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यह विश्वास जगाओ कि हम कर सकते हैं -आचार्य रमेशभाई ओझा

यह विश्वास जगाओ कि हम कर सकते हैं -आचार्य रमेशभाई ओझा

by pallavi anwekar
in आत्मनिर्भर भारत विशेषांक २०२०, विशेष
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‘हिंदी विवेक’ आत्मनिर्भर भारत वेब शृंखला में प्रसिद्ध धर्म गुरु आचार्य रमेशभाई ओझा से देश के आध्यात्मिक माहौल पर विस्तार से हुई भेंटवार्ता के कुछ महत्वपूर्ण सम्पादित अंश यहां प्रस्तुत हैं।

अंततः राम मंदिर का निर्माण शुरु हो रहा है। इसेे क्या आप भारत के नए अध्याय के तौर पर देख रहे हैं?

कई वर्षों से जिसकी प्रतीक्षा थी उस घड़ी का और उस घड़ी में घटी घटना का दर्शन हमने 5 अगस्त को किया, जब मा. प्रधानमंत्री के करकमलों और अनेक गणमान्य संतों की उपस्थित में शिलान्यास हुआ और राम मंदिर निर्माण कार्य का शुभारंभ हुआ। करीब 492 वर्ष पहले जो एक घटना घटित हुई थी कि हमारे आराध्य के दिव्य मंदिर को ध्वस्त करके वहां एक नया ढांचा तैयार किया गया था, हमारा हिंदू धर्म निश्चित तौर पर किसी और धर्म के धर्म स्थानों पर आक्रमण नहीं करता और ना ही ऐसा सिखाता है। बाहर से आए लोगों ने जैसे हमारे कई धर्म स्थानों को ध्वस्त किया है और उसमें से कुछ तो अति महत्त्वपूर्ण हैं जैसे राम जन्मभूमि, काशी विश्वनाथ मंदिर और कृष्ण जन्मभूमि मथुरा। इतने वर्षों के संघर्ष के बाद मा. उच्च न्यायालय के आदेशानुसार संपूर्ण संवैधानिक रुप से जो निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ है। न्यायालय के आदेश के अनुसार उसमें ट्रस्ट बनाया गया है। उसीके निमंत्रण का सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री पधारे और राम मंदिर निर्माण की नींव रखी जो एक गौरव का क्षण था हालांकि कोरोना की वजह से पूरे विश्व से विपत्ति खड़ी हुई है जिससे बहुत से लोग इस क्षण के भागी नहीं हो सके, लेकिन करोड़ों करोड़ों लोगों ने टीवी के माध्यम से इसका दर्शन कर खुद को धन्य किया। अब मंदिर निर्माण के बाद राम लला उसमें विराजमान होंगे और वह उत्सव कैसा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है। श्री राम एक आदर्श मानव चरित्र है, आदर्श जीवन की आचार संहिता है, मानव मूल्यों में जिन जिन की श्रद्धा है उनके लिए यह गौरव की घड़ी होगी और हम इसकी प्रतीक्षा करते हैं।

राम मंदिर की आवश्यकता को लेकर सवाल उठाए गए थे कि मंदिर की जगह अस्पताल या विद्यालय बनाया जाना चाहिए था लेकिन एक हिंदू आध्यात्मिक गुरु के रूप में आप अयोध्या में राम मंदिर की आवश्यकता को किस तरह से प्रतिपादित करेंगे?

