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संयोग से

संयोग से

by सरला अग्रवाल
in कहानी, दिसंबर- २०११
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दोपहर का समय था। राजीव घबराया हुआ सा घर में घुसा… उसके अभिन्न मित्र शार्दूल के पिताजी को हार्टअटैक आने के कारण जे. एन. अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 48 घण्टे के आब्जर्वेशन एवं एंज्योग्राफी की रिपोर्ट में उन्हें तुरन्त बाईपास सर्जरी कराने की सलाह दी गई दी।
नर्सिंग होम के ओ.पी.डी. से निवृत्त होकर आये अपने पापा से उसने शार्दूल के अस्पताल में भर्ती पिता को देखकर आने की अपनी इच्छा जताई।
‘‘पर तुमने तो बताया है कि वह आई.सी.यू. में हैं। उनसे कोई भी कैसे मिल सकता है बेटे?’’ पिता ने पूछा था।
‘‘पापा शार्दूल, उसकी मम्मी, बुआजी, दीदी तो वहां मिलेंगे ही न? हम जाकर उन्हें ढ़ाढ़स बंधायेंगे, उनसे उनके पापा की हालत के विषय में पूछेंगे। यदि उन्हें हमारी किसी सहायता की जरूरत हुई तो हम कर सकेंगे। पापा आप खुद भी तो हार्टस्पेशलिस्ट हैं। आप चल कर उन्हें एक बार देखे तो सही, यदि आप ही उनका ऑपरेशन करें तो?’’
‘‘कैसी मूर्खता की बातें करते हो राजीव? यह कोई हंसी-मजाक और बच्चों का खेल थोड़ी न है। पर तुम कह रहे हो तो शाम को विजिटिंग आवर्स में उन्हें देखने चले चलेंगे।’’
‘‘पापा शाम को तो आप अपने अस्पताल चले जायेंगे। जिस सरकारी अस्पताल में वे भर्ती हैं, वह हमारे घर से काफी दूर है, इसीलिए तो मैं आपसे ये सब कह रहा हूं।’’ पुत्र राजीव के नेत्रों में आये आंसुओं को देखकर डॉ. वैशम्पायन का हृदय द्रवित होने लगा था।
‘‘आइये, खाना मेज पर लग गया है।’’ तभी राजीव की मम्मी दिव्या ने आवाज दी।
‘‘सुनो दिव्या, ये राजीव क्या कह रहा है? इसके दोस्त शार्दूल के पिता अस्पताल में भर्ती हैं, उन्हें देखने चलना है।’’ डॉ. साहब ने पत्नी की आंखों में झांकते हुए प्रश्न के लहजे में यह बात कही थी।
‘‘कह तो रहा है, पर न जाने क्यों मुझे इसकी शार्दूल से इतनी दोस्ती बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। उनका परिवार हमारे स्तर का नहीं है। वह जब भी आता है, न ढंग से कपड़े पहने होता है और न ही जूते मोजे ही। कभी रबड़ वाली घर में पहनने की बाथरूम स्लीपर्स में ही आ जाता है। इन बातों से लगता है कि वे काफी गरीब हैं शायद।’’ दिव्या ने पति की ओर देखते हुए उत्तर दिया और आगे कहने लगी, ‘‘हर प्रकार के लोगों से मेल-जोल बढ़ाना ठीक नहीं, न जाने उसके माता-पिता का स्वभाव कैसा होगा।’’
‘‘मम्मी, शार्दूल कक्षा में हमेशा प्रथम श्रेणी में पास होता है, आपको ये मालूम है? मैं जब कभी क्लास में अनुपस्थित होता हूं, तो उसी के नोट्स लेकर उतारता हूं। वह कभी मना नहीं करता और कोई लड़का अपने नोट्स नहीं देता। मुझे जो समझ में नहीं आता, वह मुझे बड़े पयार से समझा देता है, और लड़कों की भांति न कभी नखरा करता है, न अकड़ता है और न ही बदले में कोई पार्टी, कोल्डड्रिन्क या फिल्म दिखाने की बात करता है।’’
बेटे की बातें सुनकर डॉ. साहब मुस्करा दिये। ‘‘अच्छा बेटा, सोचता हूं कुछ। तुम अब पहले खाना खाओ, मम्मी ने सबकी प्लेटें लगा दी हैं। स्वाति नहीं दिखाई दे रही? कहां है? उसे भी बुलाओ, कहो आकर खाना खाये।’’
