राष्ट्रउद्धारक सम्पादक व नेता लोकमान्य तिलक

लोकमान्य तिलक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पन्ना है। तिलक के समर्पण से पूरा देश स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए ताकत से खड़ा हो गया। कर्तृत्ववान सम्पादक, परिपक्व राजनीतिज्ञ व बेहिसाब साहस रखने वाले राष्ट्रनेता लोकमान्य तिलक को उनकी स्मृति शताब्दी वर्ष के अवसर पर विनम्र अभिवादन।

एक अगस्त को लोकमान्य तिलक की पुण्यतिथि मनाई जाती है। लेकिन इस वर्ष की पुण्यतिथि का विशेष महत्व है। इस वर्ष उनका स्मृति शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। इस एक अगस्त को इस समारोह का समापन होगा। ब्रिटिशों का अन्याय चुपचाप सहन करने वाले भारतीयों में देशप्रेम व आत्मसम्मान की भावना लोकमान्य ने संवर्धित की। इसके लिए उन्होंने स्वराज्य का मंत्र भारतीयों को दिया। इसी मंत्र को अपना एकमात्र लक्ष्य मानकर उसे प्राप्त करने के लिए ङ्गसाधनानाम अनेकताफ के सिद्धांत के अनुसार केसरी, मराठा जैसे अखबार, न्यू इंग्लिश हाईस्कूल जैसी राष्ट्रीय शिक्षा संस्था, शिवजयंती व गणेश जैसे सार्वजनिक उत्सव आदि उपक्रमों को प्रोत्साहन दिया। ‘गीता रहस्य’ जैसा ग्रंथ लिखा। उनके उपक्रमों की बुनियाद लोकसंग्रह थी। इसलिए वे कहा करते थे, “जनसहभाग के बिना स्वतंत्रता नहीं मिलेगी और जनसहभागिता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ भी नहीं है।” लोकमान्य तिलक का जन्म 1856 में हुआ। 1920 तक उनकी जीवन यात्रा चली। इन 64 वर्षों की आयु में शिक्षा के 24 वर्ष छोड़ दिए जाए तो शेष 40 वर्ष वे भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष करते रहे।

वैसे देखें तो तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता विश्व विजेता थी। ब्रिटिश सत्ता के साथ अखिल भारतीय स्तर पर सीधा संघर्ष करना बहुत कठिन व दुष्प्रभ बात लगती थी। लेकिन तिलक ने उसे कर दिखाया। इसके लिए उन्होंने अपनी वाणी व कलम का उपयोग किया। विभिन्न आंदोलन व अभियान चलाए। इससे स्वतंत्रता की उत्कट इच्छा भारतीयों के मन में निर्माण हुई।
लोकमान्य तिलक का व्यक्तित्व व कृतित्व बहुआयामी था। उनके विविधांगी व्यक्तित्व में दिखाई देने वाले निर्भय-जुझारू पत्रकार ने उनके जीवन को आकार दिया। तिलक ने पत्रकारिता के माध्यम से सामाजिक प्रबोधन की भूमिका को मुख्य मानकर अपने जीवन के शेष कार्य पूरे किए यह दिखाई देगा। भारतीय जनमानस में यह गलतफहमी घर कर गई थी कि ब्रिटिशों के बिना भारत चल ही नहीं सकता। केवल अखबारी जगत ही नहीं, भारत के पूरे जनमानस को नींद से जगाने की जरूरत निर्माण हो गई थी। इसके लिए ‘केसरी’ नामक अखबार आरंभ किया गया। स्वाभिमान व आत्मविश्वास के साथ निर्भयता से दहाड़ने वाले शेर को प्रतीक मानकर ‘केसरी’ नाम अत्यंत सोचसमझकर चुना गया।