निश्चित रूप से अस्पताल भी हमारे लिए एक मंदिर है। हनुमान जी की उपासना करते करते हमारी दृष्टि भी हनुमान जी वाली हो गई है। स्कूल को हम विद्या मंदिर मानते हैं, अस्पताल को भी हम करुणा मंदिर मानते हैं, लेकिन जहां तक राम जन्मभूमि का सवाल है वहां तो सिर्फ राम जी का ही मंदिर होना चाहिए, और यहां पहले भी मंदिर था। इतिहास गवाह है कि जहां मंदिर था वहां पुनः मंदिर का निर्माण करके हमने ना सिर्फ मंदिर का निर्माण किया है बल्कि हम हमारी भारतीय अस्मिता की पुनः प्रतिष्ठा कर रहे हैं। आक्रांताओं ने जो हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को ध्वस्त और नष्ट किया था, कोई भी धर्मावलम्बी हो, कोई भी मतावलम्बी हो लेकिन अगर वह भारतीय है तो उसे भारतीय के तौर पर गौरव होना चाहिए कि हमारी भारतीय अस्मिता की पुनर्स्थापना हो रही है। वैसे अन्य लोगों को भी डरने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि राम सबके हैं और यह बात अयोध्या के लोगों से ही सीखनी चाहिए क्योंकि अयोध्या के लोगों में चाहे वह किसी भी कौम का हो उनका आपस में कितना सद्भाव है। राम मंदिर के निर्माण से अयोध्या के मुसलमान भी प्रसन्न हैं और राम मंदिर के निर्माण के साथ साथ यह पूरी अयोध्या का निर्माण हो रहा है यह उस पूरे क्षेत्र का पुनर्निर्माण होने वाला है। अयोध्या में विकास की एक ऐसी शुभ आंधी चलने वाली है जिससे सिर्फ निर्माण ही निर्माण होगा, विध्वसं की बात नहीं होगी। कोई किसी भी कौम का हो लेकिन सबसे पहले वह भारतीय है और राम सबके हैं, इसलिए सभी के मन में इसको लेकर गौरव होना चाहिए।

संस्कृत में धर्मों रक्षति रक्षितः कहा जाता है। राम मंदिर निर्माण कार्य के बाद अब हमें अपने धर्म की रक्षा के लिए और क्या करना चाहिए, ताकि आगे धर्म हमारी रक्षा करता रहे?

भगवान श्री राम को ही दृष्टि में रख कर चलें। मैं व्यष्टि के रूप में अपने आप के लिए हूं और यह समष्टि जो है वह मेरा ही फैला हुआ रूप है। हमारे शास्त्रों के अनुसार जो कहा गया है उसे ध्यान में रखकर मैं समष्टि के कल्याण के लिए जो भी कार्य करूंगा वह धर्म है और धर्म की रक्षा के लिए हम जो भी करेंगे अंत में उससे ही हमारी रक्षा होने वाली है। अगर हिंदू धर्म की बात करें तो यह सनातन धर्म है। यह सबसे प्राचीन है। इतिहास गवाह है कि ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है तो हमारा सनातन वैदिक धर्म है। उसकी रक्षा की इसलिए आवश्यकता है क्योंकि यह धर्म सर्वसमावेशी है। जहां वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना अयम निजः परोवेती गणना गघु चेतसाम उदार चरिता राम वसुधैव कुटुम्बकम।

