नी संपन्न हैं। घर में नौकरानी काम कर रही है। उसे देख पत्नी से कहता है, ‘‘यही सारा काम अगर तुम खुद करती, तो तुम्हारी यह बढ़ी हुई तोंद घटती।’’ पत्नी उसे नकारते हुए गर्दन हिलाती है। इसके बाद रसोई घर का नजारा सामने आता है। रसोइया खाना बनाते दिखायी देता है। पति पत्नी से कहता है, ‘‘तुम अगर खाना पकाती, तो जैसा भी हो मैं जरूर खाता।’’ आगे चलकर वह बुजुर्ग पति पत्नी का हाथ थाम कर कहता है, ‘‘जन्म-जन्मांतर के लिए मैंने यह हाथ अपने लिए मांग लिया है।’’ पत्नी पूछती है, ‘‘किसलिए? काम करने के लिए?’’

फिर वह जोश में आकर कहता हैं, ‘‘नहीं।’’ ऐसा कहते हुए वह हवाई जहाज के दो टिकट पत्नी को सौंपते हुए कहता है, ‘‘तुम्हें सिंगापुर घुमाने के लिए।’’ इस पर पत्नी का चेहरा खिल उठता है। पति उसको प्यारभरी नजरों से निहारता है। वह क्षण बहुत ही सुंदर लगता है। कुछ साल पहले ‘पान पसंद’ के कुछ विज्ञापन प्रसारित हुए थे। लोग आज भी उसे हसरत से याद करते हैं। एक विज्ञापन में तो केवल, ‘‘शादी और तुमसे? कभी नहा!’’ मात्र इतना ही संवाद था। ‘पान पसंद’ खाने से पहले नाराजगी जताते और खाने के बाद प्यार से मिल जाते। जादुई कल्पना, पात्रों का सशक्त अभिनय तथा पर्दे पर प्रकट दृश्यों की प्रभावशाली ताकत, सभी कुछ रोमांचक बन गया।

तभी तो मुश्किल से एक दशक पहले ‘‘आई लव यू रसना’’ जैसी एक पंक्ति के प्यारे से संवाद वाले विज्ञापन से लेकर कल्पनाशील फेवीकोल के विज्ञापन, हमारी यादों के हिस्से बन गये हैं। इनसे हमारा मानो एक अटूट रिश्ता कायम हो गया है।

जीवन में काम आने वाली हर चीज आज विज्ञापन की चीज बन गयी है और हमें इन विज्ञापनों के जरिए लुभाया जा रहा है। मानो ये हमारे जीवन के आइने हैं। ये विज्ञापन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जीवन के हर पहलू को प्रतिबिंबित करते लगते हैं। दिल्ली जैसे महानगर में विशेष रूप से तीन तरह के आउटडोर विज्ञापन देखने को मिलते हैं: राजनीतिक दलों के विज्ञापन, मोबाइल कंपनियों के विज्ञापन और अखबारों से जुड़े विज्ञाप्। जहां तक मुंबई की बात है तो यहां पर टीवी सीरियलों, अखबारों, मोबाइलों और रीयल इस्टेट के विज्ञापनों की भरमार है। अगर गांव-देश की बात करूं तो वहां पर राजनीतिक और जाति-ज्ञाति संस्थागत विज्ञापन देखने को मिलते हैं।

विज्ञापन बाजार के विशेषज्ञों के अनुसार इनसान के सुप्त मन को जागृत करने के लिए विज्ञापन सबसे ज्यादा कारगर साबित होते हैं। किसी सार्वजनिक स्थल पर हमारे पास से कई महिलाएं गुजरती हैं। इनमें से किसी के लिबास पर छिड़के परफ्यूम से हम बेचैन हो उठते हैं। हम ही क्यों, और भी लोग बेचैन होते हैं। कोई उस सुगंध का मानो आशिक ही बन जाता है, छटपटाता है, उस सुगंध का पीछा करता है। आखिर जाकर उस सुगंध पर, उस महिला के साथ कब्जा तक कर लेता है। आपके दिल में उठनेवाले अनजान बवंडर का विज्ञापन हेतु मार्मिकता से उपयोग किया जाता है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन ये खासियतें अगर आदमी को आदमियत का लिहाज कराती होंगी, तो उनकी चुनौती ही विज्ञापन के रूप में पेश होनी चाहिए। आपको यह महसूस होगा कि 90 प्रतिशत विज्ञापन इसी तथ्य पर आधरित होते हैं। आपको क्या खाना चाहिए, क्या पीना चाहिए, क्या करने से आपकी रसना को- मन को – शरीर को सुख-संतोष प्राप्त होगा, जवानी बनी रहेगी, कैसा बरतने से आप आराम की नींद सो सकेंगे तथा क्या-क्या करने से आप दिल से जैसा चाहते, वैसी साथ-संगत मिलेगी, ये ही हैं वे सारी बातें, जिनका उपयोग-प्रयोग विज्ञापनों के दौरान किया जाता है।

