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कृष्णं वंदे जगद्गुरूम्

कृष्णं वंदे जगद्गुरूम्

by विद्याधर ताठे
in अगस्त-सप्ताह दूसरा, अध्यात्म
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जिन्हें भारतीय जीवन मूल्य एवं विचार दर्शन का पूर्ण रूप से आकलन करना है उनके लिए पूर्णावतार श्रीकृष्ण का चरित्र एवं विचार दीपस्तंभ की तरह हैं। विश्ववंद्य भगवद् गीता का उद्गाता, महाभारत के अधिनायक भगवान श्रीकृष्ण याने धर्माधिष्ठित समाज नीति एवं राजनीति का सुंदर संगम है।

भारतीय संस्कृति का ताना-बाना यदि किसी के चारों ओर बुना गया है तो वह हैं भगवान श्रीकृष्ण एवं भगवान राम। ये दो महापुरुष भारतीय एकता एवं एकात्मता के दर्शन हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम भारतीयों के आदर्श आचार हैं तो पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्ण भारतीयों का विचार है। श्रीकृष्ण याने स्थितप्रज्ञता, स्वत्व, स्वाभिमान, अतुलनीय वीरता, पराक्रम, विजिगीषु वृत्ति, चातुर्य एवं राजनयिकता का आदर्श दर्शन है। वे एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं। उनका आकलन करना जितना सहज – सरल लगता है, उतना ही वह गूढ़ एवं कठिन है, अतर्क्य है। जब तक हमें लगता है कि हम उन्हें समझ गए हैं उसी समय लगने लगता है, अभी तो उन्हें समझना बहुत बाकी है। हमारी पहचान के क्षितिज से वे हमेशा दस अंगुल दूर ही रहते हैं। इसलिए गत सैकड़ों वर्षो से भगवान श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व का जादू भारतीयों के मन पर काम कर रहा है। इतना ही नहीं तो ’इस्कॉन’ सरीखी संस्थाओं के माध्यम से कृष्ण भक्ति का डंका विदेशों में भी बज रहा है।

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानंदम् कृष्णं वंदे जगद्गुरूम्॥

इस श्लोक के द्वारा समस्त कृष्ण भक्त, भगवान श्रीकृष्ण का नित्य प्रेरणादाई चिंतन, स्मरण, पूजन करते हैं। इन दो पंक्तियों में संपूर्ण कृष्ण चरित्र का सार समाहित है।

’परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥’
यह श्लोक श्रीकृष्ण अवतार कार्य का सार है।

कच्छप, मत्स्य, वराह, वामन जैसे अनेक अवतार भगवान ने लिए हैं, उनमें से अधिकतर अंशावतार हैं। परंतु श्रीकृष्ण अवतार पूर्णावतार माना जाता है। भगवद् अवतार के तीन प्रमुख कारण माने जाते हैं। पहला, साधु और संत समाज की रक्षा; दूसरा, दुष्ट – दुर्जनों का विनाश और तीसरा धर्म की पुनः स्थापना। ये तीनों कार्य श्रीकृष्ण अवतार में हुए इसलिए कृष्णावतार को पूर्ण अवतार कहा जाता है। अन्य अवतारों में इनमें से एक या दो कार्य हुए, इसलिए उन्हें अंशावतार कहा जाता है। श्रीकृष्ण ने अनेक दुष्टों का संहार कर समाज की सज्जन शक्ति का रक्षण किया वैसे ही विश्ववंद्य भगवद् गीता के उपदेश के माध्यम से धर्म संस्थापना भी की। वेद, उपनिषदों के सम्यक सार के रूप में श्रीमद्भागवत गीता हिंदुओं का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है, विश्ववंद्य है।

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नंदन।
पार्थो वत्स: सुधी:भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत।

ऐसा भगवत गीता का स्वरूप एवं महानता है। इसके कारण लोकमान्य तिलक, योगी अरविंद, विनोबा भावे, डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन, राजाजी जैसे अनेक जन नेता, और चिंतकों ने भगवद् गीता से मार्गदर्शन एवं प्रेरणा प्राप्त की है। आध्यात्मिक – धार्मिक टीकाकारों, आचार्यों द्वारा भगवद् गीता की प्रतिपादित महत्ता एवं उसकी टीका, यह भारतीय वैचारिक चिंतन साहित्य का अमृत कुंभ है।

भगवान श्रीकृष्ण का व्यक्तिमत्व इतना उदात्त, व्यापक एवं अनंत है कि उसे किसी एक व्याख्या में बांधना बहुत कठिन है। वास्तव में श्रीकृष्ण एक तत्व है, एक विचार है और वह शब्दातीत एवं शब्द अगोचर है। श्रीकृष्ण के अनंत, व्यापक व्यक्तिमत्व की खोज युगों से चल रही है। वह एक चिरंतन शोध यात्रा है। श्रीकृष्ण जीवन एवं विचार में नित्य नूतनत्व है वैसे ही उसमें एक सनातन तत्व भी है।

भगवान श्रीकृष्ण के समग्र कार्य का संक्षेप में दर्शन इस प्रकार है:- ’परित्राणाय साधूनां ’ – इसके अनुसार श्रीकृष्ण ने गोकुल वासियों की इंद्र के कोप से रक्षा की, उन्हें निर्भय बनाया। दुष्ट कंस का वध कर उसके सज्जन पिता उग्रसेन को पुनः राजगद्दी पर बिठाया तथा इस प्रकार राज्य की सज्जन शक्ति को कंस से मुक्ति दिलाई। प्रागज्योतिषपुर के राजा नरकासुर का वध कर हजारों अबलाओं को मुक्त किया एवं उन्हें सम्मान का जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान किया।