मेरे तेरे की भेदभावपूर्ण सोच है। वह छोटे मन के लोगों की सोच है। जो उदार लोग हैं उनके लिए यह संपूर्ण विश्व एक परिवार है। सनातन वैदिक धर्म ने हमें ऐसी विशाल दृष्टि दी हैै, जहां भेदभाव को मिटाया गया है। ऐसी अद्भुत सोच के प्रति जो भी पूर्वग्रह से रहित और मानव मूल्यों में श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति विश्व के चाहे जिस कोने में हो इस धर्म का समर्थन करेगा। सनातन वैदिक धर्म कभी भी सिर्फ अपने कल्याण की बात नहीं करता। अगर आप कल्याण के बारे में स्वार्थी हो रहे है तो आप धर्म से दूर हो रहे हैं। आपको जो कुछ भी करना है वह समष्टि के कल्याण के लिए करना है। इसलिए हमारे यहां गायत्री मंत्र में भी योनः प्रचोदयात लिखा है यानी हमारी बुद्धि को ना कि मेरी बुद्धि को, योगच्छेपो नः कल्पनाम् यानी सिर्फ मेरे लिए नहीं बल्कि समष्टि कल्याण की बात को लेकर जिस हिंदू वैदिक धर्म में ऐसी उदारतापूर्ण बात है वह सनातन वैदिक धर्म वास्तव में संपूर्ण मानवता का कल्याण करने में समर्थ है। वह इसलिए समर्थ है कि यह उदार और सहिष्णु है। इसलिए मैं गर्व से यह कहूं कि मैं हिंदू हूं और हिंदू ऐसी विचारधारा के संवाहक हैं। हमारे मन में एक दृढ़ आस्था हमारे मन में हमारे धर्म के प्रति होनी ही चाहिए और जब ऐसी आस्था हो हमारी अपने धर्म के प्रति हो तो उसकी रक्षा करना हमारा धर्म है। धर्म की रक्षा के लिए इसका ठीक ठीक ज्ञान प्राप्त करें, विन्यानः भारत क्रियान्विना बिना आचरण के वह विन्यान भार रूप हो जाता है। अतः आचरण का नाम धर्म है- आचारः प्रबबो धर्मः, धर्मस्य प्रबुरच्चतः इस प्रकार से धर्म की रक्षा होगी। जब मैं धर्म की रक्षा करूंगा तब निश्चित रूप से धर्म के द्वारा मेरी रक्षा होगी। अतः प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की महिमा को समझने की आवश्यकता है। धर्म सिर्फ कर्मकांड नहीं है। मैं कहता हूं कि यह ऑक्सीजन है। तुम्हारा जीवन है इसलिए इसकी महिमा और उपयोगिता को समझो। बिना धर्म तुम्हारा कोई जीवन नहीं है इसलिए इसकी रक्षा में लगा जाओ।

सनातन वैदिक संस्कृति में कुछ ऐसी चीजें हैं जिनके उदाहरण देकर लोग कहते हैं कि यह तो पिछड़े जमाने वाली बात है तो हमें इसे आधुनिकीकरण से जोड़ने के लिए क्या करना चाहिए?

कुछ लोग दो किताब क्या पढ़ लिए कि वे ऋषियों द्वारा लिखी बातों को दकियानूसी बताने लगे। यह सिर्फ अपरिवक्व बुद्धि का परिणाम है। ऐसे लोगों को बुद्धि तो है लेकिन वह अपरिपक्व है। हमारे ऋषि सिर्फ बुद्धिमान नहीं प्रज्ञावान थे। प्रकाशित बुद्धि और विवेकयुक्त बुद्धि जहां सत्य की अनुभूति है, ऐसे प्रज्ञावान ऋषियों के द्वारा बताई हुई बातें या उनके द्वारा प्रस्थापित परंपराए दकियानूसी नहीं हो सकती हैं। इसमें कितनी वैज्ञानिकता है, वह हमारे वेदों और धर्म विज्ञान पक्ष को जो लोग समझते हैं वे सब जानते हैं। उदाहरण के तौर पर समझें कि हम पहाड़ और पशु पक्षियों की जो पूजा करते हैं, हमने पूजा में भगवान के वाहन जो पशु या पक्षी हैं उन्हें भी जोड़ा है जैसे भगवान भोलेनाथ नंदी की सवारी करते हैं, मां सरस्वती की सवारी मोर है, भगवती मां दुर्गा शेर की सवारी करती है, गणपति जी चूहे की सवारी करते हैं यह सिर्फ एक किंवदंती नहीं है। इसके गहरे अर्थ हैं। आप इन पशु पक्षियों के प्रति गहरा भाव तभी रख सकते हैं जब वे किसी न किसी देवता के साथ जुड़े हुए हों। नागपंचमी पर हम लोग तो नाग की भी पूजा करते हैं। भगवद् गीता में भी इसका जिक्र किया गया है कि मनुष्य को अन्य जीव जंतुओं के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जिसका जवाब है जैसा माता पिता अपनी संतान के साथ व्यवहार करते हैं वैसे उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना, उनका पोषण करना। हम तो मछलियों को भी आटा खिलाते हैं। हम जमीन पर चलते हैं तो भी यह ध्यान रखते हैं कि कहीं कोई जीव जंतु पैर से कुचल न जाए।

