वास्तुशास्त्र घर का!


अपने घर का वास्तुशास्त्रीय विश्लेषण करते समय लगभग 35 से 40 बिंदुकों पर सोचना जरूरी होता है। उसमें प्लॉट का चयन, प्लॉट के नजदीक के रास्ते, ढलान, आकार और साथ ही वास्तू का प्लॉट-में से स्थान, कंपाऊंड गेट, मुख्य वास्तू का प्रवेशद्वार, दीवानखाना, रसोईघर, शौचालय, स्नानगृह, शयनगृह, मुख्य एवं अन्य भोजनगृह, अभ्यासिका, ठाकुरद्वारा, ब्रह्मतत्त्व (घर का मझला हिस्सा) कमरा, सीढी, पार्किंग, वास्तू का सभी ओर का परिसर, नौकरों के हेतु आवास, घर में ही या घर के निकट होनेवाला कार्यालय अथवा कारखाना, घर के चारों ओरका बगीचा, सेप्टिक टँक, तळघर, ऊपर की मंजिल, सोने की- बैठने की- अध्ययन करने की दिशा, विभिन्न फर्निचर का चयन एवं स्थान, पालतू पशु, वास्तू एवं विभिन्न दिशओं के रंग, वैसे ही वास्तू में निर्मित वायुमंडळ, साथ ही कारखाना, ऑफिस, विविध व्यवसायों की दूकानें, हॉटेल्स, विद्यालय, मंदिर, सार्वजनिक हॉल, सार्वजनिक संस्था आदि सभी प्रकार की वास्तुएं, जहाँ आदमियों की आमदर पत होती है, वहाँ उपयुक्तता के अनुसार काफी गहरा अध्ययन किया गया दिखाई देता है, क्यों कि मानवजीवन में से कोई भी ऐसा अंग नहीं होता जिसके ऊपर वास्तुशास्त्र का प्रभाव न होगा। अब यहाँ हम जमीन एवं घर इनके प्रत्येक हिस्से को लेकर क्रमबद्ध तरीके से सोचेंगे।

कंपाऊंड गेट को ‘प्रथम प्रवेशद्वार’ अथवा ‘पूर्व प्रवेशद्वार कहा जाता है। सोसायटी के गेट का स्थान बिल्डर तथा आर्किटेक्ट इनके नियोजन में से निश्चित होने से तथा घर का कब्जा प्राप्त करने के पूर्व ही उसका शासकीय इमारत रचना परवाने के अनुसार एवं उपलब्ध होनेवाली प्रवेशद्वार की दिशा के अनुसार स्वीकार करना अपरिहार्य होता है। आम तौर पर कंपाऊंड गेट निम्न तरीके का होना अच्छा-

चारों ओर रास्ते होनेवाले प्लॉट की दिशा में प्रवेशद्वार बिल्कुल मध्य में आमने सामने समान ऊँचाई का और आकार का होना उचित होता है।

प्लॉट की ईशान्य, पूर्व, उत्तर, पश्चिम वायव्य एवं दक्षिण आग्नेय हिस्से में प्रवेशद्वार का होना सकारात्मक माना जाता है।
वास्तुशास्त्र के अनुसार आम तौर पर इमारत के लिए दो प्रवेशद्वार होना उचित होता है। उनमें से एक बडा तथा दूसरा छोटा हो।

आमतौर पर ये दोनों प्रवेशद्वार अलग अलग दिशाओं में हों, माने बडा गेट पूर्व दिशा में होगा, तो छोटा उत्तर में अथवा किन्हीं दो शुभदायी दिशाओं में दो अलग अलग प्रवेशद्वारों को आवश्यकता के अनुसार रचना की जाए।