कहते हैं तिलक ने ‘केसरी’ के कार्यकाल में कोई 513 सम्पादकीय लिखे हैं। लेकिन वे सारे सम्पादकीय ब्रिटिशों को हैरान करने वाले व भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता की चिंगारी जगाने वाले थे। तिलक द्वारा लिखे गए सभी सम्पादकीयों की प्रस्तुति ही इस प्रकार की होती थी कि उसका शीर्षक देखकर ही पाठक स्तंभित हो जाता था। क्या सरकार का दिमाग ठिकाने पर है? ‘राज्य करना याने प्रतिशोध लेना नहीं है’, ‘दिन निकल आया, लेकिन सूरज कहां है?’ ‘अपने ही अपनों के लिए संकट, जागिए अब भी समय नहीं गया है’, इस तरह के ‘केसरी’ के सम्पादकीयों के शीर्षक केवल दिखावटी नहीं थे। वे एक ओर ब्रिटिश राज्यकर्ताओं का नशा उतारने वाले तो दूसरी ओर अपने पाठकों को देश के प्रति कुछ सीख देने वाले हुआ करते थे। राज्यकर्ता याने केवल दिल्ली इस अवधारणा को न रखते हुए गली से दिल्ली तक जो कामकाज चलता था उस पर भी तिलक की पैनी कड़ी नज़र हुआ करती थी। इसलिए ब्रिटिश यह समझ गए कि उनके बुरे कर्म तिलक की नज़रों से नहीं बच पाएंगे। इसीलिए गली के भ्रष्टाचारियों से लेकर दिल्ली के दमनकारी ब्रिटिशों तक सारे सतर्क हो जाते थे।

सम्पादकीय पत्र-पत्रिकाओं की आत्मा होते हैं। इसके अनुरूप ही तिलक के ‘केसरी’ के सम्पादकीय हुआ करते थे। ‘क्या सरकार का दिमाग ठिकाने पर है?’ इस सम्पादकीय की पृष्ठभूमि यह थी कि 22 जून की रात को पुणे में रैण्ड नामक ब्रिटिश अधिकारी की हत्या हो गई थी। तब इस मामले की तह तक जाने के लिए ब्रिटिश सरकार पुणे के सारे ब्राह्मणों के पीछे पड़ गई थी। इस पर ब्रिटिश सरकार को चेतावनी देते हुए जवाब मांगने वाला यह सम्पादकीय था। तिलक के ये सम्पादकीय ब्रिटिश सरकार की राय में राष्ट्रद्रोही थे। इसी कारण तिलक को छह वर्ष की सजा भुगतने के लिए ब्रह्मदेश के मंडाले में भेजा गया था।

लोकमान्य तिलक टेबल के पास बैठकर लेखक के रूप में अपना शौक पूरा करने वालों में से नहीं थे। राष्ट्रसेवा के एक महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में वे यह लिख रहे थे। उन्होंने अपनी युवावस्था के पहले कुछ वर्ष भिन्न व्यवसाय में बिताए थे। कार्यनिष्ठा व कोई कार्य हाथ में लेने पर उसे पूरा करने की कर्तव्य-भावना व कुशाग्र बुद्धि के वे धनी थे। इन गुणों के कारण ही लोकमान्य तिलक स्फूर्तिदायी पत्रकार के रूप में पूरे महाराष्ट्र के जनमानस पर अपनी मुहर अंकित कर सके। लेख लिखते समय भाषा सौंदर्य को बढ़ाने की उठापटक उन्होंने कभी नहीं की। अपने मन का आशय व स्फूर्तिदायी संदेश पाठकों के दिलों में उतर जाए यह उनकी स्वाभाविक छटपटाहट उनके सम्पादकीयों व लेखों में दिखाई देती है। लोकमान्य तिलक के सम्पादकीय पढ़ें तो टेबल पर बैठकर सम्पादकीय लिखने वाले सम्पादक के रूप में उनकी छवि नहीं उभरती, बल्कि उभरती है तो महत्वपूर्ण शब्दों पर दृढ़ता से बल देती उनकी प्रतिमा। तिलक के हृदय से निकले व पाठकों के हृदय तक पहुंचे प्रभावी शब्दों का बहाव ही हमें दिखाई देगा।

तिलक की वाणी किसी अखाड़े के डांडपट्टे जैसी, जबकि कलम तलवार जैसी तेज चलती थी। तिलक की कलम ने ब्रिटिश सरकार को हैरान कर दिया था। इसके बारे में लिखते हुए ‘लंदन टाइम्स’ के विदेश विभाग के प्रमुख वेलेंटाइन चिरोल ने लिखा है कि, मैं अखबरों में कई वर्षों से लिख रहा हूं। मुझे स्वाभिमानपूर्वक जवाब पूछने वाले दो ही लोग मिले- एक लोकमान्य तिलक व दूसरे जर्मन बादशाह कैसर विल्यम।

‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर ही रहूंगा’, जिस समय तिलक ने ब्रिटिश सत्ता को चेतावनी देते हुए यह कहा था वह गुलामी का समय था। उस समय में उन्होंने यह साहस दिखाया। हताश राष्ट्र में पुनर्चेतना जगाने के लिए धार्मिक उत्सवों का महत्व ध्यान में आते ही उन्होंने शिव जयंती व गणेशोत्सव जैसे उत्सव आरंभ कर अपना बहुमूल्य योगदान दिया। लोकमान्य तिलक के लेखों में प्रतिपक्ष को चुभने वाला तेज हुआ करता था। राष्ट्रीय भावना से लबालब विवेकी विचार, सीधे तर्क, मुद्दों के अनुसार प्रस्तुति, शाब्दिक चुभने वाले कटाक्ष इस तरह वैविध्यपूर्ण अलंकृत तिलक का लेखन हुआ करता था। जब लोकमान्य तिलक की ओर ‘केसरी’ की सम्पूर्ण जिम्मेदारी आई तब उन्होंने सीधे-सीधे ब्रिटिश सरकार को ही फटकार लगाना शुरू किया। तिलक जानते थे कि उन्हें ब्रिटिशों जैसी विदेशी ताकत से लड़ना है, अपने स्वकीय भारतीयों को साथ लेकर लड़ना है। इसलिए ब्रिटिशों के हर कदम का वे बारीकी से निरीक्षण किया करते थे। गलत हो तो उन्हें दृढ़ता के साथ जवाब पूछा जाना चाहिए, यह राष्ट्रभक्त तिलक को लगता था।

लोकमान्य तिलक बहुजनों के नेता थे। उन्होंने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से बहुजनों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया था। ‘केसरी’ के प्रवेशांक में ही उन्होंने अपनी यह भूमिका स्पष्ट की थी। उन्होंने कहा था कि सरकारी अधिकारी अपने-अपने काम किस तरह करते हैं इस बारे में निष्पक्ष व किसी की परवाह न कर लिखने का उनका इरादा है। पत्रकारिता का कार्य करते समय सरकार की मुझ पर कृपा रहे, ऐसे विचारों को मैं बिल्कुल तवज्जो नहीं दूंगा। सम्पादक जनता का कोतवाल व वकील दोनों होता है। और ये दोनों अधिकार यथासंभव दक्षता से इस्तेमाल करने का संकल्प तिलक ने व्यक्त किया था। सम्पादक के बारे में लोकमान्य तिलक की राय स्पष्ट दिखाई देती है। न्यायाधीश जिस तरह अपनी कुर्सी पर बिराजते समय लबादा पहनकर बैठते हैं और इसके बाद वह न्याय करते हैं। सम्पादक को कलम हाथ में लेने पर इसी तरह का गर्व मन में रखना चाहिए। सम्पादक का पद ही ऐसा है कि वहां यही कौशल्य की भाषा अधिक प्रभावी रूप से काम करती है। सम्पादक के रूप में लेखन किस तरह का हो? इस संदर्भ में उनका कहना था कि सम्पादक को प्रतिदिन कुछ केवल नावीण्यपूर्ण ही लिखना नहीं होता। लोगों को समझ में आए इस तरह की सम्पादक की लेखन शैली होनी चाहिए। सम्पादक के रूप में यदि हम अपनी बात लोगों को समझा नहीं सके तो हम देश व समाज का घात करने वाले सम्पादक हैं, यह ध्यान में रखना चाहिए। इन विचारों के कारण ही तिलक का सम्पादक के रूप में कार्यकाल चर्चित रहा। कोई अखबार चलाना याने क्या करना है? वह वाकई हमें चलाना आना चाहिए। अखबार चलाना है इसलिए लिखते नहीं रहना होता। सम्पादक को टाइप से लेकर प्रूफ जांचने, मशीन पर मैटर चढ़ाने व छपाई करना, कभी मशीन परेशान करें तो उसे ठीक करने का कौशल्य भी सम्पादक के पास होना चाहिए। मौका पड़ने पर अंक बेचने की भी सम्पादक की तैयारी होनी चाहिए। तिलक को लगता था कि ये सारे काम सम्पादक को आने चाहिए। अपने ‘केसरी’ अखबार की छपाई के लिए मशीन खरीदते समय तिलक ने इंग्लैण्ड में मशीन के पुर्जे-पुर्जे की जानकारी हासिल की थी।
मृत्युलेख लिखना सम्पादक की कसौटी होती है। अन्य महत्वपूर्ण लेखों की तरह मृत्युलेखों का भी महत्व होता है। जिस व्यक्ति के बारे में मृत्युलेख लिखना होता है उसका जनमानस में कोई स्थान होता है। ऐसे व्यक्ति के कर्तृत्व का उचित मूल्यांकन उसके मृत्युलेख में अपेक्षित होता है। ऐसे व्यक्ति के साथ जो झगड़े आदि हो, मतभेद हो उन सब को बगल में रखकर मृत्युलेख लिखने होते हैं। लोकमान्य तिलक के अनेकों से मतभेद थे। इन मतभेदों का पाठकों को पता भी न चले इस तरह के मृत्युलेख तिलक ने लिखे हैं। गोखले से उनके प्रखर मतभेद थे। तिलक तब उनकी अंत्ययात्रा में शामिल हुए थे। उस समय हुई शोकसभा में उन्होंने गोखले के गुणों को प्रतिपादित किया। ‘केसरी’ में मृत्युलेख लिखकर गोखले के कर्तृत्व, आदर्श को भावी पीढ़ी अपने जीवन में किस तरह उतारे इसके सुझाव दिए। लोकमान्य तिलक व आगरकर के बीच तो बेहद मतभेद थे। आगरकर का अचानक निधन हुआ। उनके निधन से दुखी हुए तिलक ने आगरकर पर जो मृत्युलेख लिखा वह पढ़ने लायक तो था ही, लेकिन बाद में आगरकर के श्राद्ध दिवस पर विशेष अग्रलेख भी लिखा था। अपनी कलम की चमक जिस तरह उन्होंने महाराष्ट्र के कुछ मान्यवर लोगों पर लिखते समय दिखाई, उसी तरह कुछ अंग्रेज अधिकारियों के बारे में भी मन में कोई शत्रुता न रखते हुए उन्होंने मृत्युलेख लिखे।

