इस लेख का शीर्षक ‘असामाजिक यूपीए एवं सोशल मीडिया’ हो सकता था, लेकिन कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के बीच चूंकि कोई सैध्दांतिक फर्क नहीं है इसलिए यह ‘असामाजिक कांग्रेस और सोशल मीडिया’ भी हो सकता है। कांग्रेस की तरह उसके सहयोगी भी सिध्दांतविहीन हैं। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों का एक ही सिध्दांत है और वह है ‘भ्रष्टाचार’। यह कहना गलत नहीं होगा कि सहयोगी कुछ नहीं है, सबकुछ कांग्रेस ही है, इसलिए यूपीए2 ाहने की बजाय मैं कांग्रेस ही कहूंगा।
ब्रिटिशों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई और कांग्रेस ने भी स्वाधीनता के बाद उसे उसी तरह चलाया। कांग्रेस ने लोगों को अशिक्षित रखकर और शिक्षा संस्थाओं, दूरसंचार, सड़क और रेलवे की आधारभूत सुविधाओं को कमजोर बनाकर अंधेरे में रखा।
कांग्रेस की इस चाल को भाजपा के नेतॄत्व वाले एनडीए ने उजागर किया। एनडीए ने न केवल साक्षरता के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए काम किया अपित भारतीयों को दूरसंचार, सड़कों व अन्य आधारभूत सुविधाओं से जोड़ दिया। इसी कारण कांग्रेस का पूरे देश में एकछत्री साम्राज्य समाप्त हुआ। प्रश्न है: बिना सहयोगी दलों के कितने राज्यों में कांग्रेस को सत्ता प्राप्त है? यह तो कौन बनेगा करोड़पति का 5 करोड़ी सवाल हो सकता है।
एनडीए की प्रथम अवधि के बाद कांग्रेस को गलती से सत्ता हाथ लग गई, क्योंकि अन्य पार्टी ही दिखाई नहीं दे रही थी जो भारत का शासन करें। तब से कांग्रेस के लिए हर चीज आसान चल रही थी, सहयोगी दल पैसा बनाने में लगे थे, मुख्य विपक्षी दल सब से ज्यादा समय तक विपक्षी रहने का रिकार्ड बनाने में लगा था आदि आदि।
अचानक अण्णा हजारे आंधी की तरह भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर उभरे। कांग्रेस को लगा कि यह बूढ़ा क्या कर पाएगा, क्योंकि कांग्रेस को स्वाधीनता के बाद गांधीजी जैसे बूढ़े से निपटने का अनुभव था। लेकिन इस बार हजारे के पास सोशल मीडिया था, जो गांधीजी के पास नहीं था।
सोशल मीडिया ने हजारे को देश के युवकों से जोड़ दिया। कांग्रेस को यह दूसरा आघात था। कांग्रेस को लगता था कि समलिंगी विवाहों , लैंगिक साइटों को छूट देने और सिगरेट को सिनेमा में सेंसर करने, बिना विवाह के साथ रहने की अनुमति देने, गर्भपात की गोलियों को उपलब्ध कराने आदि से आज के युवकों की चेतना अपने आप खत्म हो जाएगी। कांग्रेस को यह भी लगता था कि आज का युवक राहुल गांधी, मिलिंद देवड़ा, सचिन पायलट, सुप्रिया सुले, कनिमोझी जैसे संसद के अंदर पहुंचे युवकों जैसा ही होगा, लेकिन ऐसी बात नहीं है। संसद के बाहर जो युवक हैं देश के प्रति ज्यादा सतर्क हैं और परिवर्तन चाहता है, बेहतर शासन के लिए बदलाव चाहता है। (वैसे भी इस देश की माताओं ने अभिमन्यु, भगत सिंह और संदीप उन्नीकृष्णन जैसे वीरों को जन्म दिया है।)
सोशल मीडिया ने देश के युवकों को एकसाथ जोड़ दिया और सत्ताधारियों के प्रति जगा दिया। सोशल मीडिया के रूप में वे मुखर हो गए।
