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धारा 370 और 35A की समाप्ति की प्रथम वर्षगांठ

धारा 370 और 35A की समाप्ति की प्रथम वर्षगांठ

by सुनीता हळदेकर
in विशेष, सामाजिक
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जम्मू-कश्मीर में धारा 370 व 35-ए को खत्म होकर इस वर्ष 5 अगस्त को एक वर्ष हो जाएगा। इस अवसर पर प्रस्तुत है उसकी पृष्ठभूमि।

भारत के इतिहास में 5 अगस्त 2019 एक ऐतिहासिक दिन है। अनेक लोगों के अहर्निश प्रयत्नों, बलिदानों और समर्पण के कारण इतिहास में यह स्वर्णिम दिन अंकित हुआ। 15 अगस्त सन 1947 को अपना देश स्वतंत्र हुआ, परंतु भारत मां के अंग विच्छेद कर यह स्वतंत्रता आई, भारत विभाजन की स्वीकार कर हमने खंडित स्वतंत्रता पाई। उस समय भारतीय संघ राज्य में रियासतों के विलय की बात चल रही थी। कश्मीर के महाराजा श्री हरि सिंह जी बार-बार नेहरू जी से कश्मीर विषय पर चर्चा करने की विनती कर रहे थे।

उधर भारत का एक बड़ा हिस्सा अलग कर पाकिस्तान बनाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना का धैर्य टूट रहा था, क्योंकि कश्मीर छोड़कर सारा भारत एकजुट होकर खड़ा होता दिखाई दे रहा था। कश्मीर हाथ से जाएगा इस भय से जिन्ना ने 22 अक्टूबर 1947 को कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। कश्मीर के महाराजा हिंदू थे पर उस समय कश्मीर में 70 % जनसंख्या मुस्लिम थी और महाराजा के बहुसंख्यक सैनिक मुस्लिम ही थे। पाकिस्तान के सैनिक घुसपैठ करके आक्रमण करेंगे यह जानकारी महाराजा को प्राप्त हुई थी परंतु तब राजा ने कहा था कि मेरे सभी सैनिक प्रामाणिक हैं। मुस्लिम सैनिकों ने राजा को पूरी तरह धोखा दिया। जब एक हजार ट्रकों में दस हजार पठान कश्मीर को लूटने घुस गए तब महाराजा को होश आया हताश होकर वे नेहरू जी के पास कश्मीर का भारत में विलय का प्रस्ताव लेकर गए, परंतु उस समय नेहरू जी अड़ गए। उन्होंने कहा कि इस चर्चा में शेख अब्दुल्ला को भी रहना चाहिए।

उधर पाकिस्तानी पठानों ने बारामुला में आक्रमण किया था और वह बहुत ही भयंकर था। चारों और रक्त की नदियां बह रही थीं। महाराजा हरिसिंह जी बार-बार मदद की याचना करते रहे परंतु नेहरू जी कोई प्रतिसाद नहीं दे रहे थे। आखिर अन्य कोेई रास्ता न देखकर उन्होंने शेख अब्दुल्ला को जेल से मुक्त कर महारानी के साथ कश्मीर विलय का प्रस्ताव लेकर लॉर्ड माउंटबेटन के पास भेजा। नेहरू जी तो कश्मीर विरोधी थे, वे कहने लगे- पाक ने कश्मीर पर आक्रमण किया है भारत पर नहीं। भारत सरकार कश्मीर के लिए नहीं अपितु भारत के रक्षा के लिए है।