’विनाशायच दुष्कृताम्’ – बाल्यकाल में ही पूतना, तृणावर्त अघासुर, धेनुकासुर इन दुष्टों का गोकुल में वध किया। कालियामर्दन करके सारा परिसर भयमुक्त किया। मथुरा जाकर मदांध हाथी कुवलायापीड को मार कर कंस के कुटिल मल्ल चाणूर को भी मार डाला। इतना ही नहीं तो कंस को भी, जो उसका मामा ही था, सबके सामने सिहासन से नीचे खींचकर मार डाला। जरासंध के सेनापति हंस तथा डिंभक को चतुराई से समाप्त किया एवं जरासंध को पराजित किया। कालयवन राक्षस को योजनाबद्ध तरीके से जला दिया। नरकासुर के राक्षस साथी मूर एवं निशुंभ का वध कर अंत में नरकासुर का भी वध किया। उन्मत्त, उद्दंड राजा शिशुपाल का सुदर्शन चक्र से शिरच्छेद किया। इस प्रकार अनेक दुष्टों का नाश कर पृथ्वी पर से पापाचार का अंत किया।

’धर्मसंस्थापना’ – महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र में मोहग्रस्त अर्जुन को गीता का उपदेश कर की वीरवृत्ति को जागृत किया। भगवद् गीता श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के माध्यम से समस्त मानव जाति को दिया गया कर्तव्याचरण का उपदेश है। ’केवल युद्ध करो’ ऐसी अर्जुन को आज्ञा ना देते हुए, अर्जुन के मन की मोहग्रस्त निराशा दूर करते हुए, अर्जुन के मन की शंकाओं एवं प्रश्नों के उत्तर कर्म, शक्ति, ज्ञान और योग ऐसे व्यापक ज्ञान सहित दिए। गीता ज्ञान की अनेक विद्वानों, आचार्यों ने महत्ता बताई है परंतु कुछ लोग हैं जो शंका या कुतर्क करने से बाज नहीं आते। वे आक्षेप करते हैं कि अर्जुन के सारे प्रश्नों के उत्तर श्रीकृष्ण ने दिए ही नहीं! परंतु स्वजनमोह से ग्रस्त अर्जुन को युद्ध के लिए उद्युक्त करना श्रीकृष्ण का मुख्य उद्देश्य था और वह अर्जुन के ’नष्टो मोहा:’ इन उद्गारों से एवं ’करिष्ये वचनम् तव’ इस आश्वासन से सफल रहा। भगवद् गीता पर की अनेक टीकाएं एवं भाष्य यह भगवद् गीता की महत्ता को दर्शाती है।

श्रीकृष्ण को अनेक बार राजा बनने का अवसर मिला, परंतु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। वे ’किंग’ की अपेक्षा ’किंगमेकर’ बने। यह उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है। कंस के वध के बाद मथुरा के सिहासन पर श्रीकृष्ण ही बैठे ऐसा अक्रूर, उग्रसेन इत्यादि अनेक यादवों का मत था। परंतु कृष्ण ने कंस के बंदी पिता उग्रसेन को ही पुनः राज्य सिंहासन पर बैठाया। वैसे ही नरकासुर का वध के बाद भी श्रीकृष्ण स्वयं प्रागज्योतिषपुर के राजा हो सकते थे, परंतु उन्होंने नरकासुर के पुत्र को ही राजा बनाया। यादवों के अनेक राज्य थे, परंतु श्रीकृष्ण किसी भी राज्य के राजा नहीं बने परंतु उन्होंने सबके लिए फ्रेंड, गाइड एवं फिलॉसाफर की भूमिका का निर्वाह किया।

स्वतः राजा, सम्राट ना बनते हुए अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र रक्षक, समाजोद्धारक के रूप में श्रीकृष्ण का अनोखा नेतृत्व आज के शासकों द्वारा आदर्श मानकर अनुकरण करने लायक है। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को युद्ध के लिए प्रवृत्त करने को अनेक तथाकथित बुद्धिवादी आक्षेपार्ह मानते हैं। परंतु अर्जुन द्वारा किया गया युद्ध स्वयं के स्वार्थ के लिए ना होकर सत्य, न्याय एवं अंततः समाज के कल्याण हेतु था।

श्री कृष्ण की राजनीति अत्यंत उदात्त, व्यापक एवं जन कल्याण हेतु थी। उसमें व्यक्तिगत स्वार्थ या कोई दूषित भावना नहीं थी। आज धर्म और राजनीति को मिलाना अनेक तथाकथित प्रगतिशील एवं पश्चिमी विचारकों को आक्षेपार्ह लगता है। उन्हें श्रीकृष्ण की धर्माधिष्ठित राजनीति का गहराई से अध्ययन करना चाहिए।

’रिलिजन एंड पॉलिटिक्स आर इनविजिबल’ इसका सुंदर मेल हमें श्री कृष्ण के संपूर्ण जीवन दर्शन में मिलता है। जिन्हें भारतीय जीवन मूल्य एवं विचार दर्शन का पूर्ण रूप से आकलन करना है उनके लिए पूर्णावतार श्रीकृष्ण का चरित्र एवं विचार दीपस्तंभ की तरह हैं। विश्ववंद्य भगवद् गीता का उद्गाता, महाभारत के अधिनायक भगवान श्रीकृष्ण याने धर्माधिष्ठित समाज नीति एवं राजनीति का सुंदर संगम है। इसीलिए श्रीकृष्ण का सर्वत्र-
’कृष्णं वंदे जगद्गुरूम्’ के रूप में वंदन किया जाता है।
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