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संसद की दीवारें भी कुछ कहती हैं

संसद की दीवारें भी कुछ कहती हैं

by लक्ष्मीनारायण भाला
in जनवरी -२०१२, सामाजिक
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भीतर जाकर संसद भवन को बारीकी से देखने का अवसर मुझे नहीं मिला परन्तु राज्यसभा के सांसद न्यायाधीश डॉ. ए. रामा ज्वाईस को मैं धन्यवाद दूंगा, जिनकी पुस्तिका ‘‘संसद भवन से संदेश’’ ने मुझे संसद भवन के भीतरी दृश्य से अवगत करा कर यह लेख लिखने की प्रेरणा दी। लोकसभा एवं राज्यसभा संसद भवन की जिन दीवारों के बीच विद्यमान हैं, उन दीवारों से प्रेषित संदेश को ‘हम भारत के लोग’ एवं हमारे ‘प्रतिनिधि’ समझने का प्रयास करेंगे, तो निश्चित ही भारतीय लोकतंत्र की गरिमा को बढ़ाने में हम सब सहायक ही होंगे।

मेरे लिए अज्ञात उन महानुभावों को भी मैं धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने भारतीय संस्कृति की धरोहर को संसद की दीवारों पर अंकित कर इस संस्कृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को प्रकट किया।

यह बात सर्वविदित है कि छल-कपट के बिना राजनीति हो नहीं सकती। प्रश्न केवल यह है कि यह छल-कपट सत्य की प्रतिष्ठा के लिए हो रहा है, या असत्य के लिए। मुण्डकोपनिषद् के (3-1) में ‘‘सर्वदा सत्यसैव जयो भवति’’ इसी कथन का संक्षिप्त रूप है सत्यमेव जयते। जहा-जहां भारत का राजचिह्न संसद की दीवारों पर अंकित है वहां-वहां यह बोध वाक्य ‘‘सत्यमेव जयते’’ यही संदेश देता है कि सत्य की जय सुनिश्चित करना ही राजनीति का लक्ष्य होना चाहिये। आइये अब हम राज्य सभा के प्रवेश द्वारों की ओर चलें।

राज्यसभा के एक प्रवेश द्वार पर अंकित है ‘सत्यं वद, धर्मं चर’, तैतरियोपनिषद के शिक्षावल्ली से लिया गया यह वाक्य सत्य वचन ही सत्य की प्रतिष्ठा में सहायक हो सकता है इस बात का संकेत देकर आचरण के प्रति भी चेतावनी देता है कि हम धर्म के पथ का अनुकरण करें।

राज्य सभा के एक और प्रवेश द्वार की दीवार धर्म की व्याख्या स्पष्ट करते हुए कहती है कि ‘‘अहिंसा परमो धर्म:।’’ महाभारत के वन पर्व (207-74) से लिया गया यह सिद्धांत भारत के स्वाधीनता आंदोलन का प्रमुख हथियार था। ‘परहित सहिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई’ तथा ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाने रे।’ आदि कथनों को करमों में प्रकट करने का एक प्रभावी माध्यम है राजनीति। हमारे राजनीतिक प्रतिनिधि एवं शासकगण समाज में हिंसा के सहारे अपनी बात को मनवाने वालों के प्रति कठोर हो एवं अहिंसा कें मार्ग से समाज सेवा में लगे एवं संगठनों को प्रोत्साहन दे, यही इस धर्म-पालन की भावना से अपेक्षित है।

राज्यसभा के एक और प्रवेश द्वार पर ऋग्वेद (1-164-46) से लिया गया बोध वाक्य अंकित है ‘‘एक सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।’’ सत्य एक ही होता है, विद्वत् जन उसकी कई तरीकों से व्याख्या करते हैं। विविध राजनैतिक चिंतन का अंतिम लक्ष्य ‘देश हित’ हो यही हर देश का निर्विवाद सत्य है। आपसी समन्वय से इस सत्य को पाने के प्रयास का माध्यम है ‘लोकतंत्र’। बहुदलीय लोकतंत्र में देशहित से समझौता किये बिना आपसी समन्वय स्थापित करने में यही बोध वाक्य हमारे लिए मार्गदर्शक बनेगा।