प्रस्तुत हो रहे विज्ञापन और उन्हें देखने-पढ़ने वाले लोगों के बीच विवाद भी कभी समाप्त न होनेवाला विवाद है। संवेदनशाल दर्शक एवं विभिन्न सामाजिक समस्याओं को लेकर कार्य करनेवाले कार्यकर्ता चाहते हैं कि चूंकि विज्ञापनों का समाज पर गहरा असर होता है, इसलिए विज्ञापन बड़ी जिम्मेदारी के साथ काफी सोच-विचार कर बनाये जाने चाहिए। लेकिन विज्ञापन क्षेत्र में काम करनेवालों का दावा होता है कि ऐसे विज्ञापन कोई देखना नहीं चाहते। वे कहते हैं कि हम विज्ञापन को ‘विज्ञापन’ के रूप में ही देखते हैं और समाज में जो कुछ होेता है, उसीका विज्ञापन में आधार लेते हैं।
असली बात यह है कि विज्ञापनों में ‘सच बोलना’ अपवाद ही माना जाएगा। ग्राहकों को बहकाना विज्ञापन बनानेवालों का रिवाज है। विज्ञापनों के माध्यम से बनावटी-अल्पजीवी चीजें ही आकर्षक ढंग से पेश होकर ग्राहकों को बहकाती हैं। उत्पाद में न होनेवाली खासियतें भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश की जाती हैं तथा खामियों को काफी होशियारी से छिपाया जाता है।

अभी हाल में छोटे बच्चों के लिए पौष्टिक आहार का उत्पाद करनेवाली एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने विज्ञापन किया कि उनका उत्पाद दूध में घोलकर पीने से बच्चों की लंबाई बढ़ती है और उनकी बौद्धिक क्षमता में भी वृद्धि होती है। टीवी चैनलों पर लगातार प्रसारित किया जाता रहा। यही विज्ञापन उसी अवधि में इंग्लैंड में भी प्रसारित हुआ। तब वहां की सरकार ने उत्पाद की जांच की और पाया कि विज्ञापन में किए गए दावे में तनिक भी तथ्य नहीं है। इंग्लैंड की सरकार ने उस कंपनी पर जुर्माना किया और विज्ञापन प्रसारण रोकने का आदेश दिया।

‘‘ये सुहाना मौसम, ये खुला आसमां, खो गए हम यहां …’’ टीवी पर प्रसारित एक दृश्य में सड़क के किनारे की नाली में से गुनगुनाती दर्द भरी आवाज से हमारा कौतुहल बढ़ता है। उसी दौरान उस नाली में ऐसा गुनगुनाते आखिर बैठा कौन है, यह देखने, उस नाली के पास से गुजरनेवाला एक राहगीर अंदर झांकता है। इतनी गंदगी में उस नाली में बैठा वह आदमी ऐसी मस्ती में गा भी कैसे सकता है, इससे कोई भी अचंभित होगा ही। उसी क्षण टीवी के पर्दे पर एफएम रेडियो का नाम झलकता है और तुरंत उस विज्ञापन का इरादा खुल जाता है।

दूसरे एक विज्ञापन में किसी नदी के किनारे मछली पकड़ने के लिए पानी में कांटा छोड़ घंटों बैठा हुआ एक आदमी है, जो एक भी मछली पकड़ न पाया है। उसी समय एक आदमी दौड़ता-हांफता वहीं पहुंचता है। वह अपनी कांटे की डंडी में फेवीकोल की चार बूंदें लगाता है। डंडी पानी में छोड़ते ही झट चार मछलियां उसे चिपककर बाहर निकलती हैं। कुछ भी हो, पर उस आदमी की मछली पकड़ने की वह कल्पना सभी को काफी पसंद आती है।

फिर भी कभी-कभी काफी कुछ सोचने का प्रयास करते हुए भी किसी एक विज्ञापन का और उत्पाद का आपस में कौन-सा रिश्ता है, इसे समझ पाना मुश्किल होता है। कभी-कभी इसी वजह से ऐसा कोई विज्ञापन भुलाये नहीं भूल सकते। ऐसे ही िर्िंदमाग में बैठा एक विज्ञापन याद है – ‘ये तो बड़ा टॉइंग है।’

