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मानसून का आ जाना कोरोना में..

मानसून का आ जाना कोरोना में..

by मुकेश जोशी
in जुलाई - सप्ताह तिसरा, साहित्य
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“घर ही नहीं बाहर भी ये मौसम और ये दूरी सभी को अखर रही है.. कि कब कोरोना का सत्यानास जाए और पहले की तरह हम खूब खाए पियें और हुलसकर अपनों से गले मिलें, जिससे बारिश की बूंदों में प्रेम की फुहार मिलकर बरसे…”

ट्वेन्टी ट्वेन्टी की शुरुआत में ही ’कालजयी कोरोना महाराज’ के दुआगमन की सरसराहट सुनाई देने लगी थी। सब पहले तो सहमे सहमे से डरे डरे से थे चीन-अमेरिका में कोरोना के किस्से पढ़ सुनकर। फिर फरवरी में वेलेंटाइन डे के प्रेम कारोबार के साथ दूर दूर रहने का संदेश लेकर कोरोना जी ने भी दबे पांव दस्तक दे दी हमारे यहां। फिर जमात वालों की मदद से यह चीनी वायरस हमारे यहां चमक-दमक कर अंगद की तरह पांव जमाकर बैठ गया और अब निकलने का नाम ही नहीं ले रहा।

यह चीनी कीड़ा जब हमें काटा तब गर्मियां शुरू होने को थीं। मौसम विज्ञानी, बड़े बड़े क्लिनिक और नर्सिंग होम चलाने वाले डॉक्टरों से लेकर गली मुहल्ले के पुडिया और पिचकारी छाप डॉक्टर, सितारों की भाषा और पंचांग बांचने वाले प्रेसनोट पंडितजी तक भी एक ही सुर में गा रहे थे कि जैसे जैसे सूर्यदेव तपेंगे गर्मी भभकेगी और कोरोना कृमि उसके ताप से ही भस्म हो जाएगा। मगर अफ़सोस कि कोरोना की भाषा कोई भी गोगा पाशा तक नहीं समझ सकता। हमने शंख डमरू झांझ झांझर थाली लोटे सब बजा लिए। दिवाली तक मना ली अपने मुखियाजी के कहने पर, टोटल लॉकडाउन, घर बाजार, सब बंद करवा दिए, पूरे 80 दिन तक फिक्स डिपॉजीट की तरह घर में जमा रहकर घरवाली की छाती पर मूंग दलते रहे। मार्च, अप्रैल, मई, जून एक एक करके सारे महीने निकल गए। पूरी गर्मी खर्च हो गई जिन्हें कोरोना खाते में जाना था वे सभी अकाल चलाना कर गए मगर नहीं टला तो यह नामुराद कोरोना.. गर्मी में कोरोना के प्रकोप कम होने की उम्मीद में हमारे अतुल्य भारत में 20 हजार से ज्यादा लोग निबट चुके।

अब बारिश आ चुकी है- मानसून। पहले प्री मानसून फिर सच्ची का मानसून। पहले कोरोना कोरोना ही दिन भर निजी और सार्वजनिक (मतलब चैनलों की) चर्चा का विषय हुआ करता था, फिर जब वायरस वाले चीन का जब इससे पेट नहीं भरा तो वो गलवान घाटी में हमसे पहलवानी करने आ गया, हमने अपने 20 के बदले उसके 40 मार दिए लेकिन विपक्ष को तो 40 चपटों की लाशों के फोटो चाहिए सबूत के तौर पर। लिहाजा अब कोरोना महज स्कोर बोर्ड ही बनकर रह गया है। बाकी देश (मतलब चैनल) चीन से रोज हमारी हारजीत में ही उलझे हुए हैं। इधर मौसम सुहाना होता जा रहा है। आसमान में काली घटाएं छा रहीं हैं। घन गर्जन हो रहा है, दामिनी दमक रही है, मन मयूर ऐसे मौसम में तो थिरक थिरक कर नर्तन को उतारू है पर फिर डर वही कोरोना का जब लोगों ने डरा दिया था कि बरसात में तो यह कोरोनाई तूफ़ान अपने उफान पर रहेगा।

इस डर के मारे झमाझम बारिश में भी बच्चे ’पानी बाबा आया ककड़ी भुट्टे लाया’ गा गाकर नाच भी नहीं रहे। न इत्ता इत्ता पानी है न गोल गोल धानी.. पहले आसमान में बादल छाते ही घरों में चूल्हों पर कढाइयों/तवों पर तेल चढ़ जाता था भजिये, पकौड़े, चीले तैयार होने लगते थे। इधर बारिश की सौंधी, उधर पकौड़ों के तले जाने की गंध मदमस्त कर देती थी जब सारे आस पडौसी मिलकर वर्षा उत्सव मनाते थे। मगर इस मुए कोरोना ने ऐसा आइसोलेट किया है कि अब सगे पड़ौसी से भी डर लगने लगा है कि कहीं यह पकौड़े के चक्कर में कोरोना न चिपका जाए। यही खौफ बारिश के मनभावन मौसम की राह तकते सोशल डिस्टेंसिंगधारी प्रेमी युगलों को भी बैठ गया है कि मुख मंडल की आभा मास्क के भीतर ही दब कर रह गई है, कोरोना काल में न रसवंती अधरों का पान किया जा सकता है न अभिसार के क्षण जुटाए जा सकते हैं। जान बची तो दिल फिर कभी लगा लेंगे। हमारी नई पीढ़ी ’कॉर्न पिज़्ज़ा’ तो समझती है मगर हैंडल वाले नमक, मिर्च नीम्बू लगे भुट्टे को हिकारत से देखती है हम लोगों को कि कैसे जंगलियों जैसे भुट्टे खाए जा रहे हैं, इस पीढ़ी को ’किस’ तो पसंद है लेकिन ’भुट्टे का किस’ पसन्द नहीं। इन्हें बारिश में पेट भर खाए जाने वाले गुलगुलों से ही नहीं गुड़ से भी परहेज है।

पिलपिले कर चूसे जाने वाले रसभरे आम इन्हें नहीं भाते। पतले पानी जैसी फ्रूटी तो पी सकते हैं मगर चूसकर गाढ़ा रस पीना इन्हें जाहिलपन लगता है। घर ही नहीं बाहर भी ये मौसम और ये दूरी सभी को अखर रही है.. कि कब कोरोना का सत्यानास जाए और पहले की तरह हम खूब खाए पियें और हुलसकर अपनों से गले मिलें, जिससे बारिश की बूंदों में प्रेम की फुहार मिलकर बरसे…

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