आंखों से नहीं दिमाग से देखिए

मनोरंजन की मानवीय जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। रोजमर्रा के काम-काज से उत्पन्न तनावों और थकान को दूर करने के लिए मनोरंजन से बेहतर कोई विकल्प नहीं रहा। जैसे-जैसे समय बदला मनोरंजन के साधनों में भी परिवर्तन होते गए। मैदानी और बैठे खेल, चौपाल चर्चा आदि से शुरू हुआ मनोरंजन के साधनों का यह सफर रामलीला-रासलीला के मंचन, नाटक, फिल्मों, टीवी धारावाहिकों से होता हुआ आज लोगों के मोबाइल में वेब सीरीज और विभिन्न ‘गेम्स’ के रूप में उपलब्ध हैं।

मनोरंजन की इस अत्यधिक सुलभता ने लोगों को इसका आदी बना दिया है। किसी लत की तरह घंटों गेम खेलते युवा या एक
के बाद दूसरी वेब सीरीज देखते लोग आम हो गए हैं। लॉकडाउन ने तो लोगों को और फुर्सत दे दी है। इन तीन-चार महीनों में कुछ रचनात्मक कार्य करने वाले लोगों और मोबाइल या टीवी पर दिनरात चलने वाले शो देखकर समय नष्ट करने वालों का आंकड़ा निकाला जाए तो समय नष्ट करने वालों का आंकड़ा अत्यधिक दिखाई देगा। इस समय नष्ट करने वाली प्रक्रिया में किसी एक आयु वर्ग के लोग नहीं हैं। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सब शामिल हैं और सभी के पास समय नष्ट करने के अपने-अपने उम्दा कारण हैं। परंतु एक बात जो लोगों को दिखाई नहीं दे रही है, वह है इसका प्रभाव। मनोरंजन की इस अधिकता का प्रभाव किसी धीमे जहर की भांति शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है।

वस्तुस्थिति यह है कि मनोरंजन के माध्यमों का मानस पर प्रभाव पड़ता है, इससे ही लोग अनभिज्ञ हैं। आम लोग सोचते हैं कि ढाई- तीन घंटे की कोई फिल्म अगर महीने में एक बार देखी जाए तो क्या असर पड़ेगा? आधे-आधे घंटे के सास-बहू वाले धारावाहिक देखने से हमारा घर थोड़े ही वैसा बन जाएगा? नेटफ्लि3स पर सेक्रेड गेम जैसी वेब सीरीज देखने से हमारे घरों तक थोड़े ही अश्लीलता पहुंच जाएगी?

परंतु जो लोग यह सोच रहे हैं, वे ही इस मनोरंजन जगत की बलि का बकरा है। 3योंकि अब मनोरंजन जगत का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना नहीं रह गया है। अब यह मनोरंजन की आड़ में भारतीय मूल्यों पर प्रहार करने का माध्यम बन रहा है। ऐसे विचारों तथा जीवन मूल्यों को धीरे-धीरे समाज में घुसाया जा रहा है, जो कभी भारतीय थे ही नहीं। मनोरंजन एक शुद्ध व्यवसाय बन चुका है। इसमें ‘जिसकी लाठी (पैसा) होगी है, उसकी ही भैंस (विचार) होगी’ और वे सभी दर्शक इस भैंस का चारा होंगे, जो केवल अपनी आंखों पर ही नहीं बल्कि अपने दिमाग पर भी पर्दा डाले हुए हैं।

