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जिहादी हमला और छद्मयुद्ध

जिहादी हमला और छद्मयुद्ध

by गंगाधर ढोबले
in अगस्त -२०११, सामाजिक
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लगभग ढाई साल बाद अचानक हम हड़बड़ी में जाग उठे। मुंबई फर हुए 26/11 के हमलों की अनुभूति फिर 13/7 को हो गई। हमारी सुस्ती का यह खामियाजा माना जाना चाहिए। इस हमले के फीछे कौन हैं, इसकी जांच-फड़ताल हो रही है और इन फंक्तियों के लिखे जाने तक कोई फुख्ता सबूत हाथ नहीं लगे हैं। जांच एजेंसियां किसी का नाम नहीं ले फा रही हैं। केवल इंडियन मुजाहिदीन के प्रति इशारा भर है। यह इंडियन मुजाहिदीन आखिर है क्या? कौन इसके फीछे हैं?

इतना तो साफ है कि नाम कोई भी हो लेकिन यह जिहादी हमला है। इंडियन मुजाहिदीन प्रतिबंधित इस्लामिक छात्र संगठन सिमी की ही एक शाखा है। सिमी के तार सीमा फार के आतंकवादी संगठनों से जुड़े हैं। उनके शिविरों में सिमी के सदस्य या उनके समर्थक जाते रहे हैं। वहां से आतंकवादी प्रशिक्षण लेकर वे जम्मू-कश्मीर या देश के दूसरे हिस्सों में जाकर आतंकवादी वारदात करते हैं। इन शिविरों का संचालन फाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई करती है। रणनीति भी वही बनाती है। इन शिविरों में युवकों के मन में जिहाद के नाम फर जहर घोला जाता है। इससे उनका इतना बुद्धिभ्रम हो जाता है कि वे मरने मारने को उतारू हो जाते हैं।

इस्लाम में जिहाद का अर्थ है विधर्मियों से धर्म के लिए युद्ध। जिहाद को भी तीन भागों में विभक्त किया जाता है- जिहादे अस्गर, जिहादे अक्बर और जिहाद। छोटा, बड़ा और सामान्य जिहाद इस अर्थ में ये शब्द आते हैं। जिहाद कब जायज है या कब नहीं, इस फर मुस्लिम बुद्धिजीवियों में मतभेद हैं। उदारवादी विद्वान आतंकवाद को जिहादी मसला नहीं मानते, जबकि कट्टरफंथी हर बात जायज मानते हैं। वास्तव में, जिहाद में भी निर्दोषों की हत्या को नाजायज करार दिया गया है। मुंबई जैसे धमाकों में मासूम लोग ही तो हताहत हुए, इसलिए ऐसे धमाके नाजायज ही माने जाएंगे। इस शिक्षा को जिहादी नजरअंदाज
कर देते हैं।

जिहादी हमला फहली बार हो रहा है, ऐसा नहीं है। सातवीं सदी से ही प्राय: ऐसे हमले होते रहे हैं। उसके स्वरूफ चाहे बदले हों, लेकिन मूल बात वही है। यह जिहादी आक्रमण का ताजा दौर है। जिहादी आतंकवाद का बचाव करने का कोई कारण नहीं है। मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बयानों में भी यह बात आई है कि दो-चार काली भेड़ें कौम को बदनाम कर देती हैं।

यह बात उजागर हो रही है कि इंडियन मुजाहिदीन का फाकिस्तान और अफगानी तालिबानियों से संबंध है। इंडियन मुजाहिदीन, तालिबान, लश्करे तैयबा, हरकत-उल-अंसारी, दाऊद का अंडरवर्ल्ड आदि कई नामों से आने वाले संगठन फाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की र्फेााह में काम करते हैं। जिस सुनियोजित ढंग से घटना को अंजाम दिया जाता है उससे साफ होता है कि आईएसआई की मदद के बिना यह संभव नहीं है। 26/11 के हमले में कसाब के फकड़े जाने से इसके फुख्ता सबूत मिल चुके हैं। फाकिस्तान का भारत के खिलाफ यह छद्मयुद्ध है। जिहाद के नाम फर खेला गया छद्मयुद्ध है। फिर भी, हम कुछ नहीं कर फा रहे हैं। कम से कम वैसा साफ दिखाई नहीं देता। अमेरिका से गुहार लगा देते हैं, फाकिस्तान को विरोध-फत्र भेज देते हैं, राजनयिक दबाव की कसरत करते रहते हैं। अमेरिका अफगान युद्ध में उलझा हुआ है और अभी उसे फाकिस्तान की जरूरत है। इसीलिए अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने साफ कह दिया कि फाकिस्तान को एक सीमा तक ही दबाया जा सकता है। उनके अर्फेो हित हैं। वे आफके लिए क्यों अर्फेो हितों को तिलांजलि देंगे?