प्रवेशद्वार

मुख्य प्रवेशद्वार को ‘सिंहद्वार’ भी कहा जाता है। जैसे कि ‘कनभर जैसा मनभर’ कहा जाता है, उसी प्रकार प्रवेशद्वार से वास्तू के बारे में प्राथमिक तौर पर मत बनता है। प्रवेशद्वार लाभदायक होनेवाली सही दिशा में होना चाहिए। प्रवेशद्वार के लिए सही दिशा में होना चाहिए। प्रवेशद्वार के लिए सही दिशा माने ईशान्य, पूर्व, उत्तर, पश्चिम-वायव्य तथा दक्षिण आग्नेय। जहाँ तक हो सके, प्रवेशद्वार एकही आकार की तख्तियों का बना हो। यह प्रवेशद्वारा अन्य सभी द्वारों की अपेक्षा ऊँचाई और चौडाई में बडा होना चाहिए, फिर भी अति भव्य न हो। वैसी ही वह सुशोभित एवं आकर्षक हो।

वह प्रवेशद्वार आयताकृति हो। अर्धमंडलाकार हरगिज न हो। सिंहद्वार के सामने पेड, खंभा, कुआँ, अंडरग्राऊंड वॉटर टँक, कूडादान, गंदे पानी की नाली, दूसरे घर का प्रवेशद्वार, अस्पताल, रेल स्थानक, बस डिपो, शमशान आदि में से कुछ भी न हो। प्रवेशद्वार अंदर की तरफ खुलनेवाला तथा खिडकियाँ बाहर खुलनेवाली होनी चाहिए।

वास्तु को चारों दिशाओं में प्रवेशद्वार अगर हों, तो वे सभी चारों दिशओं के शुभस्थानों में अथवा बीचोबीच समानांतर होने चाहिए। अशुभ स्थान में होनेवाले प्रवेशद्वार वहाँ निवास करनेवालों को उनके अपने अशुभस्थानों की तीव्रता के अनुसार पीडादायक फल देते हैं। वास्तू में एक सीधी रेखा में दो से ज्यादा दरवाजे न हों। अंदरवाले दरवाजों की रचना ऐसी हो, कि जिससे बाहर के व्यक्ति की नजर दीवान खाना छोडकर दूसरे किसी भी कमरे में न पहुँचे। वास्तू के अंदर के दरवाजे और खिडकियाँ इनकी संख्या 2, 4, 6, 8… इस प्रकार सम गुना में हो, लेकिन 10, 20, 30….ऐसी अंत में शून्य होनेवाली न हो। पूर्व तथा उत्तर के प्रवेशद्वारों के आसपास बडी खिडकियाँ हों, जिससे सुबह के समय की कोमल सूर्यकिरणें अधिक मात्रा में घर में फैल सकेंगी।

दीवानखाना

वास्तू में से सबसे पहला कमरा आने-जानेवालों की भीड, बैठके, चर्चा, मुलाकातें और परिवार के सदस्य भी घर में रहते इसी कमरे को ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। बाहर से आते ही प्रथम प्रवेश दीवानखाने में होने से प्रथमदर्शन में ही मन को प्रसन्न बनानेवाला वायुमंडल होना अत्यधिक आवश्यक होता है। इस बैठक कमरे का द्वार माने प्रवेशद्वार (कुछ अपवादों को छोड) एक ही होता है और वह शुभ दिशा में- ईशान्य, उत्तर, पूर्व, पश्चिम, वायव्य एवं दक्षिण-आग्नेय में होना उचित होता है। बैठक कक्ष में कम से कम सामग्री तथा काफी कुछ खुला वायुमंडल एवं सुबह का सूर्य प्रकाश फैलनेवाला हो।

परिवार के प्रमुख (गृहस्वामी और स्वामिनी) इन का बैठने का स्थान बैठक कक्ष की नैऋत्य दिशा में तथा मुख पूर्व, उत्तर अथवा ईशान्य दिशा की ओर हो। मेहमानों के बैठने की योजना वायव्य अथवा आग्नेय दिशा में और अन्य कोई चारा न होने पर ईशान्य हिस्से में की जाए, जिससे उनका मुख दक्षिण, पश्चिम अथवा नैऋत्य दिशा की ओर होगा, जिससे किसी भी चर्चा या वादविवाद में हम सवाई साबित हो सकते हैं। बैठक कक्ष में से हल्का सामान उत्तर और पूर्व हिस्से में तो, भारी सामान दक्षिण और पश्चिम हिस्से में रखा जाए। टेलिफोन नैऋत्य कोने में, तो सभी इलेक्ट्रिक उपकरण (टी. व्ही. छोड) आग्नेय दिशा में हों ऐसे प्रयास किये जाएँ।