राज्यसभा के ही एक और प्रवेश द्वार पर भगवत गीता के (18-45) श्लोक से लिया गया वाक्य अंकित है ‘‘स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धि लभते नर:।’’ हर व्यक्ति अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सिद्धि प्राप्त कर सकता है। अधिकार का भाव छोड़कर कर्तव्य की भावना से हमारे जन प्रतिनिधि आचरण करे, यह संदेश हम सब के लिए महत्वपूर्ण है। अधिकार की लड़ाई की राजनीति को कर्तव्य पालक की स्पर्धा में बदलना आज की महती आवश्यकता है।

प्रवेश द्वारों से हट कर अब हम लिफ्ट की ओर चलें तो प्रथम लिफ्ट के गुबंद पर अंकित महाभारत (5-35-58) से लिया गया यह श्लोक सत्य एवं धर्म की बात को और अधिक स्पष्ट करता है-

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा:, वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्म स: न यत्र न सत्यमस्त, सत्यम्, न तत् यत् छलमभ्युपैति॥

वह सभा सभा नहीं होती, जिसमें वरिष्ठ जन न हो, वह व्यक्ति वरिष्ठ जन कहलाने के योग्य नहीं हैं जिनके वचन धर्म-सम्मत न हो। वह वचन धर्म-सम्मत नहीं होते, जिनमें सच्चाई न हो एवं वह वचन सत्य वचन नहीं हो सकते, जिनमें छल-कपट भरा हो। छल-कपट की राजनीति को हम जितना पारदर्शी बनायेंगे छल-कपट की मात्रा उतनी ही कम होकर सभा की गरिमा बढ़ती रहेगी।

लिफ्ट क्रमांक 2 के गुबंद पर सभा को गरिमा प्रदान करने वाली बात कहने के लिए मनुस्मृति (8-13) से लिया गया यह श्लोक अंकित है, जो सभासदों को उनके आचरण एवं व्यवहार के प्रति सतर्क करता है।

सभा वा न प्रवेष्टव्या, वक्तव्यम् वा समंञ्जसम्।
अब्रुवन, बिब्रुवन वापि नरो भवति किल्मिषी॥

भले ही कोई सभा में प्रवेश ही न करें, किन्तु जब प्रवेश करें तो ठीक तरह से धर्म एवं न्यायसंगत वचन ही बोलने चाहिये। जो सदस्य सभा में बोलेगा ही नहीं या झूठ बोलेगा, वह पाप का भागी होगा। भारत में पाप-पुण्य की अवधारणा ही मनुष्य को नैतिक एवं शुद्ध आचरण के लिए प्रेरित करती है। पुण्य के प्रति लगाव होने से ही भ्रष्टाचार मुक्त समाज की कल्पना साकार हो सकती है।

पुण्यवान होने के लिए जिन गुणों की आवश्यकता हैं उसका संकेत लिफ्ट क्रमांक 3 पर अंकित श्लोक में उल्लिखित है-

दया मैत्री च भूतेषु दानम् च मधुरा च वाक्।
न ही दृशम् सं वननं त्रिशुलोकेषु विद्यते॥ (महाभारत, विदुर नीति)

प्राणी मात्र के प्रति दया, मैत्री, दान देने की प्रवृत्ति और मधुर संभाषण का स्वभाव यह चारों गुण एक साथ होना त्रिलोक में दुर्लभ है। इसके पीछे यही भाव है कि ऐसे दुर्लभ व्यक्ति ही जन प्रतिनिधि के नाते निर्वाचित होकर इस सभागृह में आने चाहिए। साथ ही यह भी अपेक्षित है कि अपने आप को इस प्रकार के दुर्लभ व्यक्तित्व से निखरित करना हर जनप्रतिनिधि का संकल्प बने। क्या यह सम्भव नहीं है?

