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राजनीति में हिंदुत्व का अधिष्ठान भी मंदिर निर्माण

राजनीति में हिंदुत्व का अधिष्ठान भी मंदिर निर्माण

by डॉ. अजय खेमरिया
in अगस्त-सप्ताह दूसरा, अध्यात्म
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असल में कांग्रेस औऱ दूसरे सेक्यूलर दलों ने जिस दबी जुबान में मंदिर निर्माण का स्वागत किया है उसे संसदीय सियासत के करवट लेते हुए घटनाक्रम के रूप में भी देखे जाने की जरूरत है। …कल तक जो राजनीति हिंदुओं के सांस्कृतिक मानमर्दन पर फलती फूलती रही है उसका चेहरा औऱ कोण दोनों बदलने वाले हैं।

कोविड-19 की महामारी के बीच भारत के समक्ष आगामी चुनौतियां कम नहीं हैं, लेकिन यह निर्विवाद तथ्य है कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हमने इस कठिन दौर का सामना तुलनात्मक तौर पर बेहतर ढंग से किया है। इस अवधि में जहां दुनिया के सम्पन्न औऱ ताकतवर राष्ट्र अपने आप को संभालने में लगे रहे वहीं भारत ने इस कठिन दौर में भी अपनी प्राथमिकताओं से समझौता नहीं किया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूर्व निर्धारित राष्ट्रीय महत्व के सभी काम समय पर हो रहे हैं। चीन की चुनौती का जिस दृढ़ता के साथ हमने सामना किया वह भविष्य के उस नए भारत की तस्वीर को विश्व मंच पर सुस्थापित कर गया है जो कभी परम्परागत रूप से एक सॉफ्ट स्टेट की रही है। भारत अब साफ्ट नहीं सशक्त मुल्क बन रहा है, जो पाकिस्तान जैसे खुरापाती को उसके घर में जाकर ठीक करना जानता है। वह ड्रैगन के पंजे को बराबरी से हटाने में किसी की अनुमति का इंतजार नहीं करता है। राफेल की चीनी सीमा पर तैनाती कोरोना संकट में हमारी सामरिक प्राथमिकता के महत्व को स्वयंसिद्ध कर गया। 34 साल बाद नई शिक्षा नीति को आकार देने के बहु प्रतीक्षित काम को मोदी सरकार ने इसी अवधि में करने का काम किया। 500 साल की सनातन स्वाभिमान से जुड़ी राम मंदिर की लड़ाई को कोरोना चुनौती में ही साकार करने का संकल्प सिद्धि की ओर बढ़ाया जाना भी नए भारत की वैभवशाली तस्वीर औऱ सामर्थ्यवान इबारत की झलक देता है।

जाहिर है कोरोना की खतरनाक वैश्विक महामारी के संत्रास में भी भारत मोदी के नेतृत्व में अपनी प्राथमिकताओं पर पूरे पराक्रम के साथ आगे बढ़ेगा।
राम मंदिर के कार्यारंभ ने भारत में एक नई चेतना का अभ्युदय सुनिश्चित किया है। छद्म सेक्युलरिज्म ने जिस आत्मविलग भारत को पिछले 70 साल में खड़ा किया गया है उसकी नींव हिलने लगी है। भारत के स्वत्व को भुलाकर जिन मुगलई एवं औपनिवेशिक तत्वों को वैचारिक रूप से हमारे लोकजीवन में बेताल की मानिंद लटकाकर रखा गया है उसने भारत की मूल चिंतन परम्परा को ही तिरोहित कर दिया है। भारत मानव सभ्यता का अधिष्ठाता है इस तत्व पर गौरव भाव अगर नागरिकों को नहीं रहा है तो इसके लिए बुनियादी रूप से छद्म सेक्युलरिज्म की सियासत जिम्मेदार है। 2014 कि बाद से यह सियासत लगातार कमजोर हो रही है और आम भारतीय के मन मस्तिष्क में अपने गौरवशाली सांस्कृतिक मानबिन्दुओं के प्रति एक स्वतः स्फूर्त चेतना का भाव जाग्रत हुआ है।

राम मंदिर को लेकर करोड़ों भारतीय जिस तरह आल्हादित नजर आए वह स्वत्व के पुनर्जागरण का प्रतीक ही है। इसे हिन्दू पुनरुत्थान का नाम देकर लांछित करने का काम वाम बुद्धिजीवियों द्वारा किया जा रहा है लेकिन यह सुस्थापित तथ्य जैसा स्पष्ट है कि अब सामान्य भारतीय के मन में अपनी समृद्ध परम्पराओं औऱ इतिहास के प्रति सोच में बदलाब आ रहा है।