समय आने पर युद्ध के लिए तैयार करने वाले कृष्ण भगवान कहते हैं कि जब बात अस्तित्व पर आ जाए तो हथियार उठाना ही पड़ता है अन्यथा तो जमीन पर चल रहे छोटे से जीव को भी मारने पर हत्या लगती है। मानव का व्यवहार प्रकृति के साथ कैसा होना चाहिए? आज पर्यावरण की रक्षा पूरे विश्व के लिए एक बड़ी समस्या बन गई है। आज ग्लोबल वार्मिग बढ़ रही है, जबकि हमारे ऋषियों ने पर्वतों, पेड़ों और नदियों की पूजा करना सिखाया है। यह दकियानूसी नहीं है। इसके द्वारा हमें प्रकृति की पूजा करना सिखाया गया है। हम गाय की पूजा करते हैं, तुलसी, पीपल के पेड़ की पूजा करते हैं; क्योंकि इससे प्रकृति की रक्षा होती है। हम नदियों की पूजा करते हैं और उन्हें मां कहते हैं। उनकी पूजा से अर्थ यह है कि उन्हें प्रदूषित मत करो। वे हमारे जीवन में बहुउपयोगी हैं।

पुरानी परंपराओं का मजाक बनाने का ही यह परिणाम है कि आज शहरों की हवा इतनी खराब हो गई है कि सांस लेना मुशकिल है। नदियां इतनी प्रदूषित हो गई हैं कि उनका पानी पीने योग्य नहीं रहा है। ऋषियों ने जो ज्ञान दुनिया को दिया है उसमें एक बड़ा विज्ञान छिपा हुआ है। लेकिन आज कुछ चंद किताबें पढ़ने वाले लोग इसे ढोंग बता रहे हैं और इसी का परिणाम है कि जिंदगी में कितने सारे दुख प्रकट हो रहे हैं।

आदि शंकराचार्य जी से लेकर अभी तक कई धर्म गुरुओं ने समय समय पर समाज का मार्गदर्शन किया है; परंतु वर्तमान परिस्थिति में क्या आपको लगता है कि समाज अधिक दिग्भ्रमित है और अधिक मार्गदर्शन की आवश्यकता है, जिससे धर्म गुरुओं का दायित्व यहां और बढ़ जाता है?

आदि शंकराचार्य ने सिर्फ 32 वर्ष की आयु में वह सब कार्य किया जो काफी मुश्किल था और इसलिए ही हम उस दिव्य चेतना को जो साक्षात शंकर के अवतार हैं उन्हें नमन करते हैं। आचार्य ने समय समय पर अपनी उपस्थिति दी है और समाज का मार्गदर्शन किया है लेकिन समाज को आज भी मार्गदर्शन की आवश्यकता है। उदाहरण के तौर पर जब एक डॉक्टर या वकील से बात करें तो वे कहते हैं उनकी प्रैक्टिस पिछले 50 सालों से चल रही है। लेकिन यही महत्वपूर्ण है क्योंकि इन दोनों लोगों को लगातार सीखना पड़ता है। क्योंकि कानून और दवाओं में लगातार बदलाव होता रहता है। यानी कि सीखने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। इसलिए हमारे जो प्रज्ञावान पुरुष हैं, वे धर्म गुरु जो शास्त्रों को जानते हैं, जिन्होंने परंपरा से वेदों का अध्ययन किया है, जो स्वंय धर्मपूर्ण जीवन जी रहे हैं ऐसे पवित्र पुरुषों से मार्गदर्शन जरूर प्राप्त करें। भगवान राम जब मुनि भरद्वाज के आश्रम पहुंचते हैं तो राम मुनि से पूछते हैं कि वे किस मार्ग पर जाए, त्रिवेणी महापुरुष श्री राम ने भी मुनि से मार्गदर्शन लिया और उनके बताए मार्ग पर आगे बढ़े। सीखने में कहीं हिचक नहीं करनी चाहिए। हमेशा मार्गदर्शन लेते रहना चाहिए और जो प्रज्ञावान पुरुष है वह हमेशा प्रवचन में स्वाध्याय के प्रसाद को बांटता रहता है। ज्ञान है लेकिन ज्ञान किसी को दिया नहीं तो फिर मरने के बाद वह ब्रह्म राक्षस हो जाता है। यानी उस ज्ञान को सिर्फ अपने तक ही सीमित मत रखो। उसे बाकी लोगों तक पहुंचाओ। लेकिन वह हर किसी को मत दो। जो शिष्य भाव से जाता है प्रज्ञावान पुरुष के पास उसे दिया जाना चाहिए।