‘‘उसके स्कूल में फंक्शन है आज! वह खुद भी उसमें पार्ट ले रही है, देर से आयेगी। वह टिफिन साथ ले गयी है।’’ दिव्या ने उत्तर दिया।
‘‘दिव्या! गरीब होना कोई अपराध नहीं है। तुम ऐसा क्यों सोचती हो? हां, यह देखना जरूरी है कि हमारे बच्चे कैसे परिवार में जाते-आते हैं, उनका व्यवहार, आचार और विचार कैसे हैं संस्कार कैसे हैं? वे क्या करते हैं? कहीं किसी गलत कार्य में संलग्न तो नहीं हैं?’’ डॉ. साहब ने यह कह कर प्रतिक्रिया जानने के लिए पत्नी की ओर देखा।
दिव्या चुप रही। फिर भी कहने लगी, ‘‘यह तो ठीक है, तब भी इन्सान अपने स्तर के लोगों के साथ ही आना-जाना, उठना-बैठना करता है। यही शोभा देता है। किसी अन्य को बताने में भी अच्छा लगता है कि हमारी दोस्ती फलां से है।’’
डॉ. साहब ने बात को और बढ़ाना उचित नहीं समझा, बस यही कहा कि, ‘‘शाम को चलेंगे दिव्या। हम लोग शार्दूल के पिता को एक बार देख आयेंगे, राजीव के दोस्त के पिता हैं। वैसे भी उसी एरिया में मुझे अपना एक पेशंट भी देखना है, उसे भी देख लूंगा, कई फोन आ चुके हैं उसके। तुम भी सोच लो तुम्हें कुछ काम हो तो वहां का।’’
‘‘नहीं, मुझे तो कोई काम याद नहीं आता।’’
शाम को डॉ. मोहनलाल अस्पताल से कुछ शीघ्र वापस आ गये। वे राजीव और पत्नी दिव्या को लेकर जे.एन. अस्पताल गये। वहां पर उन्हें कोरिडोर में ही शार्दूल की मम्मी, शार्दूल तथा पूरा परिवार मित्र और परिचित खड़े दिखाई दिये। राजीव ने अपने पापा को शार्दूल की मम्मी से मिलवाया। उनके नेत्रों में अश्रु भरे थे। शार्दूल राजीव को वहां आया देख कर उसके गले से लगकर फफक पड़ा… ‘‘तू आ गया राज! मेरे पापा तो बहुत बीमार हैं। अब उनका ऑपरेशन कराना होगा, हमारे पास तो इतना रूपया भी नहीं है।’’
शीशे से झांक कर डॉ. मोहनलाल रोगी को देख रहे थे। वे शान्त चुपचाप आंखें भींचे लेटे थे। उन्हें देखते ही मोहनलाल चौंके पड़े। अरे! यह तो वही हैं, जिसे वह जीवन भर खोजते रहे हैं।
विगत बातें उनके नेत्रों के सम्मुख चलचित्र की रील की तरह घूमने लगी… यह बात तबकी है जब वे अपने छोटे से कस्बे से सी.पी. एम.टी. का टेस्ट देने के लिए दिल्ली जा रहे थे। पिताजी को उनके साथ जाना था, किन्तु उसी दिन उनकी तबीयत काफी खराब हो गयी थी, वे दमा के मरीज तो थे ही। पड़ोसी चाचाजी ने उसे रात्रि की बस में बिठा दिया था। ये बस सुबह के पांच बजे दिल्ली पहुंचा देती थी। टेस्ट सुबह के आठ बजे आरम्भ होने वाला था।
पिताजी ने समझाया था कि वह बस स्टैन्ड पर ही नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कुछ खा-पी कर टेस्ट देने चला जाये। टेस्ट देकर वापस बस से गांव आ जाये। दिल्ली वह पहली ही बार जा रहा था। इससे पिछले वर्ष उसने अन्य कई राज्यों के मेडीकल टेस्ट दिये थे, किन्तु निराशा ही हाथ लगी थी।
