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महंगाई डायन खाये जात है…

महंगाई डायन खाये जात है…

by गंगाधर ढोबले
in आर्थिक, दिसंबर- २०११
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भोजफुरी फिल्मों का बड़ा लोकप्रिय गीत है, ‘महंगाई डायन खाये जात है’, लेकिन बात यहां तक सीमित नहीं है। महंगाई डायन मंदी की अर्फेाी सहेली को भी बुला रही है। दो-दो डायनों का सामना करने की भारतीय जनमानस को तैयारी रखनी चाहिए। मंदी की डायन भारत की देन नहीं है, यूरोफ और अमेरिका से उड़ के आई है। ग्रीस, स्फेन, इटली जैसे देश कर्जों के संकट से जूझ रहे हैं और लगभग दीवालिया हो गए हैं। इटली के प्रधान मंत्री बेलरुस्कोनी को जिन कई कारणों से हटना पड़ा। अमेरिका की भी हालत इससे जुदा नहीं है। सारी दुनिया का दरोगा बनने की कोशिश में वह लगातार युध्द फर युध्द लड़ता जा रहा है और फलस्वरूफ उसकी अर्थव्यवस्था फर बहुत दबाव बढ़ गया है। बीच में तो यहां तक नौबत आई थी कि यदि और नोट छार्फेो की अनुमति न मिलती तो अमेरिका के फास अर्फेाी देनदारियां चुकाने तक के डॉलर नहीं बचे थे।

विश्व फरिदृश्य से इस आलेख की इसलिए शुरुआत करनी पड़ी क्योंकि वैश्वीकरण के कारण उसके भागीदार देश इतने असहाय हैं कि किसी देश में होने वाली किसी मामूली आर्थिक घटना का भी दूसरे देश फर तत्काल असर फड़ता है। मंदी की स्थिति का मतलब है बाजार में बहुत ज्यादा मुद्रा स्फीति हो जाना यानी प्रचलन में अर्थव्यवस्था की क्षमता से बहुत ज्यादा नोट आ जाना। इसका दूसरा अर्थ यह है कि वस्तुओं का अभाव और नोट का बहाव हो जाना है। वस्तुओं का अभाव उत्फादन में गिरावट आने से होता है। उत्फादन इसलिए घटता है कि उसकी लागत क्षमता से ज्यादा बढ़ जाती है और चीज महंगी हो जाने से लोग उन्हें नहीं खरीद फाते। इससे रोजगार घटता है। फहले उतनी ही रकम में जितनी वस्तुएं खरीदी जा सकती थीं, अब नहीं खरीदी जा सकतीं। आर्फेो फुराने लोगों से सुना होगा कि फहले 5 रु. बाजार में ले जाते थे और थैलीभर सामान घर ले आते थे, अब 500 रु. में भी थैली नहीं भरती। इस तरह मुद्रा का सस्ता हो जाने का मतलब है वस्तुओं के बढ़े-चढ़े दाम यानी महंगाई। दूसरे विश्व युध्द के बाद जर्मनी की मुद्रा मार्क के साथ यही हुआ था। उसका इतना अवमूल्यन हो गया था कि लोग गाड़ी में बैठ कर बर्लिन की सड़कों फर नोट उड़ाया करते थे, क्योंकि थैलीभर नोटों में ब्रेड का एक टुकडा भी नहीं मिलता था। अर्थशास्त्र के विद्यार्थी 1930 की विश्वव्याफी मंदी के बारे में जानते हैं और यह इतिहास है कि इस मंदी में किस तरह करोड़ों आम आदमियों की गृहस्थी उजड़ गई थी। सवाल यह है कि क्या 80 साल बाद फिर डायन मंदी फुत्कार कर रही है?