यद्यपि विपक्षी दल छाया सरकार नहीं चला सकता, सोशल मीडिया ने इस भूमिका को अपने हाथ में ले लिया। विशेषज्ञों ने ब्लागिग़, ट्विटिंग, फेसबुक के जरिए विभिन्न विषयों पर गौर करना शुरू किया और कांग्रेस की कारगुजारियों और खामियों पर टिप्पणियां करने लगे। ये ऐसे विशेषज्ञ नहीं थे जिन्हें फुल ब्राइट अथवा फोर्ड फाउंडेशन या राजीव गांधी फाउंडेशन अथवा जेएनयू से पैसा मिलता था। भारतीय प्रिंट और टीवी मीडिया में ऐसे लोग मिल जाएंगे। धर्मनिरपेक्षता के स्वयंभू भगवान सोशल मीडिया के हमले से चरमराने लगे। कुछ तो बरखा दत्त जैसे चरमरा गए हैं। यह एकपक्षीय नहीं था। सोशल मीडिया ने सभी के लिए समान अवसर दिए। ऐसा कांग्रेस केवल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ ही करती थी। जैसे ही भारतीयों को यह समान अवसर मिलने लगा, कांग्रेस के रुख में बदलाव आने लगा।
आरंभ में कांग्रेस नेताओं ने सोशल मीडिया की लहर पर सवार होने की कोशिश की। सोशल मीडिया का माने है त्वरित और तेज, जिससे व्यक्ति का सही दर्शन होता है। सोशल मीडिया ने देश को कांग्रेस नेताओं का सही चेहरा दिखा दिया और शशि थरूर जैसे हवाई जहाज में इकोनॉमी श्रेणी में सफर करने वाले लोगों को जानवर कहने वालों को उनकी जगह दिखा दी। छपरा में राजीव गांधी का विरोध कर उन्हें उनकी जगह दिखा दी। उधर, नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया को पानी में रहने वाली मछली के रूप में लिया।
कांग्रेस तो ऐसा दल है जो किसी न किसी तरह सत्ता में रहना चाहता है। (याद करें देश विभाजन से लेकर 1984 में हुए सिखों के खिलाफ दंगे) कांग्रेस सोचती है कि सोशल मीडिया को खत्म कर वह सत्ता में बरकरार रह सकती है।
कपिल सिब्बल से और बड़ा हमलावर कौन हो सकता है जो कहते हैं कि मदरसा शिक्षा संस्थाएं नहीं है इसलिए शिक्षा का अयिकार उन्हें नहीं प्राप्त होता। उनका समर्थन सबके ‘महागुरु’ दिग्विजय सिंह ने किया। कांग्रेस में युवकों की क्या हालत होती है यह अनुमान का ही विषय है। हावर्ड शिक्षित जयराम रमेश ने कहा कि रिटेल में विदेशी निवेश एक अच्छी कल्पना है जिसे लागू करने का समय आ गया है, लेकिन सोशल मीडिया के बारे में वे अनभिज्ञ बने रहते हैं।
यहां उल्लेख करना औचित्यपूर्ण होगा कि 1857 में ब्रिटिशों ने जनजागरण पर प्रतिबंध लगाने, नियंत्रित करने और निगरानी रखने की कोशिश की। वे इसमें बुरी तरफ विफल रहे क्योंकि स्वाधीनता का संदेश और भागीदारी चपातियों का इस्तेमाल कर पूरे भारत में फैली, जबकि ब्रिटिश मीडिया पर ही नजर रखे रहे। सरकार को चिाहए कि वे नरेंद्र मोछी की तरह सोशल मीडिया का बेहतर उपयोग करें और एसएमएस की संख्या अथवा सोशल मीडिया पर पोस्ट की जाने वाली सामग्री की संख्या जैसे गौन मुद्दों को ज्यादा तवज्जो न दें।
कांग्रेस इसे जाने इसलिए सोशल मीडिया के उपयोग करने वाले 10 जनपथ के समक्ष फलैशमॉब कर सकते हैं और सोनिया गांधी की अंतरात्मा को पुकार सकते हैं, ‘क्यों यह कोलावेरी…. क्यों यह कोलावेरी…?’