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जय गिरिधारी, जय गिरिराज

जय गिरिधारी, जय गिरिराज

by गोपाल चतुर्वेदी
in अक्टूबर २०११, सामाजिक
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गिरिराज गोर्वधन की महिमा अपरंपार है। इसका जयनाद अहर्निश हो रहा है। ऐसी कोई तिथि नहीं, ऐसा कोई वार नहीं, ऐसा कोई दिन नहीं जब गिरिराज महाराज के भक्तगण उनका जयघोष करते हुए उनकी व उनकी परिक्रमा करते हुए अपने जीवन को धन्य न करते हो।

ब्रज में दीपावली से भी अधिक महत्ता दीपावली के अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को होने वाली गोवर्धन पूजा की है। श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों द्वारा की जाने वाली देवराज इंद्र की पूजा के स्थान पर इसे आरंभ किया था। इस पर इंद्रदेव ने कुपित होकर निरंतर सात दिनों तक इतनी भंयकर वर्षा की कि समूचा ब्रजमंडल डूबने लग गया। यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वाल बालों की सहायता से अपनी तर्जनी उंगली पर सप्तकोसी परिधि वाले विशालकाय गोवर्धन पर्वत को धारण कर लिया। जिसके नीचे समस्त ब्रजवासियों ने आश्रय प्राप्त किया। पूरे सात दिनों तक हुई घनघोर वर्षा के बावजूद किसी का भी बाल तक बांका नहीं हुआ। भगवान श्रीकृष्ण की इस अलौकिक लीला के प्रति नतमस्तक होकर देवराज इंद्र ने स्वयं उनके सम्मुख आकर उनसे अपने किए हुए की क्षमा मांगी। बाद में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गोवर्धन का पंचामृत से अभिषेक कर उन्हें 56 भोग व 36 व्यंजनों से भोग लगाया। साथ ही उनका विधिवत् पूजन-अर्चन किया।

इसी दिन से भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम ’गोवर्धनधारी’ भी पड़ गया। उसी परम्परा में आज भी समूचे ब्रज में दीपावली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा का पर्व अत्यंत श्रद्धा व भक्ति के साथ मनाया जाता है। अब इस त्योहार की धूम न केवल ब्रज में अपितु पूरे उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, हरियाणा व पंजाब आदि विभिन्न प्रांतों में भी देखने को मिलती है। वस्तुत: गोवर्धन पूजा प्रकृति की उपासना का प्रमुख पर्व है। इसके मूल में गौ, पृथ्वी और वन सम्पदा निहित है। चूंकि गौ माता को लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है, इसलिए कहीं-कहीं लक्ष्मी पूजन के बाद गौ पूजन की भी परंपरा है। इस दिन गायों, बछड़ों और बैलों आदि का भी विशेष शृंगार व पूजन-अर्चन किया जाता है। गोवर्धन पूजा लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की एव् अद्भुत लीला थी। क्योंकि इस पूजा को करने व कराने वाले वह स्वयं ही थे।

उत्तर प्रदेश के मथुरा जिला मुख्यालय से 23 किमी दूर प्रकृति की सुरम्य गोद में बसा हुआ मनोहरी तीर्थ स्थल है गोवर्धन। यहां सात कोस की परिधि में विराजित है विष्णु रूप गिरिराज गोर्वधन पर्वत। इसे हिमालय पर्वत का ही एक अंश माना जाता है। इसकी महिमा अपरंपार है। इसका जयनाद अहर्निश हो रहा है। ऐसी कोई तिथि नहीं, ऐसा कोई वार नहीं, ऐसा कोई दिन नहीं जब गिरिराज महाराज के भक्तगण उनका जयघोष करते हुए उनकी व उनकी परिक्रमा करते हुए अपने जीवन को धन्य न करते हो।