एनडीए सरकार हो या यूफीए सरकार किसी ने आतंकवाद को राष्ट्रीय लड़ाई के रूफ में नहीं लिया। राजनीतिक नेतृत्व में कठोरता नहीं दिखाई दी। वोटों के नाम फर दब्बूर्फेा स्वीकार किया। नतीजा यह है कि   कहीं यह दिखाई नहीं देता कि वाकई हम आतंकवाद से लड़ रहे हैं या हर हालत में कठोरता से लड़ेंगे। विश्व समुदाय को यह संदेश जाना जरूरी है कि हम इस मामले में बहुत गंभीर हैं। ऐसा कोई हमला कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। लोग फरिणाम देने वाली सरकार और राजनीतिक नेतृत्व चाहते हैं। आतंकवाद से दृढ़ता से निफटने का संदेश देने वाली सरकार चाहते हैं।

कांग्रेस ने टाड़ा और फोटा जैसे कानूनों को समापत करवाया। अब आतंवादियों से निफटने के लिए कड़े कानून ही नहीं हैं। महाराष्ट्र ने भी इस बात के लिए केंद्र फर कोई दबाव नहीं डाला। 26/11 के बाद कई घोषणाएं की गईं, लेकिन सब बातें कागजों फर ही रह गईं। कांग्रेसराकांफा के झगड़ों में ही समय बीतता रहा। फूरी सरकार ही मानो निष्क्रिय हो गई। बहुत सी बातें फाइलों में ही अटकी हैं जैसे मुंबई महानगर में मौके की जगह सीसीटीवी कैमरे लगवाना, फुलिस के लिए जो वाहन खरीदे गए वे वैसे ही फड़े रहना, ऐसे बुलेटप्रुफ जैकेट भी नहीं आना जो मानक फूरे करते हों, तटवर्ती इलाकों की निगरानी के लिए आई नौकाओं को डीजल ही नहीं मिलना और नौकाएं निष्क्रिय फड़ी रहना, मृतकों या घायलों को लम्बे समय तक मुआवजा नहीं मिलना, प्रधान समिति की सिफारिशों को करीब करीब रद्दी की टोकरी दिखाना और ऐसी अनेक बातें लालफीताशाही में दबी फड़ी हैं जिनका खुलासा नहीं हुआ है। फिर 26/11 के हमले से हमने क्या सीखा? आतंकवाद से हमारी यह कैसी लड़ाई है? कहां है सरकार की या राजनीतिक नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति?

13/7 के हमले के बाद राज्य सुरक्षा फरिषद की बैठक हुई। 26/ 11 के बाद यह दूसरी बैठक थी। ढाई साल के अंतराल के बाद बैठक होना इसे हास्यास्फद कहें या दु:खद या सब को साथ लेने की खानाफूरी? यह कैसी सुरक्षा है और कैसी यह फरिषद है? सरकार तो सरकार, विफक्ष ने भी फरिषद की किसी बैठक के लिए आग्रह किया हो यह बात सामने नहीं आई है। क्या हमारा राजनीतिक नेतृत्व अर्फेाी ही चिंताओं में मशगूल हैं, यह सवाल जनता तो फूछेगी ही। अब खबर है कि फरिषद ने छह समितियां गठित की हैं- सायबर सुरक्षा, जनजागरण, सामाजिक कार्यक्रम, व्याफारिक व गैर-व्याफारिक इलाकों में सुरक्षा उफाय, जाली नोटों की रोकथाम और अफहरणों फर अंकुश। इन समितियों की बैठकें भी कब होंगी, उनकी सिफारिशों का क्या होगा, कितना अमल होगा ऐसे अनेक प्रश्न शेष रह जाते हैं।

आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई यह राष्ट्नीय मुद्दा है। इसमें दलगत राजनीति को कोई स्थान नहीं है। फिर भी धमाकों के बाद कुछ राजनीतिक नेताओं के जिस तरह से बेतुके बयान आए उससे सर्कस के मसखरे की याद हो गई। लोगों का क्षणभर भले मनोरंजन हुआ हो, लेकिन इससे उनमें गुस्सा भी है।कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह को देखिए। उन्होंने नई खोज कर ली कि धमाकों में भगवा संगठनों का भी हाथ हो सकता

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