विज्ञापन को लेकर ऐसी बहुत सारी कल्पनाएं आम तौर पर देखने पर अत्युक्तिपूर्ण और गैरवाजिब भी लगती हैं। फिर भी उन्हें दर्शकों के समक्ष पेश करते समय काफी कुछ सोचा हुआ होता है। संभाव्य ग्राहक, उस ग्राहक वर्ग की मानसिकता, उसकी पसंदगी-नापसंदगी, उनके चारों ओर आज चल रहे तरीके आदि सभी बातें विज्ञापन बनाते समय बड़ी काम की होती हैं। उनमें से कोई एक कल्पना किसी दूसरे ग्राहक की नजरों में चाहे गैरवाजिब क्यों न हो, उसकी उस धारणा का उत्पाद के बेचे-खरीदे जाने पर कोई असर नहीं होता। उत्पाद का जो भी ग्राहक हो, उसे ‘कैच’ करना ही जरूरी होता है। विज्ञापन में धोखा-भुलावा कहीं न हो तथा उसमें सबसे बढ़िया उत्पाद एवं सेवा का ही प्रगटीकरण हो, ऐसी समाज भी आशा नहीं करता।

आर्थिक उदारीकरण के उपरांत भारत में उद्योग एवं व्यवसाय की दृष्टि से बहुत सारे अवसर उभर आये। लगभग दो दशकों की इस कालावधि में ही भारत ग्लोबल बन गया। ग्राहक बहुत बड़ी संख्या में बढ़े और उससे लाभ उठाने के इरादे से बाजार में एक प्रकार की होड़ ही शुरू हुई। इस ग्राहक वर्ग को अपनी ओर खींचने के लिए साधारण ग्राहक भी समझ सके और उसके मन पर प्रभाव डाल सके ऐसी भाषा में विज्ञापन प्रसारित होने लगे। एक नयी बोली, जो किताबी न होकर आमफहम बोली हो, विज्ञापन द्वारा उत्पाद की गरिमा गाने के लिए इस्तेमाल होने लगी-

1) आयोडेक्स मलिए काम पे चलिए।
2) विक्स की गोली लो, खिचखिच दूर करो।
3) दूध-सी सफेदी, निरमा से आये।
4) जो बीवी से करे प्यार, वो प्रेस्टिज से कैसे करे इनकार?

ये सभी विज्ञापन बड़ी ही सहज-सुलभ भाषा में बने हैं, फिर भी बदलते जमाने के नये विचारों के प्रतीक हैं।

‘मिले सुर मेरा तुम्हारा!’
‘ठंडा मतलब कोका कोला’
‘ये दिल मांगे मोर’
‘फेवीकोल का जोड़ टूटेगा नहीं ’
‘कर लो दुनिया मुट्ठी में

ये सभी विज्ञापन भाषा की सम्प्रेषण क्षमता साबित करते हैं।
विज्ञापन के नकरात्मक पहलू के बावजूद समाज को सजग एवं जाग्रत बनाने में विज्ञापनों का योगदान गौर करने लायक है। आम चुनावों के दौरान प्रसारित ‘टाटा टी’ के विज्ञापन में एक युवक कहता है, ‘चुनाव के दिन आपने अगर मतदान नहीं किया, तो साफ है कि आप सोये ही हैं।’’ साथ में पंचलाइन आती है, ‘जागो इंडिया जागो।’’

केंद्र सरकार द्वारा लोकहित में प्रसारित किये जा रहे विज्ञापनों के माध्यम से आज समाज प्रबोधन बड़े पैमाने पर हो रहा है। महिलाओं को शिक्षित किया जा रहा है। एड्स के बारे में गलतफहमियों को हटाया जा रहा है। देश को बड़े पैमाने पर पोलियोमुक्त कराने में अमिताभ बच्चन के विज्ञापन का काफी बड़ा योगदान है।

‘इनक्रेडिबल इंडिया’ के विज्ञापनों में पेश विभिन्न दृश्य दर्शकों को सोचने पर मजबूर करनेवाले हैं। कहीं भी और किसी की परवाह न करते हुए पान की गाढ़ी लाल पीक थूक देना, कहीं कुछ न देखते बस से बाहर फेंका केले का छिलका, पेशाब करने कहीं भी खड़े किये हुए छोटे बच्चे आदि चारों ओर दिखायी देनवाली अपने भारत की प्रतिमा विदेशी पर्यटकों के समक्ष दांव पर लगती देखकर मन में उदासी छाती है।

भारत के अधिक से अधिक लोगों का अल्पावधि में प्रबोधन होना और वह कुछ प्रभावकारी ढंग से होना, यह कुछ कठिन नहीं है। उसका उपयोग विधायक एवं विघातक-दोनों प्रकार से किया जा सकता है। हम उसका प्रयोग किस ढंग से करें, इसका भान समाज में हरेक को होना चाहिए। तब जाकर विज्ञापनों के अच्छे-बुरे होने के बारे में हम सोचते हैं, तब ‘दाग अच्छे होते हैं’ जैसा ही कोई जिंगल दिल के पर्दे पर गेंज उठता है- ‘ऐड अच्छे होते हैं।’

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