जरा सोचिए जिस फिल्म इंडस्ट्री में लोगों के दिलों तक पहुंचने के लिए युसुफ खान को दिलीप कुमार, हामिद अली खान को अजीत, महजबीं बानो को मीना कुमारी और मुमताज जेहान देहलवी को मधुबाला बनना पड़ा वहां धीरे-धीरे फिल्मों की सफलता की गारंटी ‘खान’ कंपनी कैसे हो गई? पटकथा में राजा हरिश्चंद्र जैसे नायकों पर फिल्म बनाने की शुरुआत करने वालों के नायक अकबर जैसे आक्रांता कैसे हो गए? क्यों किसी फिल्म का नायक भगवान में तो आस्था नहीं रखता पर 786 नंबर का बिल्ला उसे बड़ा प्रिय है, क्योंकि वह हमेशा उसकी जान बचाता है। क्यों नायक को अपनी प्रेमिका किसी चर्च में तब मिलती है जब वह मोमबत्तियां जलाकर सिर झुकाकर जीजस के सामने बैठा होता है? क्यों किसी दूसरी दुनिया से आए निर्वस्त्र प्राणी को केवल हिंदू मंदिरों और भगवानों में ही खोट दिखाई देती है? क्यों  अंडरवर्ल्ड के डॉन और संजय दत्त जैसे  अपराधी पर फिल्में बनाई जाने लगी हैं? क्या ये सारे सीन गढ़कर हिंदू देवी-देवताओं और प्रतीकों का उपहास नहीं उडाया जा रहा है? एक और गौर करने वाली बात यह है कि इन सभी किरदारों की भूमिका हिंदू अभिनेताओं से करवाई जाती है, जिससे भारतीय समाज पर इसका अधिक प्रभाव पड़े।

भारतीय फिल्म जगत के इस पूरे ‘बे्रन वॉश’ के पीछे एक मजबूत लॉबी काम कर रही है। इंडस्ट्री में जो अभिनेता इस लॉबी का काम करने से मना कर देता है, उनको खतम करने में यह लॉबी जुट जाती है। फिर या तो उस व्यक्ति का करियर खत्म हो जाता है या जीवन। सुशांत सिंह राजपूत इसका ताजा उदाहरण है। इसके पहले भी गुलशन कुमार, दिव्या भारती, हिृतिक रोशन, विवेक ओबेरॉय आदि जैसे कई लोग हैं जो इस मनोरंजन माफिया का सामना नहीं कर सके।

अब इस लॉबी के पास केवल फिल्में ही नहीं वेब सीरीज जैसा एक और सशे माध्यम है। फिल्मों की अवधि, उन्हें बनने में लगने
वाला समय और बड़े पर्दे तक दर्शकों को लाना इन सभी झंझटों से उन्हें मुक्ती मिल गई है। अब वे अपने विचारों को वेब सीरीज के माध्यम से कम समयावधि में अधिक से अधिक लोगों के मोबाइल तक पहुंचा रहे हैं। इनमें से कुछ शॉर्ट फिल्मों का उद्देश्य केवल और केवल हिंदू संस्कृति का अपमान करना और उसे नीचा दिखाना है। इन पर लगाम कसने वाला कोई नहीं है और मनोरंजन की लत लगे लोग बिना सोचे समझे ये शॉर्ट फिल्म और वेब सीरीज देख रहे हैं।

इस पूरे खेल को समझकर अगर जल्द ही इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए तो मनोरंजन के नाम पर हमारी आने वाली पीढ़ियों के सामने कई गलत और मनगढ़ंत आदर्श प्रस्तुत कर दिए जाएंगे। देशभेों की जगह आक्रांताओं का महिमामंडन किया गया तो उन्हें ही आदर्श माना जाने लगेगा। सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या ने इस मनोरंजन जगत के नकाब को नोंचने का काम तो किया है, परंतु ये पूरी तरह से उतरा नहीं है। अब समाज के सुधि और विवेकशील नागरिकों को यह सोचना होगा कि वे और उनकी अगली पीढ़ी क्या और क्यों देख रही है? अब केवल आंखों से नहीं दिमाग से देखना होगा कि कहीं मनोरंजन के नाम पर हमारा भी ‘बे्रनवॉश’ तो नहीं किया जा रहा है।

This Post Has 2 Comments

  1. आप ने जो लिखा वह एक कड़ी सच्चाई है और इसे ज्यादातर लोग समझ भी रहे है लेकिन वह इसका विरोध इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि उन्हे लगता है कि बाकी लोग उनका उपहास बनाएंगे या फिर अगर वह इसका विरोध करेंगे तो फिर वह इसको कैसे देखेंगे।

  2. Anonymous

    बहुत सही विचार

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