माउंटबेटन उस समय विदेश विभाग देखते थे। इसलिए इस प्रस्ताव को उन्होंने अपने हाथों में लिया। इधर महाराजा ने कहा था यदि माउंटबेटन भी इसे टालते रहे तो मुझे नींद में ही गोली मार देना। माउंटबेटन ने पंडित नेहरू गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षा मंत्री बलदेव सिंह, आर्मी जनरल लेफ्टिनेंट कर्नल सैम मानेकशॉ को भी बैठक में बुलाया था। उस समय नेहरू जी ने साफ-साफ बताया था कि अभी-अभी द्वितीय महायुद्ध समाप्त हुआ है और भारत के साथ अमेरिका, चीन, इंग्लैंड आदि देशों के अच्छे संबंध हैं, अंत: वह प्रकरण राष्ट्रसंघ में भेजा जाए। यह तो सत्य था कि सरदार पटेल जेष्ठ, अनुभवी, चिंतक और एक कुशल राजनीतिज्ञ थे। उस समय प्रधानमंत्री के नाते उनका नाम बहुमत से प्रस्तावित किया गया था, परंतु महात्मा गांधी जी की इच्छा अनुसार वे गृह मंत्री बने। पटेल ने नेहरू जी से पूछा था कि क्या कश्मीर नहीं चाहिए?… उस समय नेहरू जी के मुंह से निकल गया- चाहिए। बस इसी क्षण का लाभ लेकर पटेल, सैम से कहा- जाओ, कश्मीर में सैनिक भेजना प्रारंभ करो। उस समय कश्मीर में यातायात की दृष्टि से केवल विमान की व्यवस्था थी, रास्ते नहीं थे। अतः विमान से ही भेजा गया था। कुमाऊं रेजिमेंट के मेजर सोमनाथ शर्मा उसका नेतृत्व कर रहे थे। उनका वहां बलिदान हुआ। वे स्वतंत्र भारत के पहले हुतात्मा थे। सरदार पटेल के साहसिक निर्णय और सैनिकों के शौर्य, पराक्रम के कारण ही कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग बना।
27 अक्टूबर 1947 से लेकर लगभग 15 महीने यह युद्ध चला। पाकिस्तानी घुसपैठ चलती रही। गृह मंत्री के नाते पटेल जी ने बहुत कड़ी नीति अपनाई थी। परंतु उन्हें नेहरू जी का साथ नहीं मिला। कश्मीर में सैनिक उतारे गए थे, उसी का परिणाम था कि 60% हिस्सा विलय करवा पाए। परंतु उसी समय 1949 में नेहरू जी ने युद्ध विराम की घोषणा करते हुए बाकी प्रश्न राष्ट्रसंघ को सौपने का निर्णय लिया। 40% कश्मीर के हिस्से को नेहरू जी चांदी की थाली में सजाकर पाकिस्तान को दे गए।
पाकिस्तान तो पूरा कश्मीर ही चाहता था और इसलिए पाकिस्तान कश्मीर के लिए धारा 370 एवं 35-ए जैसे विशेष प्रावधान का पक्षधर था, इसके लिए वह प्रयासरत भी था। उस समय तक भारत का संविधान भी तैयार नहीं हुआ था। कांग्रेस की कार्यकारी समिति में जब इस तरह का विचार प्रारंभ हुआ तब उस समय की कार्यकारी समिति के कुछ प्रखर राष्ट्रभक्तों- सरदार वल्लभभाई पटेल, प. गोविंद बल्लभ पंत, सी राजगोपालाचारी, श्री जे बी कृपलानी और डॉ.राजेंद्र प्रसाद जैसे व्यक्तियों के सामने मेरी नहीं चलेगी यह बात पंडित जवाहरलाल नेहरु समझ गए थे, यह सोचकर नेहरू जी इस प्रस्ताव को पटेल जी के हाथों सौंपकर विदेश चले गए। सरदार पटेल ने कहा- अभी भी पूरा कश्मीर अपने हाथों में नहीं है। इसलिए यह धारा अस्थायी रहेगी और इसे रद्द भी किया जा सकेगा। यह भारत की सार्वभौमिकता का विषय था।

उधर से एक अब्दुल्ला ने कहा- क्या भारत में कश्मीर एक स्वतंत्र गणराज्य होगा? पंडित नेहरू ने कहा- शेख अब्दुल्ला ने स्वतंत्र संविधान की मांग की, स्वतंत्र ध्वज मांगा। इसे सम्मति मिली। इस पर भी अब्दुल्ला को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने कहा- महाराजा हरि सिंह के शासन में तो प्रधानमंत्री बनने की बात कही गई थी, क्योंकि राजकीय व्यवस्थानुसार शेख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनाने से उनका अवमूल्यन ही होगा, अतः नेहरू जी ने प्रधानमंत्री वाली बात भी मान ली। शेख अब्दुल्ला की सारी शर्तों को मान लेना यह देश के लिए बहुत बड़ी वेदना थी। देश का विभाजन हुआ तो लाखों लोग मारे गए, लाखों परिवार तबाह हुए। नेहरू और पाकिस्तान के अली खान ने पासपोर्ट की व्यवस्था को ही अस्वीकार कर दिया परंतु शेख अब्दुल्ला के कहने पर कश्मीर में परमिट की आवश्यकता को नेहरू जी ने मान लिया। इससे बड़ी विडंबना विश्व के इतिहास में क्या हो सकती है?
11 मई 1953 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कश्मीर गए और परमिट कानून रद्द करवाने के कारण उनका बलिदान हुआ। लेफ्टिनेंट सोमनाथ शर्मा, प. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अनेक नागरिकों का बलिदान क्या व्यर्थ होगा? पिछले 73 वर्षों में लाखों सैनिक और अन्य लोग कश्मीर घाटी में मारे गए हैं।

जम्मू कश्मीर की समस्या के समाधान का एकमात्र रास्ता था धारा 370 एवं 36-ए को समाप्त करना। 5 अगस्त 2020 को धारा 370 और 36-ए समाप्त होकर 1 वर्ष हो रहा है। सच्चे अर्थों में लेफ्टिनेंट सोमनाथ शर्मा, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और ऐसे ही अनेक देशभक्त नागरिकों और सैनिकों की आत्मा को शांति मिली है। कश्मीर का भारत में विलय हुआ। पिछले 30 वर्षों का कश्मीरी पंडितों का वनवास भी समाप्त हुआ है। अब हम सभी भारत वासियों की जम्मू कश्मीर-लद्दाख की यात्रा सुखद होगी।
वर्तमान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भारत के शेर और चाणक्य कहे जाने वाले गृह मंत्री के इस साहसिक निर्णय का पुनश्च अभिनंदन।

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