वह बस में बैठा था, अर्द्धरात्रि से ऊपर हो चुका था। हाइवे के सुचिक्कन साधे-सपाट मार्ग पर अंध:कार को चीरती बस द्रुत गति से दौड़ रही थी। सड़क के दोनों ओर खेत-खलिहान दिखाई दे रहे थे। सड़क के किनारों के सहारे लगे विशाल सघन वृक्षों के तनों पर पेंट श्वेत गोलाइयां बस की लाइटों के पड़ने पर चमक उठती थीं… बस पूरी भरी थी… दो-चार यात्री और भी सवार हो गये थे, जो सीटें उपलब्ध न होने के कारण खड़े हुए थे। सभी यात्री नींद में ऊंघ रहे थे… पर उसे तो अकेलेपन, भय और परीक्षा के तनाव के कारण नींद ही नहीं आ रही थी… कभी मन ही मन भगवान को स्मरण करता, तो कभी अपने याद किए हुए प्रश्नों को दोहराता।
तभी अचानक एक साथ पांच-छ: गोलियां चलने की आवाज आई… ठांय! ठांय! ठांय! और सड़क पर दूर बड़े जोर का विस्फोट हुआ। चलती बस अचानक झटके के साथ रुक गयी। एक भारी भरकम स्वर उभरा…
‘‘सभी लोग अपनी-अपनी सीटों पर बैठे रहें। कोई हिला भी तो गोली मार दी जायेगी… अपना-अपना नकद रुपया, जेवर और कीमती सामान हाथ में निकाल लो.. औरतें कान, नाक, गले, हाथों के जेवर उतार लें वर्ना हम खींच-खींच कर उतार लेंगे।’’ दो तीन खूंखार हट्टे-कट्टे लम्बे आदमी मुंह पर नकाब चढ़ाये हाथ में पिस्तौल लिए घूम-घूम कर सब यात्रियों से अपने अपने बैगों में रुपया और जेवर इकट्ठा करने लगे। बस रुक चुकी थी। ड्राइवर को गोलियों से मार कर सबके सामने बस से नीचे फेंक दिया गया था।
भारी-भरकम स्वर फिर उमरा, ‘‘अगर किसी ने भी चूंचपड़ की या माल छिपाया तो उसकी हालत भी इस ड्राइवर जैसी ही की जायेगी, याद रहे।’’
सभी यात्रियों ने भयभीत होते हुए अपने-अपने सामान, जेबों व बैगों में रखे रुपये तथा जेवर उतार-उतार कर उनके हवाले कर दिये। एक आतंकवादी गुंडा उसके पास भी आया और उसकी जेबें, बैग आदि सब खोलकर सारे रुपये ले लिए। वह सांस रोके चुपचाप बैठा रहा था… और कोई कर भी क्या कर सकता था? काले कपड़ों में, काली नकाब गर्दन से लेकर पूरी खोपड़ी पर चढ़ाये, हाथों में रिवाल्वर लिए वे चारों कई लोगों को पीट रहे थे, धमकाते हुए आतंक फैला कर वे अपना काम कर गये। सबका सर्वस्व लूटकर वे बस से उतर कर चलते बने। उनके लिए सड़क के किनारे वृक्षों के काले साये में एक कार खड़ी थी। वे उछल कर उसमें जा बैठे और गाड़ी तेज रफ्तार से भाग गयी।
जब गाड़ी स्टार्ट हुई तब कुछ लोगों का ध्यान उधर गया। बस के यात्री लुटे-पिटे अवसाद ग्रस्त, आंखों में नीर भरे एक दूसरे का मुंह ताकते हतप्रभ हो बैठे थे। उनके जाते ही सब चीखने-चिल्लाने लगे और रो-रोकर एक दूसरे से अपनी-अपनी व्यथा कथा कहने लगे। ऐसा लगता था कि आतंकवादियों का पूरा कार्यक्रम (बस लूटने का) पूर्वनियोजित था। बस ड्राइवर बस से नीचे मृत पड़ा था इसलिए बस चलने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
सभी यात्री अपना-अपना सामान बटोर कर बस से नीचे उतर पड़े। वह भी उनके साथ नीचे उतरने की सोच रहा था, पर उसे चिन्ता थी कि अब वह टेस्ट देने समय पर कैसे पहुंच पायेगा? वह मन ही मन रो रहा था और अपने भाग्य को कोस रहा था, पिताजी ने बड़ी अनुनय-विनय के पश्चात् पूरा साल तैयारी करने एवं टेस्ट में बैठने की इजाजत दी थी। तब अवसाद के उन क्षणों में उसकी सीट पर दूसरे व्यक्ति यही बैठे थे, इन्होंने उस अंध:कार में उसे अपने गले लगाकर सान्त्वना प्रदान की थी और बड़े ही स्नेहसिक्त शब्दों में पूछा था –
‘‘अकेले हो क्या?’’
‘‘हां’’ उसने सहमते हुए उत्तर दिया था।
‘‘कहां जा रहे हो?’’