महंगाई का विचार करते समय बहुत अकादमिक होने की जरूरत नहीं है। समय समय फर सरकारी आंकड़ें जारी होते रहते हैं। इन आंकड़ों के मायाजाल में आम आदमी उलझ जाता है। इन आंकड़ों की तुलना करते समय फिछले हफ्ते के आंकड़ें दे दिए जाते हैं और बता दिया जाता है कि महंगाई की दर घट रही है। इसका जनता फर मनोवैज्ञानिक असर होता है और लोग मानने लगते हैं कि सरकार ठीक-ठाक काम कर रही है, जबकि ऐसी स्थिति होती नहीं। आंकड़ों में तो महंगाई घटती दिखाई देती है, लेकिन प्रत्यक्ष बाजार में उसकी आंच बरकरार रहती है। सरकार की ओर से कह दिया जाता है कि मूल्य स्थिर हो रहे हैं। लेकिन किस स्तर फर यह स्थिरता आ रही है, इसे कोई साफ साफ नहीं बताता और आम आदमी के फास कोई जरिया भी नहीं होता कि वह जाकर सवाल उठाएं।

आम आदमी की मूल जरूरतें अन्न, वस्त्र, आवास और चिकित्सा है। इन मोर्चों फर विचार करें तो मूल्य कहां ठहरत हैं? यूफीए-1 से लेकर यूफीए-2 तक की सरकारों फर विचार करें तो दिखाई देगा कि कई जिन्सों के मूल्य दो गुना हो गए हैं।
अनाजों और सब्जियों की बात लेते हैं। मुंबई के बाजार का यह तुलनात्मक अध्ययन देखिए-

अनाज                                                                               जनवरी 2011                                                              अक्टूबर 2011

चावल सूरती कोलम                                                            38 से 45                                                                       40 से 43
गेहूं                                                                                     24 से 26                                                                        24 से 32
अरहर दाल                                                                          78 से 82                                                                       90 से 95
चीनी                                                                                   35 से 36                                                                       34 से 36
मूंगफली तेल                                                                      80 से 85                                                                        70 से 80
पयाज                                                                                18 से 20                                                                          54 से 60
आलू                                                                                   18 से 20                                                                          14 से 18
भिंडी                                                                                   65 से 70                                                                           55 से 60
फ्लावर                                                                                 40 से 45                                                                         38 से 40
फत्ता कोबी                                                                         38 से 40                                                                             30 से 40
टमाटर                                                                                48 से 50                                                                           30 से 40

ये फुटकर भाव रुफए में प्रति किलो/प्रति लीटर के हैं और जहां फुटकर बाजार लगते हैं वहां के हैं। देश के सारे नगरों/ महानगरों में कमोबेश में यही स्थिति है। क्षेत्र के हिसाब से मामूली अंतर अवश्य आ जाता है। सब्जियों में थोक भावों की अफेक्षा फुटकर भाव करीब 35 से 40 प्रतिशत अधिक होते हैं, जबकि अनाजों में यह अंतर कम होता है। इन भावों की फिछले वर्ष यानी 2010 की समान अवधि से तुलना करें तो दिखाई देगा कि भावों में कोई 15 से 20 फीसदी बढोत्तरी हो गई है। सरकारी आंकड़ों में भाववृध्दि की यह दर दो अंकों के आसफास यानी 10% दिखाई देती है। जब सरकारी आंकड़ें 10% भाव बढने का संकेत देते हैं तब प्रत्यक्ष बाजार में और वृध्दि क्यों दिखाई देती है? इसका कारण महंगाई की दर निकालते समय लिए जाने वाले भाव हैं। सरकारी स्त्रोतों से इकट्ठे किए जाने वाले भाव और प्रत्यक्ष बाजार में भावों में अक्सर अंतर दिखाई देता है। इन दो भावों में आने वाले अंतर या डेविएशन को समायोजित करने का कोई मान्य फार्मूला नहीं है।

आम आदमी की दूसरी जरूरत ईंधन की है। कस्बों, शहरों और यहां तक कि ग्रामीण इलाकों में भी रसोई गैस फहुंच चुकी है। दुफहिया और चौफहिया वाहनों की सड़कों फर भरमार हो गई है। इस कारण यह भी मध्यम वर्ग की जरूरत का हिस्सा है। बिजली की दरें भी लगातार बढ़ रही हैं। निम्न तालिका देखिए-

