इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ आजादी के महायज्ञ में प्रथम आहुति दी अग्रवंशी ने

यह तो सभी जानते हैं कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद अग्रवाल समाज का राष्ट्र के नव निर्माण व विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है मगर इस ऐतिहासिक तथ्य से कम ही लोग अवगत हैं कि आजादी के महायज्ञ में अपने जानमान की प्रथम आहूति देने वाला महापुरुष महाराज अग्रसेन का ही वंशज था। भारत माता की अंग्रेजी दास्ता से मुक्ति के उद्देश्य से 1857 में छिड़ी रक्त रंजित आरपार की लड़ाई के लिए भारतीय सैनिकों को तैयार करने हेतु दिल्ली के लाला झनकूलाल सिंहल ने अपना पूरा माल असबाद मुगल बादशाह बहादुर शाह के हवाले कर दिया था। इसके बदले में अंग्रजों ने उन्हें मृत्यु दंड की सजा दी और लालाजी ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूमा। राष्ट्र व धर्म रक्षा के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देने की आभा शाही परम्परा का निर्वहन एक और अग्रवंशी सपूत गाजियाबाद के लाला मोटलचंद ने लाला झनकूलाल का अनुसरण कर किया उन्होंने भी अपनी सम्पूर्ण धन दौलत बादशाह बहादुर शाह को सौंप दी जिससे हिंदुस्तानी सिपाहियों को बकाया वेतन का भुगतान किया गया। इसी धनराशि से हथियार व गोलाबारूद तैयार कर अंग्रजों से टक्कर ली गई।

यह ऐतिहासिक तथ्य स्वर्णाक्षरों से लिखने योग्य है कि अंग्रजों ने कथित गदर के दौरान उनके विरुद्ध लड़ाई में भागलेने वाले जिन प्रमुख 14 व्यक्तियों को सजा ए मौत के फैसले पर मेरठ मंडल के धौलाना ग्राम में एक पेड़ से लटका कर सार्वजनिक रूप से फांसी दी उनमें लाला झनकूलाल सिंहल भी थे। उनके अतिरिक्त शेष सभी 13 राजपूत थे। अंग्रेज अधिकारी ने इनमें से सर्वाधिक दबंग देखकर सबसे पहले लालाजी को फांसी लगाने का आदेश दिया। फासी से पूर्व अंग्रेज अधिकारी ने लालाजी के भव्य व्यक्तित्व को देखकर उनसे पूछा ‘लाला तुम इन हत्यारों के जाल में कैसे फंस गये? ’ लालाजी ने निर्भयता पूर्वक तुरंत प्रत्युत्तर दिया ‘साहब, हमारे पूर्वज भामाशाह ने भी मुगलोें के खिलाफ /आजादी की लड़ाई में जिस प्रकार महाराजा प्रताप को सहयोग दिया था, उसी प्रकार मेरा भी फर्ज था कि अपनी मातृभूमि को आजाद कराने की लड़ाई में मैं अपना पूर्ण सहयोग टूँ’ लालाजी के इस जवाब से गोरा अफसर क्रोध से लाल हो गया और उसने कड़क कर जल्लादों को हुक्म दिया ‘सबसे पहले इस बनिये (लालाजी) के गले मे फांसी का फंदा डाला जाए।’ और हुआ भी ऐसा ही लाला भजनलाल ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूमा और राष्ट्र की अस्मित की रक्षा के लिए प्रणोत्सर्ग करने में गर्व महसूस किया।

लालाजी ने अग्रवंशियों में स्वभाव जन्य निर्भयता एवं बलिदानी भावना का परिचय दिया। हमारे समाज की गौरवशाली परम्परा 15 अगस्त सन 1947 शुभ दिवस स्वाधीनता प्राप्ति तक निर्बाध गति से जारी रही। अग्रवंशी सदैव बलिदानियों के आगे खड़े रहे। इन महापुरुषों के प्रति न केवल अग्रवाल समुदाय अपितु वृहत भारतीय समाज नत मस्तक होकर कृतज्ञता ज्ञापन करता है। आज यह कि देश के इतिहास में अग्रवाल समाज की चिर स्मरणीय भूमिका रही है।