‘‘जी… अंकल, मेरा तो सी.पी.एम.टी. का टेस्ट है अभी सुबह आठ बजे से… मैं दिल्ली जा रहा हूं। पर अब क्या करूं? कैसे वहां पहुंच पाऊंगा? मेरे सारे रुपये तो वो ले गये हें छीन कर!’’
‘‘घबराओ मत बेटे, तुम टेस्ट जरूर दोगे… कुछ सोचता हूं, आओ अपना सामान लेकर नीचे उतरो।’’
इन्होंने मेरा हाथ पकड़कर मुझे स्नेह के साथ बस से नीचे उतार लिया था। नीचे उतर कर सभी यात्री किसी वाहन की प्रतीक्षा में सड़क के किनारे खड़े थे। एक समझदार से व्यक्ति ने एक यात्री के माध्यम से दिल्ली ट्रैफिक पुलिस में इस हादसे खबर दे दी और उनसे एक खाली बस तुरन्त भेजने का अनुरोध किया था।
लोगों ने अनुमान लगाया कि वह स्थान दिल्ली से दस किलोमीटर दूर ही था केवल। वहीं तक का मार्ग एकदम सुनसान था। ‘‘इससे दो तीन किलोमीटर आगे चलने पर झुग्गी झोपड़ियों की बस्ती आरम्भ हो जायेगी, एक ने बताया था। उसकी बात सुनकर लोगों की जान में जान आयी।’’
जिन लोगों के पास सामान नहीं था या हल्का -फुल्का ही था, वे अपना-अपना सामान उठाकर बस्ती की खोज में चलने लगे।
मैंने अपने इन्हीं अंकल का सहारा लिया और जैसा इन्होंने कहा वैसा ही करने का निर्णय लिया। तभी एक जीप वहां से गुजरी तो इन अंकल ने आवाजें लगाकर उसे रोका और मेरी परीक्षा की दुहाई देकर मुझे वहां पहुंचाने का अनुरोध किया। अंकल की अनुनय विनय, अनुरोध और आग्रह के कारण उन्होंने मुझे बिठा लिया। जीप में काफी लोग सवार थे, फिर भी मैं रो पड़ा –
‘‘अंकल प्लीज आप भी मेरे साथ आइये,’’ रक्त के अंश न होने पर भी उन विषम क्षणों में ये अंकल मुझे बहुत ही आत्मीय और निकटस्थ लगे थे… या फिर उस समय उनके सहानुभूतिपरक सिरों को पकड़कर ही उन क्षणों को जिया जा सकता था, ऐसा संभवत: मेरे मन में आया होगा। मेरा रोना तड़पना देखकर जीप के लोगों ने इन्हें भी मेरे साथ जीप में बिठा लिया था। जीप तेजी से दौड़ने लगी। बस्ती आने पर उन्होंने हम दोनों को उतार दिया।
‘‘यहां से आटो करके जहां जाना हो चले जाओ। आगे चैकिंग होती है, इतनी अधिक सवारियां बिठाने पर मेरा चालान हो जायेगा।’’ जीप ड्राइवर ने कहा। जीप किराये की थी अत: अंकल ने उसका किराया दे दिया। हम दोनों उतर पड़े।
‘‘अंकल प्लीज आप मेरे साथ ही रहिए।’’ मैंने घबराते हुए कहा था। इन्हें भी जरूरी कार्य होगा जिसके लिए ये दिल्ली आये हैं, यह बात तब मेरे दिमाग में एक सेकेन्ड के लिए भी नहीं आई थी। मैं तो अपनी ही धुन में केवल अपनी ही परेशानियों के विषय सोच पा रहा था। पर इन्होंने बड़े स्नेह और शालीनता के साथ मुझे थपथपाया था, मानो मेरे दर्द को समझ कर मुझे आश्वासित कर रहे हो कि वे मेरे साथ ही रहेंगे। प्रकट में इन्होंने कहा, ‘‘घबराओ मत… अब तो मंजिल पास ही है। हां, तुम्हारा नाम क्या है?’’