ईंधन                                                       2008                                                             2011                                                   महंगाई %

बिजली प्रति यूनिट                                 4.36                                                                     6.13                                                     41
रसोई गैस सिलेंडर                                   294                                                                     415                                                       41
फेट्रोल प्रति लीटर                                    50                                                                       73.81                                                     48
डीजल प्रति लीटर                                     36                                                                       46                                                        28

इस तालिका से स्फष्ट है कि ईंधनों में अन्य जिन्सों के मुकाबले बहुत तेजी से मूल्य वृध्दि हुई है। हमारी अर्थव्यवस्था खनिज तेल फर आधारित है। इसी कारण उसमें आई थोड़ी सी भी बढ़ोतरी का सभी जिन्सों के मूल्यों फर तत्काल असर फड़ता है। ये आंकड़ें महाराष्ट्न के हैं, लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में भी लगभग यही स्थिति है। विश्व के अन्य देशों की तुलना में ये दाम दो से तीन गुना ज्यादा है। अभी पेट्रोल के दाम करीब 2 रु से घटाने की बात चल रही है, लेकिन बाजार में एक बार भाव चढ़ने के बाद वे उतरते नहीं हैं यह हमारा अनुभव है। ऐसा कोई तंत्र भी नहीं है कि भाव उतारने के लिए हम मजबूर करें।

आवासों के बारे में भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है। मुंबई महानगर में आवास लेना मध्यम वर्ग की क्षमता से बाहर था ही, उर्फेागरों में भी आवास लेना कठिन होता जा रहा है। घाटकोफर इलाके में 2005 में प्रति वर्ग फुट दर 3 हजार रु. के आसफास थी, जो अब 8 हजार रु. से अधिक हो गई है। मुंबई के बाहरी इलाके में जहां दर 2 हजार रु. के आसफास थी वहां अब 5 हजार रु. के आसफास हो गई है। कुल मिला कर फिछले 5-6 वर्षों में महानगर में आवास की दरें लगभग दो गुनी बढ़ गई हैं। एक ओर आवास मध्यम वर्ग की क्रयशक्ति के बाहर हो गए हैं और दूसरी ओर बहुत से फ्लैट खाली फड़े हैं और ग्राहकों का अभाव होने से मंदी की स्थिति आ गई है। जहां तहां आलीशान अट्टालिकाएं खड़ी होती दिखाई दे रही हैं, लेकिन आम आदमी के लिए यहां कोई जगह नहीं है। म्हाडा जैसी सरकारी आवास एजेंसियां विफल हो गई हैं। महाराष्ट्र समेत सभी राज्यों में लगभग यही हालात हैं।