लिफ्ट क्रमांक 4 पर तो स्वयं शासक के लिए राजधर्म का पालन करने हेतु मार्गदर्शन करने वाला शुक्रनीति का श्लोक अंकित है-

सर्वदा स्यान्नृप: प्राज्ञ:, स्वमते न कदाचन।
सभ्याधिकारिप्रकृति-सभासत्सुमते स्थित:।
(राजधर्म: शुक्रनीति:, 2-3)

राजा (शासक) का हमेशा अत्यन्त विद्वान होना आवश्यक है। परंतु उनका कभी भी अपने व्यक्तिगत मत पर अड़े रहना उचित नहीं। उन्हें सदस्यों, अधिकारियों, सामान्य जन तथा, सभा में उपस्थित सभासदों से सत्परामर्श कर निर्णय लेना चाहिये। प्रधानमंत्री तथा सभी विभागीय मंत्रियों की कार्यप्रणाली के लिए यह दिशा-निर्देश सार्वभौमिक है। प्रशासन में पारदर्शिकता बनाये रखने की यही अनिवार्य शर्त है।

संसद भवन के प्रथम द्वार से होकर केंद्रीय सभागृह के प्रांगण की ओर बढ़ते हैं तो प्रवेश द्वार के ऊपर लिखे इस श्लोक में वैश्वीकरण के आज के दौर में बढ़ रहे बाजारीकरण के बजाय परिवार भाव की भारतीय अवधारणा प्रतिपादित की गई है-

अयं निज: परो वेति गणना लघु चेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥ (पञ्चतंत्रम्, 5-21)

यह मेरा है एवं वह दूसरे का है ऐसा दृष्टिकोण छोटे मन वालों का होता है। उदार मन वालों के लिए तो पूरा विश्व ही एक अपना परिवार होता है। ऐसे उदारमना लोगों की संख्या बढ़े एवं पश्चिमी अवधारणा के कारण वैश्विकरण में आये विकारों से समाज मुक्त होकर विश्व एक बाजार नहीं, एक परिवार बने यही भारत की चाह है। भारत के नेतृत्व से ही यह परिवर्तन संभव हो पायेगा।

निम्नलिखित अरबी सूक्ति लोकसभा के अर्धचंद्रकार बाह्य लाबी में अंकित है जो परिवर्तन की प्रक्रिया का संकेत देती है-

इन्नलाहो ला युगय् यरो मा बिकौ मिन्।

हता युगय् यरो वा बिन क्तसे हुम॥

जब तक लोग परिवर्तन या बदलाव की कोशिश नही करेंगे, तब तक सर्वशक्तिमान ईश्वर भी किसी समुदाय की परिस्थितियों को बदलेगा नहीं। स्पष्ट है कि जन प्रतिनिधियों का ईश्वर विश्वासी होना पर्याप्त नहीं है, उद्यमी होकर समाज परिवर्तन के कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने के लिए कटिबद्ध होना आवश्यक है।

अंतत: लोकसभा के सुविशाल कक्ष में सभाध्यक्ष की पीठ के पीछे दीवार पर ‘ललित विस्तार’ से ली गई बौद्ध चिंतन की यह अत्यंत प्रसिद्ध सूक्ति सभागृह में विद्यमान सभी सदस्यों को मनन करने की प्रेरणा देती है-

धर्मचक्र-प्रवर्तनाय। (ललित विस्तार:, अध्याय-26)
धर्म की प्रक्रिया को गतिमान रखना ही हमारा लक्ष्य हो, यही हमारी कामना हो।

जिस संसद की दीवारों पर यत्र-तत्र धर्म एवं सत्य के महत्त्व को अंकित किया गया हो, वह संसद अपने आपको धर्म निरपेक्ष कहे तो इसे सत्य की प्रवंचना ही कहना होगा। जबकि हमें धर्म सापेक्ष होकर पंथ निरपेक्ष होने की आवश्यकता है, यही बात संसद की दीवारें हमे बार-बार संकेत देती हैं। भारत की सांस्कृतिक धरोहर को जिस संस्कृत भाषा ने युगों से संजोये रखा है उस संस्कृत के उपरोक्त उद्धरणों को पढ़ने के बाद भी संस्कृत को अब भी मृत भाषा कहना यह भारतीय संस्कृति को काल-बाह्य करने के षड्यंत्र का ही अंग है इसे हम समझे एवं इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर संसद भवन की दीवारों से प्रेषित भावनाओं को जन-जन तक पहुंचाये बस यही इन मूक दीवारों का संदेश है। क्या हम इसे मुखर कर पायेंगे?
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