कर्मकांडों की अधिकता के कारण नई पीढ़ी अपने धर्म से विमुख हो रही है। उन्हें यह किस प्रकार से समझाया जा सकता है कि हमारी जीवन पद्धति में यह कर्मकांड विज्ञान आधारित है?

कर्मकांड भी हमारे वेद से संबंधित हैं और पूजा पाठ का भी अपना एक महत्व है। इनका मानव जीवन में महत्व नहीं है यह कहना जीवन में व्यायाम का महत्व नहीं है कहने जैसा होगा। क्योंकि जीवन में व्यायाम का बहुत महत्व है। वह करेंगे तो आप निरोग रहेंगे। जैसे व्यायाम शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है वैसे ही यह कर्मकांड मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। व्यवहार जगत में भाव के अनुसार मनुष्य क्रिया करता है जैसे करुणा से भर गए और किसी की मदद कर दी, दया से युक्त हो गए और किसी की सहायता में दौड़ पड़े, क्रोध से भर गए तो किसी से लड़ाई कर ली, यह होता है भाव के अनुसार क्रिया का होना। लेकिन जहां धर्म की बात होती है वहां क्रिया से भाव प्रभावित होता है। इसलिए ये कर्मकांड बनाए गए हैं।

वे कौन से क्षेत्र हैं जिनमें भारत आत्मनिर्भर बन सकता है और भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हमारी सांस्कृतिक जड़ें मजबूत होना कितना जरूरी है?

सबसे पहले तो विश्वास के मामले में आत्मनिर्भर बनना होगा। देश अंग्रेजों और मुगलों के हाथों में सैकड़ों साल गुलाम रहा। आजादी के बाद भी उन लोगों ने हमारी शिक्षा पद्धति को बिगाड़ दिया है। अब हम बिना पश्चिम की पद्धति के जी नहीं सकते। यह सोच खत्म करनी होगी और हमें यह सोचना होगा कि हम खुद ही सब कर सकते हैं- थश लरप वे ळीं. …। जब भारत ने परमाणु शक्ति का परिचय दिया तब अमेरिका जैसे राष्ट्र ने हमें सुपर कंप्यूटर देने से इंकार कर दिया। तब भारत से सामने एक चुनौती थी। लेकिन आज भारत साफ्टवेयर के मामले में दुनिया से लोहा ले रहा है। जब हमारी क्षमता को ललकारा जाता है उसको चुनौती दी जाती है तो हम कुछ कर के दिखाते हैं। मैंने दुनिया की कई संस्कृतियों को देखा है जहां से बहुत कुछ सीखने लायक है और यह हमारी संस्कृति में है कि कहीं से भी शुभ विचार मिले तो उसे ग्रहण करना चाहिए। आत्मनिर्भर की शुरुआत में सबसे पहले हमें ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए जिससे हम मानसिक गुलामी से मुक्त हो जाए और हम किसी से कम नहीं हैं यह गौरव हर भारतीय में जाग्रत होना चाहिए और सरकार की तरफ से तैयार की गई नई शिक्षा नीति उस दिशा में बढ़ता एक कदम है, जिससे हम आत्मनिर्भर बने।
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