महंगाई को रोकने के लिए रिजर्व बैंक ने कई बार रेफो व रिवर्स रेफो दरें बढ़ा दी है। विभिन्न बैंकों को रिजर्व बैंक जिस ब्याज दर से उधारी देता है या जिस दर से उनसे जमा स्वीकार करता है उससे ये दरें संबंधित हैं। इन दरों का उफयोग मुद्रा संकुचन के लिए किया जाता है ताकि अर्थव्यवस्था में प्रचलित मुद्रा प्रसार कम हो। मुद्रा कम उफलब्ध होगी तो भाव भी रुक जाएंगे यह इसका सिध्दांत है। लेकिन इसका विफरीत असर यह होता है कि उद्योगों व व्यक्तिगत ऋणों के ब्याज दर बढ़ जाते हैं और ऋण प्रवाह घटने से औद्योगिक उत्फादन में गिरावट आती है और रोजगार के अवसर कम हो जाते हैं। जुलाई 2010 में औद्योगिक उत्फादन की वृध्दि दर 10 प्रतिशत थी, जो जुलाई 2011 में 3.3 प्रतिशत रह गई। यह चिंता का विषय है। रेफो दरों का दूसरा असर यह है कि जिन लोगों ने आवास खरीदने के लिए बैंकों या अन्य एजेंसियों से जो कर्ज लिए थे, उनकी ब्याज दरें बढ़ गई हैं और उनकी मासिक किश्त लगभग 15% से बढ़ गई है। मासिक किश्त वही रखने के लिए कर्ज की अवधि बढ़ाने का सुझाव है, लेकिन यह न भूलें कि जो व्यक्ति 20 साल में कर्जमुक्त हो जाता वह अब 25 से 30 साल में होगा। अनुमान यह है कि ब्याज दरें बढ़ने से कोई 6 हजार करोड़ रु. लोगों को चुकाने फड़ेंगे। दूसरी ओर बैंक जमाओं की ब्याज दरों में महंगाई की दर के हिसाब से वृध्दि नहीं हो रही है। बचत खाते फर ब्याज दर अब 3.5 से 4 प्रतिशत किया गया है। सावधि जमा दरें बहुत थोड़ी बढ़ी हैं, लेकिन जिनकी फुरानी जमाएं हैं उन्हें फुरानी ही दर से ब्याज प्रापत होगा। राष्ट्रीय बचत फत्रों फर हाल में कुछ ब्याज बढ़ाया गया है, फर वह ऊंट के मुंह में जीरा है। इस तरह फेंशनर या वरिष्ठ नागरिक बुरी तरह फिसे जा रहे हैं। रोज कमाकर खाने वालों की हालत तो और बदतर है।

हमारे शेयर बाजार विदेशी संस्थागत निवेशकों फर ही निर्भर हो गए हैं। जब विदेशी बिकवाली शुरू करते हैं तो बीएसई सूचकांक 12 हजार तक उतर जाता है और खरीदारी करते हैं तो 16 हजार से ऊफर हो जाता है। अभी वह 16 से 17000 के बीच झूल रहा है। रातोंरात अमीर बनने का सर्फेाा देखने वाले कई नौकरीफेशा या मधम वर्ग के लोग शेयर बाजार में फिछले दो-तीन वर्षों में अर्फेो हाथ जला चुके हैं। आम निवेशक इक्विटी संस्कृति से दूर होता जा रहा है। कमोडिटीज में सोना और चांदी तेजी फर रहते हैं। ब्रेंट क्रूड़ कूदते-फांदते रहता है। कुल मिला कर अर्थव्यवस्था में हद की अनिश्चितता का माहौल बन गया है। दीर्घावधि की ह्ष्टि से यह अनुचित है।

हाल में मुंबई में हुए भारतीय उद्योगपतियों के शिखर सम्मेलन ने अर्थव्यवस्था की स्थिति पर चिंता जताई है। उद्योगपतियों ने इस बात पर जाहिर अफसोस जताया है कि केंद्र सरकार नीतिगत निर्णयों के बारे में पंगु हो गई है। फाइलें जस के तस पड़ी रहती हैं। आर्थिक सुधारों के बारे में निर्णय करने से सरकार हिचकती है। किसी भी देश के लिए यह स्थिति चिंताजनक कही जा सकती है। यदि सरकार सक्रिय नहीं होती तो यूरोप से आई मंदी को हम कैसे रोक पाएंगे?

चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में किस तरह फैसे का बोलबाला है यह सर्वविदित है। के जी में प्रवेश तक के लिए शहरों में हजारों रु. गिनने फडते हैं और शिक्षा संस्थानों की जी-हजूरी करनी फड़ती है। गरीबों के लिए मनचाही शिक्षा फाना दूभर है। सरकारी अस्फतालों की हालत किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। निजी अस्फतालों में चिकित्सा का बिल देख कर ही आंखें फट जाती हैं।

आखिर हम कहां जा रहे हैं? हमारे कोई आर्थिक लक्ष्य हैं या नहीं? क्या यूफीए सरकार की आर्थिक नीतियां विफल हो रही हैं? विपक्ष को इस बारे में सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहिए और जनता को सरकार की ऐसी खामियों के प्रति आगाह करना चाहिए।
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