गोवर्धन कस्बे में गोवर्धन पूजा की धूम अत्यंत निराली रहती है। इस पूजा की तैयारियां विजय दशमी से ही प्रारंभ हो जाती हैं। घर- घर की महिलाएं कई-कई दिनों पूर्व से बुहत बड़ी मात्रा में गाय का गोबर एकत्रित करती हैं और फिर मंगल गीत गाते हुए उस गोबर से गिरिराज गोवर्धन की आदम कद मानवाकृति बनाती हैं। आकृति की टूंडी में बड़ा सा छेद बना कर उसमें दूध, शहद, खील व बताशे आदि भरे जाते हैं। गोवर्धन आकृति के चारों ओर गायों, बछड़ों व अन्य पशुओं को प्रदर्शित किया जाता है। जिनके मध्य में भगवान श्रीकृष्ण व पांचों पाण्डवों की आकृति भी दिखाई जाती है। साथ ही इस आकृति के निकट गुजरिया, ग्वालिनी, मटकी, रई, चक्की व लड़ामनी आदि बनाई जाती है। गोवर्धन की आकृति पर कांस की सेकें, और कपास व वृक्षों की पतली टहनियां आदि लगा कर उसे पर्वत का स्वरूप देने की कोशिश की जाती है। कहीं-कहीं दो मुंह, चार हाथ व चार पैर वाले गोवर्धन बनाए जाते हैं। इस रचना के मूल में लोगों का यह विचार है कि गिरिराज गोवर्धन, भगवान श्रीकृष्ण के ही तो प्रतिरूप हैं। कहीं भी कभी उनकी उपस्थित अकेले नहीं होती है। वे जहां भी होते हैं अपने युगल स्वरूप में ही होते हैं। अत: उनकी यह रचना भी उनके युगल स्वरूप की ही होनी चाहिए। बनाए गए गिरिराज गोवर्धन को आकर्षक बनाने हेतु फूलों, मोतियों, चमकीले सितारों, मोर पंखों व रंगों का भी उपयोग किया जाता है। कहीं-कहीं तो मोहन-भोग (सूजी के हलवा) से भी गोवर्धन बनाए जाते हैं।

अन्नकूट के दिन प्रात:काल गिरिराज गोवर्धन के श्री विठाह के मस्तक पर लाल जरी के गोकर्ण, मोर पंख एवं कानों व गले में रत्न आभूषण धारण कराए जाते हैं। राजभोग समर्पण के बाद कमल की थाली से आरती उतारी जाती है। राजभोग आरती के बाद ठाकुर विठाह के सिंहासन के आगे अठिाम पंक्ति में मेवा, बर्फी, अघौटा दूध, मावे के खरमण्डा, मावे की मठरी, मावे के संकर पारे और दूध व खंड से बनी हुई सामठाी रखी जाती है। यह अठिाम पंक्ति ’दूध-घर’ कहलाती है। इसके बाद ’खंड-घर’ में खांड से बने बताशे, खांड के खिलौने, गजक, खेडी व विभिन्न मेवाओं के पाक रखे जाते हैं। इसके बाद बेसन व मगध के लड्डू आदि नागरी सामठाी रखी जाती है। तत्पश्चात हल्दी से रेखा खींच कर गुझिया, बूंदी के लड्डू, पाटिया के लड्डू, फैनी, घेवर, मठरी आदि अनेक प्रकार की अनसकड़ी खाद्य सामठाी रखी जाती है। ’अनसकडी’ सामठाी में बाद में हल्दी से रेखा खींच कर और थोड़ी जगह का अंतराल छोड़कर ’सकड़ी’ खाद्य सामठाी रखी जाती है। जिसमें पके हुए चावल (भात) का विशाल ढेर प्रमुख होता है, जो कि ’बड़ी सेवा’ कहलाता है। भात के इस विशाल ढेर के कारण ही इस महोत्सव को ’अन्नकूट महोत्सव’ कहा जाता है। अन्नकूट के सिरहाने घी का दीपक जला कर खीर, पूड़ी, अण्याउरी व मिठाइयों आदि से भोग लगा कर उन्हें अत्यंत विधि विधान से पूजा जाता है। साथ ही गोवर्धन महराज का जयघोष करते हुए यह गीत गाते हुए उनकी परिक्रमा की जाती है