सरसंघचालक डॉ. मोहनजी भागवत ने राम मंदिर के कार्यारंभ पर जो वक्तव्य दिया उसके निहितार्थ बहुत ही प्रमाणिक हैं। उन्होंने भारतीयता की अवधारणा का दिग्दर्शन इस वक्तव्य में अभिव्यक्त कर बता दिया कि हिंदुत्व दुनिया में अकेली सर्वसमावेशी जीवन पद्धति है। अल्पसंख्यकवाद की सियासत ने जिस तरह मुसलमानों को वोट बैंक बनाने का काम किया उस पर अब विराम लगने की शुरुआत हो रही है। असल में कांग्रेस औऱ दूसरे सेक्यूलर दलों ने जिस दबी जुबान में मंदिर निर्माण का स्वागत किया है उसे संसदीय सियासत के करवट लेते हुए घटनाक्रम के रूप में भी देखे जाने की जरूरत है। मप्र कांग्रेस के दफ्तर पर श्रीराम की तस्वीर लगाकर निर्माण का स्वागत किया जाना, कमलनाथ औऱ दिग्विजयसिंह का भगवा बाना पहनकर हनुमान चालीसा पढ़ने के उपक्रम संसदीय राजनीति में हिन्दू सेंटीमेंट्स के अधिष्ठान का संकेत भी है। यानी यह समझा जा सकता है कि कल तक जो राजनीति हिंदुओं के सांस्कृतिक मानमर्दन पर फलती फूलती रही है उसका चेहरा औऱ कोण दोनों बदलने वाले हैं। इसे हम अल्पसंख्यकवाद के अस्ताचल की शुरूआत भी कह सकते हैं।

यह भी तथ्य है कि भारत का बुनियादी चरित्र सर्वधर्म संभाव का है। भारत ने कभी किसी मुल्क पर आक्रमण नहीं किया है न ही किसी मजहब को तलवार के दम पर दमित या पल्लवित किया है। यह हिंदुत्व की उदारमना प्रकृति ही है कि इसकी छत्रछाया में सर्वाधिक धर्मों का प्रादुर्भाव हुआ है। इसके बाबजूद भारत में यह धारणा बनाकर सियासत होती रही है कि अल्पसंख्यक भयादोहित हैं। सेक्युलरिज्म के नाम पर भारत को जितना नुकसान हुआ उतना दुनिया में किसी को नहीं हुआ है। भारत की बर्बादी के नारे इसी सेक्युलरिज्म की देन है। कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक जो अलगाव की फसल खड़ी हुई उसके बीज भी अल्पसंख्यकवाद की राजनीति का प्रतिफल है।

प्रधानमंत्री मोदी के आने के बाद पहली बार हिंदुत्व की अंतर्निहित अवधारणा भारत को एक सशक्त मुल्क के रूप में योग दे रही है। ऐसा भारत जो बुद्ध की करुणा के साथ महावीर की निर्भीकता को भी धारण करता है। नई पीढ़ी का भारत अगर अपने पुरखों की पुण्याई पर गर्व से सीना चौड़ा कर रहा है तो इस पर आपत्ति का औचित्य क्या है? क्या दुनिया में कोई भी देश अपनी गौरवपूर्ण विरासत को खुद अपनी कलम से कमतर करता है? सिवाय भारत के ऐसा उदाहरण दूसरा नहीं रहा है। इतिहास की इन आत्मघाती करतूतों को बदलने की शुरुआत अयोध्या के साथ संभव है। वामपंथी इस नए भारत को खतरे के रूप में प्रचारित कर रहे हैं लेकिन वे भूल रहे हैं कि मोदी भारत के स्वत्व का लोकतांत्रिक उपकरण भी हैं। राम मंदिर का कार्यारंभ भी संघर्ष की न्यायिक विजय का पर्व है। एक तरफ लोकतंत्र, बहुलता औऱ संविधान की दुहाई दी जाती है तो दूसरी तरफ इन संस्थाओं के उन निर्णयों को स्वीकार नहीं किया जा रहा है जो अल्पसंख्यकवाद को तुष्ट नहीं करते हैं।

कोरोना संकट के बाद सही मायनों में भारत नई पहचान की ओर अग्रसर है। प्रधानमंत्री की अपील पर जो अखिल भारतीय समेकन विभिन्न प्रकल्पों में नजर आया है वह भी आम नागरिक के मध्य उनकी स्वीकार्यता को स्वयं सिद्ध करने वाला है। मंदिर कार्यारंभ में जो उत्सवी माहौल अंतिम छोर तक नजर आया है उसके राजनीतिक संदेश को भी सियासी दलों ने समझा ही है। अंततः हिंदुत्व अब विमर्श में हिकारत नहीं गर्व औऱ सम्मान का विषय बन रहा है।
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