‘‘मोहन!’’ मैंने बताया।
‘‘मोहन मैं तुम्हारे बड़े भाई के समान हूं, यही सोचो। मुझे भइया ही कहो… तुम किसी भी बात की चिन्ता मत करो, मैं तुम्हें तुम्हारे टेस्ट के स्थान पर लेकर जाऊंगा, तुम्हें तुम्हारे रोल नम्बर की सीट पर बिठाऊंगा। परीक्षा होने तक बाहर बैठकर तुम्हारा इन्तजार करूंगा फिर वापसी की बस में बिठाकर ही अपने काम के लिए निकलूंगा। तुम अब सारी चिन्ताएं भुलाकर सामान्य होने की कोशिश करो, ताकि परीक्षा दे सको।’’
और सचमुच भइया ने मेरी सारी चिन्ताएं और दर्द मानो एक सोख्ते के समान सोख लिए थे। मैं उनके साये तले उन्मुक्त हंसी हंसने लगा था।
‘‘टेक्स इट लाइक ए गुड बॉय…’’ एक छोटे से होटल में ले जाकर मुझे दैनिक कार्यों से निवृत्त कराया और स्वयं भी नहा-धो कर तैयार हो गये थे, भइया। नाश्ता आदि करा कर ये मुझे मेरे संस्थान ले गये थे, जहां मेरे रोल नम्बर की सीट थी। मुझे परीक्षा दिलाकर, खाना खिला कर, भइया ने मुझे मेरे गांव आने वाली बस में बिठा दिया था और टिकिट खरीद कर मेरे हाथों में थमा दिया था, ‘‘सब कुछ भूलकर खुशी-खुशी घर जाओ। ईश्वर चाहेगा तो तुम अवश्य ही सफल होओगे।’’
‘‘भइया, एक बात तो बताइये। सभी लोगों के रुपये तो उन्होंने लूट लिए थे… फिर आपके पास?’’
‘‘सही कह रहे हो बेटा… दो सौ रुपये मेरी मां ने चलते समय मेरे अंडर वियर में सिल कर रखे थे… वक्त बेवक्त काम आने के लिए, बस वहीं मां का आशीर्वाद काम आया है।’’
भइया की मधुर निस्वार्थ मुस्कान ने मेरा दिल जीत लिया था… आड़े समय में खुद परेशानी में होने पर भी अपने साथी के दुखदर्द को समझ कर, उसकी सहायता करना, कितना बड़ा गुण है इन्सानियत का… पर मैं उस समय इतना आत्मकेन्द्रित था कि अपने हितैषी का नाम और पता पूछना तक भूल बैठा था।
जब परीक्षा का परिणाम आया तो पता लगा कि मैंने अपने कोचिंग इंस्टीट्यूट में टॉप किया था। मुझे मेडीकल की पढ़ाई के लिए एम्स में प्रवेश मिला था… तब मुझे इनका चेहरा बार-बार याद आने लगा। मन होता कि दौड़ कर जाऊं और भइया को अपने पास होने की खबर सुनाऊं… इसका श्रेय तो इन्हीं को जाता है। इनके स्नेह, आश्वासन, सहायता, शुभकामनाओं तथा हिम्मत बढ़ाने से ही तो मैं आज जीवन में इतना बड़ा डॉक्टर बन पाया हूं।
‘‘पापा आपको मम्मी बुला रही हैं,’’ अचानक राजीव ने आकर डॉ. मोहनलाल का हाथ छूते हुए कहा तो वे विगत की तंद्रा से बाहर आ गये… ‘‘हां चलो, अभी आता हूं तुम मम्मी के साथ ही रहना बेटे।’’
डॉ. मोहनलाल पत्नी और बेटे राजीव को वहीं छोड़कर शार्दूल के पिता का इलाज करने वाले डॉक्टरों से जाकर मिले और उनके विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त की। इसके प्रश्चात उन्होंने उन डॉक्टरों से उन्हें वहां से एस्कॉर्ट अथवा एम्स में स्थानांतरित करने का अनुरोध किया। उनका नाम भी उन्हें तभी विदित हुआ ‘श्री ऋषभ-सेन जैन!’