बैठक कक्ष के ईशान्य कोने में अपने कुलदेवता का अथवा इष्ट देवता का छायाचित्र होना चाहिए, परंतू बैठक कक्ष ही अगर पूर्वोत्तर हिस्से में होगा, तो पूर्व से उत्तर इस पट्टी में, जहाँतक हो सके तो बैठक कक्ष में ही अलगाव एवं पवित्रता इन दोनों का संतुलन बनाते, यथा संभव टी. व्ही. एवं ठाकुरद्वारा एक ही स्थान पर ऊपर-नीचे ऐसे एकदूसरे के निकट रखना उचित होता है।

रसोईघर

रसोईघर आग्नेय दिशा के सिवाय अन्य किसी भी दिशा में अगर हो, तो उस हर दिशा के तत्त्वों के अनुसार शारीरिक, आर्थिक एवं शैक्षिक प्रगति में दुष्परिणाम, परिवार के सदस्यों के बीच मतभिन्नता के, झगडा होने के मामले बढना, दूसरों से मत्सर होने की पीडा होना, आर्थिक निर्णय गलत होना एवं हानि होना, साथ ही परिवार के अंतर्गत गृहिणी को रसोई घर में काम करने कुछ उत्साह ही मालूम नहीं होता।

संपूर्ण घर के आग्नेय कोने के कमरे में रसोई घर होना चाहिए। रसोईघर में ओटला पूर्व की ओर की दीवार से कुछ दूर लेकिन दक्षिण दिशा से सटा हुआ हो और गॅस सिगडी इस प्रकार रखी जाए, कि जिससे रसोई बनानेवाली गृहिणी का मुख पूर्व दिशा में होगा। किचन ओटले के ऊपर पानी का सिंक पूर्व दिशा की ओर हो। फ्रीज आग्नेय दिशा में रखा जाए। वैसे ही दूसरे कुछ उपकरण उदा. मिक्सर, ओव्हन, हॉट प्लेट, हीटिंग कॉईल आदि अग्निसंबंधित उपकरण भी रसोई घर के अथवा घर के आग्नेय हिस्से में हों। दीवानखाने में बैठे हुए व्यक्ति को सीधे सीधे रसोईघर का नजाना दिखाई न दे इस तरीके से ही रसोई के प्रवेशद्वार की रचना होनी चाहिए। अग्नि प्रस्थापना (माने गॅस, चूल्हा आदि) जमीन से कुछ ऊँचाई पर हो। रसोई घर के अनाज आदि का भण्डार कमरे की वायव्य अथवा पश्चिम एवं दक्षिण दिशा में हो।

जहाँ तक हो सके रसोई घर की पाटन उस कमरे के दक्षिण या पश्चिम हिस्से में हो। पानी का संचय बहुत ही कम मात्रा में पूर्व तथा उत्तर हिस्स में हो। संचय अधिक मात्रा में होने से उस हिस्से का बोझ बढकर वास्तुदोष निर्माण हो सकता है। डायनिंग टेबल रसोईघर के वायव्य हिस्से में रखा जाए तथा भोजन करते समय मुँह उत्तर से पूर्व दिशा में होना उचित होता है। आग्नेय दिशा में होनेवाले रसोई घर में पूर्व आग्नेय, दक्षिण-आग्नेय अथवा पूर्व-ईशान्य की ओर खिडकियाँ हो, जिससे सूरज की रोशनी आ सके और एक्झॉस्ट फॅन भी उस हिस्से में रखना उचित होता है।

रसोईघर की ऊँचाई आम तौर पर बारह फीटोंसे अधिक न हो, लेकिन रसोई घर अगर आग्नेय दिशा में न होगा, तो अन्य दिशाओं में उनमें से हर कमरे के आग्नेय हिस्से में रखा, तो किसी हदतक लाभ तो सकता है। आग्नेय दिशा में एक कोने में, जहाँ किसी का पाँव न पडे ऐसे कोने में जमीन के या फर्श के नीचे वास्तुपुरुष की स्थापना की जाए-अन्यत्र कहीं भी नहीं।