मानसी गंगा श्री हरिदेव,
गिरवर की परिकम्मा देव।

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन की तलहटी में स्थित प्राय: सभी मंदिरों व घरों में अन्नकूट महोत्सव अत्यंत जोर-शोर से मनाया जाता है। जिसमें देश-विदेश के असंख्य भक्त-श्रद्धालु, अत्यंत उत्साह के साथ भाग लेते हैं। वल्लभ सम्प्रदायानुयायियों द्वारा ब्रज में महोत्सव अत्यंत वृहद् व भव्य रूप में आयोजित किए जाते हैं। इसकी तैयारियां कई सप्ताह पूर्व से आरंभ हो जाती हैं। इस दौरान 56 से भी अधिक प्रकार के अनेकानेक स्वादिष्ट व्यंजन व पकवान आदि बनाए जाते हैं। जिसमें कि मूंग, चावल, कढ़ी, बाजरा एवं विभिन्न सब्जियों को मिलाकर बनाई गयी गढ्ढ की सब्जी की प्रधानता रहती है। गोवर्धन महाराज को इन सबका भोग लगाकर उसे भक्त-श्रद्धालुओं में बतौर प्रसाद वितरित दिया जाता है। इस अवसर पर जगह-जगह अन्नकूट की ’ग्वाल कूद’ झांकी का अत्यंत नयनाभिराम व चित्ताकर्षक दर्शन कराया जाता है। इस दर्शन के दौरान अन्नकूट का एक बहुत बड़ा ढेर (कूट) घर-मंदिर के प्रांगण में सजाया जाता है। इस पर जैसे ही एक ग्वाल कूदता है वैसे ही वहां उपस्थित भक्तों का अपार जनसमुदाय देखते ही देखते अन्नकूट के उस पहाड़ को लूट लेता है। ’ग्वाल कूद’ झांकी का यह आयोजन इंद्रकोप के उपरांत गिरिराज महाराज द्वारा ब्रज की रक्षा करने के उत्साह व उल्लास में आयोजित किया जाता है।

वल्लभ कुल सम्प्रदाय में अन्नकूट महोत्सव की अत्याधिक महत्ता है। श्रीकृष्णकालीन इस महोत्सव को वल्लभ कुल सम्प्रदाय के प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभाचार्य ने विशेष महत्ता व वैभव प्रदान किया हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य के समय में गिरिराज-गोवर्धन को केवल ’सखरी’ (कच्चा भोजन), अनसखरी (पक्का अर्थात तला हुआ भोजन), दूध से बनाए गए कुछ पदार्थों एवं फल व मेवा आदि का ही भोग लगाया जाता था, किंतु उनके द्वितीय पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ महाराज ने इस भोग को, मेवा को और अधिक विस्तार दिया। उसी परंपरा में आग अन्नकूट के ’छप्पन भोग’ (कुनबाड़ा) के रूप में वृहद् आयोजन होते हैं।