तिलक की स्पष्ट राय थी कि ब्रिटिशों के अनुनय-विनय से भारतीयों को उनके राजनीतिक अधिकार नहीं मिलने वाले हैं। वे कहते थे कि ब्रिटिशों की गुलामी खत्म करनी हो तो उनसे दो-दो हाथ करने की भारतीयों को तैयारी रखनी चाहिए। इसी कारण काँग्रेस में गर्म और नर्म इस तरह दो गुट बन गए थे। तिलक ने गर्म गुट का नेतृत्व किया। राष्ट्रीय स्तर पर तिलक का नेतृत्व स्वीकार हो चुका था। ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण व पक्षपाती नीतियों के विरुद्ध आवाज उठाने में तिलक हमेशा आगे रहा करते थे। ‘केसरी’ के सम्पादकीय इस बात के पर्याप्त गवाह हैं। अकाल व प्लेग जैसी प्राकृतिक आपदा के समय सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों की ओर से आम जनों पर जो अत्याचार हुए उसकी उन्होंने अत्यंत कठोर शब्दों में निंदा की थी। स्वदेशी को अपनाना, विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा व स्वराज्य इन त्रिसूत्री कार्यक्रम का स्वीकार व समर्थन तिलक ने किया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने फौज में भर्ती का अभियान चलाया। भारत से सहयोग की इंग्लैण्ड को अपेक्षा थी। तिलक ने सहयोग करने का सुझाव दिया। तिलक ब्रिटिशों से एक कदम आगे ही थे। उन्होंने ब्रिटिशों से साफ कह दिया था कि, “हम आपके साथ सहयोग के लिए तैयार हुए इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपनी स्वतंत्रता को भूल चुके हैं।” ब्रिटिश सरकार से उनका सीधा सवाल था कि, “हमें कब स्वतंत्रता देंगे, यह बताइये।” लोकमान्य तिलक ने अपने सम्पादकीय में सरकार से साफ-साफ कह दिया था कि “जिसे आकाश में उड़ना है वह हमेशा सूंडी बनकर नहीं रह सकता।” लोकमान्य तिलक श्रेष्ठ पत्रकार, चतुर राजनीतिज्ञ, राष्ट्रीय आंदोलन के प्रणेता थे। यही नहीं, वे प्राच्यविद्या अनुसंधानकर्ता, दार्शनिक व विद्वान पंडित भी थे। स्वराज्य का मंत्र देने वाले लोकमान्य तिलक ने ‘गीता रहस्य’ लिखा। पश्चिमी पंडितों के साथ आर्यों के संदर्भ में चर्चा भी करते थे। अनुसंधानात्मक ‘गीता रहस्य’ ग्रंथ के कारण वे विश्व के महापंडितों के सम्मान के पात्र बने थे। तिलक ने अपने तपोबल से सम्पूर्ण भारत की जनता के मन में स्वराज्य की प्राणप्रतिष्ठा की। लोगों से मिलने व उनमें रम जाने में तिलक बहुत उत्साही होते थे। वे देशभर की सभाओं में अवश्य जाया करते थे। उस समय में सम्पूर्ण भारत भ्रमण करने वाला तिलक के अलावा अन्य कोई नेता शायहद ही होगा। तिलक का लोगों के प्रति स्नेह जिस तरह सर्वपरिचित था, उसी तरह लोग भी तिलक पर अपना स्नेह लुटाने का अवसर नहीं खोते थे।