किन्हीं कारणों से 1857 का स्वाधीनता संग्राम विफल रहा मगर आजादी की लड़ाई जारी रही। देशवासियों ने हिम्मत नहीं हारी और ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध अपनी जंग जारी रखी। बहादुरशाह को रंगून में फांसी देकर ब्रिटिश इस्ट इंडिया कम्पनी ने दिल्ली के लाल किले पर यूनियन जैक फहरा दिया था। मुगलिया सल्तनत की समाप्ति से बदले हालात के कारण अब आजादी की लड़ाई ने भी नया मोड़ व रुप ले लिया था। योद्धा भी नये और रणनीति भी नई। स्वतंत्रता संग्राम की कमान समय के साथ जिनके हाथ में गई उनमें भी अग्रवंशी शामिल रहे। जंगे आजादी के इन पुरोधाओं में लाला लाजपत राय की भूमिका भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों में एक विशेष ऊर्जा का संचार करने वाली रही। गोरों की लाठियों से गंभीर आहत अवस्था में इस सिंह पुरुष ने घोषणा की थी कि मेरे शरीर पर अंग्रेज पुलिस द्वारा मारी एक-एक लाठी अंग्रेजी हुकूमत के कफन की आखिरी कील साबित होगी। ऐतिहासिक सच्चाई यह है लालाजी के बलिदान ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा ही बदल दी। प्रतिशोध की भावना से ओतप्रोत देशभक्त नौजवानों ने क्रांति का बिगुल फूंक दिया।

1857 की क्रांति को सफल बनाने में जिस प्रकार अन्य समाज के लोगों ने जी-जान से मदद की भला ऐसे में अग्रवाल समाज पीछे क्यों रहता। सेठ रामजीदास और नारायणदास गुडवाले एक सुप्रसिद्ध व्यापारी थे। उन्होंने बहादुरशाह जफर के कोष में सेना को वेतन और अस्त्र-शस्त्र खरीदने के लिए उस समय दो करोड़ रुपये दिए थे। उसके बाद पुन: चार करोड़ और तीसरी बार भी करोड़ों रुपये दिए। लेकिन उनकी इस सहायता के बाद भी 1857 की क्रांति असफल हो गयी। परिणाम स्वरूप बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार कर रंगून जेल भेज दिया गया किन्तु उनको आर्थिक सहायता पहुंचाने के कारण सेठ रामजीदास को फांसी की सजा दे दी गयी। पुत्र नारायणदास को जो उस समय दिल्ली के ऑनरेरी मजिष्ट्रेट व म्युनिसिपल कमिश्नर के अंग्रेजो ने उनको दृढ़ता और साहस के लिए महाराज की उपाधि दी। नारायणदास ने पिता की तरह फांसी की सजा देने को कहा था। ये ऐतिहासिक घटनाएं केवल घटनाएं भर नहीं है बल्कि अग्रवाल समाज के चरित्र को देशभक्ति से समरस करता है। उसकी वीरता, त्याग और संयम को देश के सामने विलक्षण रूपों को लाती है।

अमर शहीद लाला हुकूमचंद अग्रवाल (कानूनगो) जिनका जन्म हांसी-हिसार (हरियाणा) में 1816 में एक अग्रवाल, गोयल गौत्री लाला दुलीचंद जैन के प्रसिद्ध कानूनगो के घर हुआ था। एक प्रतिभाशाली वीर था। 1857 की क्रांति के दौरान देश के कोने-कोने में अंग्रेजों के खिलाफ अपनी लड़ाई का बिगुल बजा हलचल मचा दी थी। बहादुरशाह जफर ने इनको 1841 में हांसी-हिसार में करनाल जिले का कानूनगो नियुक्त किया था। बादशाह और इनके संबंध प्रगाढ़ हो गए थे और जब 10 मई 1857 को मेरठ से सशस्त्र क्रांति का उद्घोष हुआ वे अंग्रेजी दास्ता से मुक्त कराने बादशाह जफर को सहायता करने दिल्ली पहुंचे लेकिन अंग्रेज के तोपों का जवाब देने वाले लाला हुकूमचंद को उनके 13 वर्षीय भतीजे फकीरचंद साथी मिर्जा बेग को 18 जनवरी 1858 को उनके मकानों पर छापा मारकर गिरफ्तार कर लिया। हिसार के मजिस्ट्रेट जॉन एकिसन ने इनको फांसी की सजा सुनाई। अगले दिन तीनों को उनके घर के सामने फांसी पर लटका दिया गया। इस प्रकार इन्होंने स्वाधीनता आंदोलन की कीमत अपने प्राणों की बाजी लगाकर चुकाई।

अग्रवाल समाज के वीरों की ये कुर्बानियां उनकी भावी पीढ़ियों को देश सेवा के लिए प्रेरित करेंगी। समाज अपनी संकीर्ण दृष्टि को राष्ट्रव्यापी बनाएगा।

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