शयनगृह

प्रधान शयनगृह (मास्टर बेडरूम) नैऋत्य दिशा में होना वास्तुशास्त्र संमत है, क्यों कि नैऋत्य दिशा में होनेवाले पृथ्वीतत्त्व से ही मनुष्य को स्थिरता प्राप्त होती है। शारीरिक एवं मानसिक दृष्टिसे स्थिरता प्राप्त व्यक्ति संतुलित मानसिकता का ही होता है। संतुलित मानसिकता होने से किसी भी क्षण साधारणत: वह दोलायमान अथवा विचलित नहीं होता। शयनगृह के नैऋत्य दिशा में होने से परिवार प्रमुख को स्थिरता, आत्मविश्वास, नेतृत्वशक्ति तथा प्रभावशाली होने की क्षमता प्राप्त होती है। यह दिशा मूलत: सभी बुरी शक्तियों का प्रमुख स्थान होता है, किन्तु शयनगृह की इस दिशा में रचना तथा परिवार प्रमुख का इस दिशा में निवास माने सभी बुरी शक्तियों को अपनी वास्तु में प्रवेश करने में आपत्ति करने में बडा विश्वास होता है। वैसे ही इस शयनगृह में परिवार प्रमुख के अतिरिक्त और कोई भी शयन न करे। केवल ज्येष्ठ पुत्र के विवाह के उपरान्त तथा परिवार का उत्तरदायित्व निभाने की दृष्टि से लडका और बहू इन दोनों में उत्तरदायित्व का लिहाज उभरा हो अथवा माता-पिता निवृत्त हो चुके हों, तो ज्येष्ठ पुत्र और पुत्र वधू को वह शयनगृह सौंपना वास्तुशास्त्र संमत होता है। दो भाइयों के बीच बडे भाई के लिए नैऋत्य में, तो छोटे भाई के लिए दक्षिण या पश्चिम या अन्य दिशा में जानकार व्यक्ति के मार्गदर्शन में प्रबन्ध किया जाए। शयनगृह की रचना इस प्रकार हो-

शयनगृह का द्वार उत्तर, पूर्व, ईशान्य अथवा अन्य शुभ दिशा में हो।
बिछौने का या चारपाई का स्थान नैऋत्य हिस्से में हो।

सोते समय पारिवारिक उत्तरदायित्व होनेवाला व्यक्ति दक्षिण की ओर, तो विद्यार्थी और ज्येष्ठ व्यक्ति पूर्व दिशा में सिर रखकर शयन करे।

शयनगृह में से अलमारियाँ या वॉर्डरोब को कमरे के दक्षिण अथवा पश्चिम हिस्से में रखा जाए, कि उन अलमारियों में घर में से मूल्यवान चीजें रखना उचित होता है। उन अलमारियों के दरवाजे पूर्व या उत्तर दिशा में खुलनेवाले हो। शयनगृह में यथासंभव खिडकियाँ न हों। अगर होंगी भी, तो सूर्यास्त के समय किरणें अंदर न पहुँचे ऐसी उनकी रचना की जाए। शयनगृह के साथ शौचालय-बाथरूम न हो, फिर भी आज-कल की फॅशन पर अमल अगर करना ही हो, तो वह कमरे के वायव्य अथवा पश्चिम हिस्से में हो।