अपने आराध्य ठाकुर गिरिराजजी महाराज को भोग लगाने के निमित्त गोस्वामी विट्ठलनाथ महाराज ने विक्रमी संवत् 1615 में सर्व प्रथम 56 भोग की प्रथा प्रारंभ की थी। अनेक विद्वतजनों ने छप्पन भोग की आध्यात्मिक, आधि दैविक व आधि भौतिक महत्ता प्रतिपादित की है। 56 भोग के संबंध में अनेक मान्यताएं हैं। विभिन्न पुराणों में यह वर्णन है कि ब्रज की 56 गोपिकाओं ने गिरिराज गोवर्धन को 56 प्रकार के व्यंजनों से भोग लगा कर उनकी आराधना की थी। 56 भोग में 56 की संख्या जुड़ने के संबंध में एक मान्यता यह भी है कि भगवान श्रीकृष्ण कमल के सिंहासन पर विराजमान रहते हैं। कमल के तीन भाग होते हैं। इसके प्रथम भाग में 8, दूसरे भाग में 16 तथा तीसरे बाग में 32 पखुंड़ियां होती हैं। इस प्रकार कुल 56 पंखुड़ियों का कमल होता है। ब्रज मंडल की कल्पना भी कमलाकार रूप में किये जाने से उसके 56 दल माने गए हैं। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि द्वापर युग में गिरिराज गोवर्धन की पूजा कर उन्हें 9 नंद, 9 उपनंद, 6 वृषभानु, 24 पटरानी और 8 सखाओं ने एक-एक व्यंजन            अर्पित किया था। इस प्रकार कुल 56 भोग की परंपरा प्रारंभ हुई। एक मान्यता यह भी है कि ब्रज में भगवान को सारे दिन में 8 बार भोग लगाए जाने की परंपरा है। चूंकि भगवान श्रीकृष्ण निरंतर 7 दिनों तक गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर धारण किये रहे थे। अत: देवराज इंद्र ने उनके सात दिनों तक निराधर रहने की एवज में उनसे क्षमा याचना कर 7×8=56 प्रकार के लजीज भोग अर्पित किए थे। अत: यहां से भी 56 भोग की परंपरा का सूत्रपात माना जाता है।

56 भोग पाक कला का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें पाक कला में वर्णित छ: प्रकार के पदार्थों-चोस्य (चूसने वाले), लेस्य (चाटने वाले), भोज्य (खाने वाले), भक्ष्य (भक्षण वाले) और पेय (पीने वाले) का समावेश रहता है। इसके अंतर्गत हजारों प्रकार के व्यंजन बनाए जा सकते हैं। कुछ प्रमुख सामठिायों के नाम इस प्रकार हैंगुंजा, चटगुंजा, बेसन सेव के लड्डू, बूंदी, सफेद व केशरिया सूत फैनी, चंद्रकला, पराठा, मठरी, घेवर, जलेबी, इन्दरसा, मगद का लड्डू, मालपुआ, सकरपारा, हलवा, श्रीखंड, रायता, कांजी बड़ा, सेव, तिल बड़ी, कढ़ी, कचरिया, पापड़, मिरच बड़ी, गांठिया, खाजा, मैसू पाग, चावल, मखाना आदि की खीर, लुचई, खमण, ढोकला आदि। दूध से बने पदार्थों में सादा बर्फी, केसरिया बर्फी, अघौटा दूध, खोये की गुझिया, पेड़ा, दूध पूड़ी, मलाई का लपेटा, मेवा वाटी, गजक, तिलगनी, रबड़ी, बांसोदी, गुलाब जामुन, शीतल भोग, बादाम-पिस्ता-काजू-चिरोंजी आदि के भाग प्रमुख हैं। सूखे मेवे व मौसमी फल भी भगवान की सेवा-पूजा में 56 भोग के दौरान रखे जाते हैं।

गोवर्धन के अलावा समूचे ब्रज के वृंदावन, नंदगांव, बरसाना, गोकुल, बल्देव, कामवन, मथुरा आदि स्थानों पर भी अन्नकूट महोत्सव किये जाते हैं। इस दौरान भजन संध्या, ढांढी-ढांढिन नृत्य होते हैं। चूंकि इससे समूचे ब्रज का विशाल जनसमुदाय प्रतिबद्ध है इसलिए इसके आयोजन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के लगभग एक माह बाद तक भी लोग-बाग यत्र-तत्र अपने घरों व मंदिरों में अपनी सामर्थ्य व
सुविधानुसार करते रहते हैं।
वस्तुत: गोवर्धन पूजा और अन्नकूट महोत्सव भगवान श्रीकृष्ण की एक अलौकिक लीला है।

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