वहां से वह कॉरीडोर में आ गये जहां शार्दूल की मम्मी एवं उनका समस्त परिवार जमा था। डॉ. मोहन लाल ने जैन साहब की पत्नी को जैन साहब को एम्स या एस्कार्ट में शिफ्ट कराने की बात बताई, तो उनके चेहरे पर संतोष की बजाये चिन्ता और तनाव की लकीरें गहराने लगीं, यह देखकर डॉ. मोहनलाल ने उनसे पूछा –
‘‘क्या बात है मेरी बात सुनकर आप कुछ उदास हो गयीं हैं भाभी जी…।’’
‘‘भाईसाहब, यह तो मैं समझ रही हूं कि आप जो भी कर रहे हैं, हमारी भलाई के लिए ही कर रहे हैं किन्तु यहीं पर ऑपरेशन करा लें तो क्या हर्ज है? यह सरकारी अस्पताल है, कुछ रियायत मिल जायेगी।’’
‘‘खर्च की चिन्ता आप बिल्कुल न करें भाभीजी! बड़े भैया जैन साहब के मुझ पर जो अहसान हैं, वह तो मैं जीवन भर नहीं भुला सकता। नित्य उदय होने वाले जीवनदायी सूर्य की भांति वही तो मेरे प्रकाशस्तम्भ रहे हैं। कृपया आप मुझे मेरे मन की कर लेने दें, मैं स्वयं भी हार्ट स्पेशिलेस्ट हूं और वह भी बड़े भइया जैन साहब की कृपा से ही।’’
‘‘वह कैसे?’’ श्रीमती जैन ने हैरान होते हुए पूछा।
‘‘सुनो दिव्या’’ डॉ. मोहनलाल ने पत्नी को हैरानी से अपनी ओर एकटक देखते हुए देख कर उसकी ओर मुखातिब होकर कहा, ‘‘जैन साहब, शार्दूल के पिताजी वही व्यक्ति हैं जिनके विषय में मैं तुम्हें कई बार बता चुका हूं। जब मैं मेडीकल के.पी. टेस्ट के लिए जा रहा था और हमारी बस को आतंकवादियों ने लूट लिया था, तब मेरी मदद इन्होंने ही की थी, सगे बड़े भाई की भांति।’’
‘‘अच्छा!’’ श्रीमती जैन और दिव्या दोनों के मुख से एक साथ निकला।
दिव्या हैरान थी। अभी तक वह अपने अस्पताल में आने के लिए पछता रही थी। मन ही मन सोच रही थी कि व्यर्थ ही इतना सारा समय नष्ट हो गया, घर रहती तो दसियों काम कर लेती… पर अब पति की बातें सुनकर वह एकदम उत्साह से भर उठी, ‘‘सच, इन्हें तो आप कब से खोज रहे हैं, पर आपने इन्हें पहचाना कैसे?’’
‘‘एक तो शक्ल ज्यों की त्यों है, दूसरे इनकी बाईं कनपटी पर वही एक बड़ा सा मस्सा है, जिस पर तब मेरा ध्यान विशेष रूप से गया था। देखते ही मन में आवाज उठी कि ये वहीं है, जिन्हें तुम ढूंढ रहे हो…. यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। आत्मा की आवाज कभी झूठी नहीं होती।’’
जब भइया चेतनावस्था में आयेंगे तो वह भी मुझे अवश्य पहचान लेंगे, देखना।
फिर सभी लोग आपरेशन की तैयारियों में व्यस्त हो गये। राजीव और शार्दूल इन दुख की घड़ियों में इस नवीन संबंध से आशान्वित होने लगे।
डॉ. मोहनलाल ने कहा, ‘‘आज यदि हम राजीव की बात मान कर जैन साहब को देखने यहां नहीं आते तो शायद उनसे हमारी भेंट फिर कभी भी नहीं हो पाती।’’
‘‘सुनिए भाभी जी, शार्दूल को आप हमारे साथ भेज दीजिए। आज दीपावली का पावन पर्व है, दोनों बच्चे मिलकर पटाखे, अनार, चक्री और फूलझड़ी आदि आतिशबाजी चलायेंगे फिर इन्हें हम शहर में रोशनी दिखाने ले चलेंगे। शार्दूल राजीव के साथ खाना खायेगा, आप लोगों के लिए हम यहां आकर दे जायेंगे। आप बिल्कुल परेशान मत होना। हमारा फोन नम्बर नोट कर लीजिए, कुछ कहना या मंगवाना हो तो बता दीजिएगा, कल सुबह का नाश्ता भी मैं वहां से बनाकर भेजूंगी। शार्दूल हमारे साथ ही रहेगा अब भाईसाहब के ठीक होने तक।
डॉ. मोहनलाल ने पत्नी की बातें सुनीं, तो उनका चेहरा खिल उठा, पत्नी का सहयोग देखकर वे आत्मविमोर हो आश्वस्त हो आये।’’
दिव्या ने श्रीमती जैन को गले लगाकर ‘दीपावली’ की शुभकामनाएं दीं और कहा, ‘‘अब आप भाईसाहब के इलाज की ओर से एकदम निश्चिंत हो जाइये, हम सब आपके साथ हैं।’’
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