टी. व्ही., एअर कंडिशनर, कूलर आदि विद्युत उपकरण शयनकक्ष के आग्नेय हिस्से में रखे जाएँ। ड्रेसिंग टेबलों का स्थान पूर्व या उत्तर दिशा में हो। जहाँ तक हो सके, आइना ढँककर रखा जाए। शयनगृह में सोते समय किसी भी आइने में प्रतिबिंब न उभरे इस का ख्याल हो। वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। शयनगृह में परझती बनानी होगी तो बढिया, लेकिन पलंग पर सोनेवाले व्यक्ति की नजर सीधे छततक पहुँचे, इस प्रकार वह बनाई जाती। वास्तू के वायव्य कोने में होनेवाला शयनगृह मेहमानों के लिए तथा विवाह योग्य कन्या के हेतु उपयुक्त होता है। जरूरत होने पर बच्चों के लिए शयनगृह तथा अभ्यासिका के रूप में भी उसका प्रयोग हो सकता है। वयस्क व्यक्ति एवं छोटे बच्चों के लिए ईशान्य में होनेवाला शयनगृह ठीक होगा। आग्नेय और वायव्य दिशा में मुख्य शयनगृह अगर हो, तो परिवार में झगडे फिसाद काफी मात्रा में होते हैं। शयनगृह में ठाकुरद्वारा अथवा मृत व्यक्तियों के छायाचित्र हरगिज न हो।

घर की तलमंजिलपर और पहली मंजिल पर दो शयनगृह अगर हों, तो ऊपरका शयनगृह गृहस्वामी के लिए एवं नीचे का शयनगृह लडको के लिए होना उचित होता है।

स्नानगृह

स्नानगृह के लिए सब से बढिया स्थान माने पूर्व दिशा, क्यों कि सबेरे स्नान करते समय सूर्यकिरणें बदनपर फैलना माने उनमें से अतिनील किरणें बदनपर तथा बाथरूम पर फैलना लाभदायक होता है। पूर्व दिशा के अतिरिक्त पूर्व से उत्तर होनेवाला हिस्सा विकल्प के रूप में ठीक होता है। स्नानगृह का निर्माण करते समय कुछ बातों पर विचार करना आवश्यक होता है। बाथरूम का द्वार पूर्व, उत्तर या ईशान्य दिशा में होना उचित होता है।

बाथरूम की ढलान ईशान्य या पूर्व की ओर हो और वहीं से आउटलेट का पाईप बढाया जाए। बाथरूम में गीझर, हीटर, पानी गरम करने का बंब, स्विच बोर्ड आदि उपकरण आग्नेय दिशा में हों। पानी की टोंटी तथा शॉवर का कनेक्शन पूर्व या उत्तर में हो, जिससे स्नान करते समय मुख का पूर्व दिशा में होना अधिक लाभदायक होता है। बाथरूम में से पानी का संचय उस कमरे की नैऋत्य में हो। साबुन, शांपू, वॉशिंग पाउडर, फिनेल, झाडू, ब्रश आदि चीजें वायव्य कोने में रखी जाएँ। बाथरूम में एक खिडकी होना निहायत जरूरी होता है। पश्चिम या नैऋत्य दिशा टाली जाए। पूर्व से उत्तर इस हिस्से को छोड अन्य किसी भी दिशा में बाथरूम न हो, अन्यता आर्थिक हानि अथवा रोकथाम करने में वह कारण बन सकती है। स्वास्थ्य के लिए भी वह हानिकारक होता है। सफाई, सुंदरता एवं प्रसन्नता की दृष्टि से बाथरूम की दीवारों में छत तक टाइल्स बिठाना हितकारक होता है।

शौचालय

शौचालय के लिए सर्वोत्कृष्ट स्थान माने पश्चिम और वायव्य दिशा होती है, क्योंकि सूर्यप्रकाश में से अतितीव्र ताम्र किरणें कीटनाशक के रूप में, तो वायव्य का वायुतत्व दुर्गंधि को बहाले जाने की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गणित में जैसे शून्य का महत्त्व होता है, वैसे ही वास्तुशास्त्र में शौचालय का महत्त्व होता है। शौचालय की स्थापना यदि गलत दिशा में हुई, तो उसके बुरे परिणाम बहुत बडे पैमाने पर हानिकारक होते हैं। पूर्व ईशान्य अथवा उत्तर दिशा में होनेवाला शौचालय स्वास्थ्य के लिए शैक्षिक प्रगति पर तथा आर्थिक आय पर आघात करनेवाले साबित होते हैं, तो आग्नेय एवं नैऋत्य दिशा में होनेवाले शौचालय भारी मात्रा में आर्थिक हानि और साथ ही भात, दुर्घटना, तनावपूर्ण अवस्था निर्माण करते हैं।

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