ब्रिटिश तिलक को असंतोष का जनक भले मानते हो लेकिन जनता ने उन्हें ‘लोकमान्य’ की उपाधि दी थी। लोकमान्य तिलक व महात्मा गांधी कोलकाता के रिपन कॉलेज में एक ही स्थान पर रुके थे। तब तिलक की लोकप्रियता गांधी देख सके थे। तिलक के आसपास सदा कार्यकर्ताओं की भीड़ हुआ करती थी। वे एक खटिया पर बैठे हैं और कोई न कोई निरंतर मिलने आ रहा है इसे देखकर गांधी ने उसे ‘तिलक का छोटा दरबार’ कहा था। जहां जाते थे वहां लोगों की बाढ़ आ जाती थी। इसे उस समय अनेक मान्यवर नेताओं ने अनुभव किया है। लोकमान्य तिलक की मंडाले की जेल से रिहाई के बाद उनके सम्मान में निकला भव्य जुलूस, तिलक की मुंबई में विशाल अंत्ययात्रा, मृत्यु के बाद उनकी अस्थियां पुणे लाने पर वहां जुटा जनसमूह ये उनकी लोकप्रियता के ठोस उदाहरण हैं। उनकी अंत्ययात्रा में कोई डेढ़ किमी की कतार लगी थी। तिलक जैसी लोकप्रियता बाद में लम्बे समय तक किसी को नहीं मिली। अंत्यायात्रा में महात्मा गांधी ने स्वयं तिलक को कंधा दिया था। पंडित नेहरू, शौकत अली, बै.जिन्ना जैसे बड़े नेता तिलक की अंत्ययात्रा में शामिल हुए थे। उनकी मृत्यु के बाद महात्मा गांधी ने कहा था, “तिलक ने अपनी फौलादी इच्छाशक्ति का उपयोग देश के लिए किया। तिलक राष्ट्रभक्ति का समग्र ग्रंथ है।” हम अंतर्मुख होकर विचार करें तो एक बात अनुभव होगी कि जिस समय में स्वराज्य, स्वतंत्रता, लोकतंत्र जैसे शब्दों का उच्चारण करना भी संकट में डालने वाला था उस समय में लोकमान्य ने स्वराज्य की उद्घोषणा की। इसके लिए तीन बार सश्रम कारावास की सजा भी भोगी तथा जनता को अपने आचरण से सीख दी। तिलक हमेशा कहा करते थे कि सिद्धांतों पर चलने वाले सम्पादक का एक कदम हमेशा जेल में हुआ करता है। यह वास्तविकता उन्होंने अपने जीवन में सहजता से स्वीकार की। ठण्डे ढेले की तरह पड़ा महाराष्ट्र ही नहीं पूरा भारत लोकमान्य के प्रखर नेतृत्व से स्वराज्य के लिए आंदोलित हुआ। पुनश्च हरिओम कहते हुए भारतीय जनमानस स्वराज्य पाने के लिए उठ खड़ा हुआ वह लोकमान्य की राष्ट्र जागरण की प्रेरणा से ही। दृढ़निश्चय, तेजस्विता, त्याग व जुझारू वृत्ति ही लोकमान्य का जीवन है। वे विचार व कृति इन दोनों क्षेत्रों में कर्तृत्व दिखाने वाले विचारक थे। लोकमान्य तिलक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पन्ना है। तिलक के समर्पण से पूरा देश स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए ताकत से खड़ा हो गया। कर्तृत्ववान सम्पादक, परिपक्व राजनीतिज्ञ व बेहिसाब साहस रखने वाले राष्ट्रनेता लोकमान्य तिलक को उनकी स्मृति शताब्दी वर्ष के अवसर पर विनम्र अभिवादन।

This Post Has One Comment

  1. संजीव आहिरे

    स्वर्गीय लोकमान्य टिळक जी के समग्र कार्य कर्तृत्व पर सटीक प्रकाश डाला गया है, बहुत सुंदर विवेचन।
    संजीव आहिरे
    नाशिक

Leave a Reply to संजीव आहिरे Cancel reply