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भारतीय मजदूर संघ की उफलब्धियां

सहकार क्षेत्र में मौलिक योगदान

by अजित कुलकर्णी
in जुलाई -२०१२, सामाजिक
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संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन 2012 को अंतर्राष्ट्रीय सहकार वर्ष के रूप घोषित किया है। जो कि सहकार क्षेत्र की असीम ऊर्जा और सुप्त सामर्थ्य की गवाही देने के लिये पर्याप्त है। एक ओर केवल फायदे का विचार करनेवाला, शोषणमूलक, मानवता और सामाजिक सरीका को भूली हुई विचारधारा और दूसरी ओर मनुष्य की सृजनशीलता और उद्यमशीलता का विनाश करनेवाली तथा नियंत्रण पर जोर देनेवाली साम्यवादी विचारधारा दोनों के ही पतन को विश्व देख चुका है। कम्युनिस्ट देशों का धराशायी होना और अमेरिका, यूरोप के देशों में आर्थिक संकाटो का बढ़ना दोनों इसके जीते जागते उदाहरण हैं। राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक विकास की दृष्टि से सहकार क्षेत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसलिये उसका विस्तार होना वैश्विक स्तर पर आवश्यक है। सहकार को एक संपूर्ण अर्थप्रणाली के रूप में कार्यान्वित किया जाना चाहिये।

भारत में सहकार क्षेत्र के इतिहास पर दृष्टि डालें तो सन् 1094 से इस क्षेत्र का कानून लाया गया। इसके बाद सन 1928 मे रायल कमिशन ऑफ एग्रिकल्चर इन इण्डिया द्वारा तात्कालीन ब्रिटिश शासन को अहवाल सौंपा गया जिसमें यह स्पष्ट रूप से लिखा था कि देश के ग्रामीण भागों की प्रगति और उत्कर्ष हेतु सहकार अत्यंत आवश्यक है और इसी माध्यम से वित्तीय व्यवस्था सुदृढ करने की आवश्यकता प्रतिपादित की। रॉयल कमिशन ने अपनी रिपोर्ट मे कहा था कि इतने वर्षो के बाद जब सहकार क्षेत्र की अवस्था गंभीर है तो इस वचन की याद आती ही हैं। सहकारी वित्तीय संरचना में नागरी सहकारी बँक एक यशस्वी उद्योग के रूप में विख्यात है। 5 फरवरी 1889 का बडौदा में पहली नागरी सहकारी बैंक की स्थापना हुई। महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक के कुछ भागों को छोडकर देश के किसी भी प्रान्त में इन बैंको का अस्तित्व न के बराबर है। महाराष्ट्र और गुजरात मे जता ये बैंक काम कर रहीं हैं वहां भी इन्हे अधिक सफलता नहीं मिल रही है। कुछ बैंक असफलता और सफलता के बीच झूल रहीं है और कुछ बंद होने की कगार पर हैं।

केवल महाराष्ट्र में ही पिछले 10 वर्षों में करीब 200 बैंक बंद चुके हैं। विधानसभा सत्र में यह कहा गया कि असुरक्षित कर्ज देने व्यवस्थापन की कमी, संचालकों के ठीक से कार्य न करने के कारण राज्य के करीब 151 सहकारी बैंक खतरे में हैं। इस बारे में जांच करके दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही की जायेगी। आर्थिक अनियमितता के कारण 25 बैंको पर धारा 83 के अंतर्गत कार्यवाही की जा रही है। 73 संचालकों को आर्थिक नुकसान के लिये जिम्मेदार ठहराते हुए धारा 88 के अंतर्गत कार्यवाही की जा रही है। इन सभी से यह स्पष्ट होता है कि सहकार क्षेत्र में सब कुछ व्यवस्थित नही है।

जनवरी 2011 से मार्च 2012 के बीच महाराष्ट्र की 11 बैंको……………………..। इनमें कुछ ऐसी भी बैंक थी जो एक समय काफी लाभ कमा रहीं थीं और बहुत प्रसिद्ध भी थी। उदाहरणार्थ इंदिरा श्रमिक महिला बैंक (नाशिक), बालाजी सहकारी बैंक (नाशिक), दादासाहेब रावल बैंक (नाशिक), चोपडा अर्बन बैंक, सिद्धार्थ सहकारी बैंक (पुणे), सोलापुर नागरी औद्योगिक सहकारी बैंक (सोलापुर), भारत अर्बन बैंक (सोलापुर), भंडारी अर्बन बैंक (मुंबई) कृष्ण व्हेली बैंक आदि। मार्च 2013 तक इस सूची में अन्य कई बैंको के नाम होने की संभावना है।

इस संदर्भ में एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सभी बैंको के बंद होने पीछे इनके संचालक मंडलों की गैर जिम्मेदार हरेक हैं। रिजर्व बैंक ने सहकारी बैंकों पर बिना सोच विचार किये अंतर्राष्ट्रीय बैकिंग के जो नियम लागू किये हैं वह भी एक कारण है। रिजर्व बैंक ने अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग के कानून को लागू करते समय सहकारी बैंको और अन्य मजबूत आर्थिक क्षमतावाला बैंको को एक ही कतार में खडा कर दिया है। दोनों के व्यवसाय का स्वरुप एक जैसा होने के कारण रिजर्व बैंक ने यह कदम उठाया परंतु इस एक वजह के अलावा सहकारी बैंक और अन्य बैंकों की तुलना ही नहीं की जा सकती है।

नागरी सहकारी बैंकों का उदय व उत्कर्ष एक विशेष सामाजिक-आर्थिक उद्देश्य से हुआ है। स्थानीय स्तर पर सहकारी पतसंस्था के रुप में जन्म लेने वाली सोसायटी को बैंक का लायलेन्स देने के पीछे तात्कालीन सरक का विदेश उद्देश्य था। अत: नागरी सहकारी बैंक की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है। बैंकिंग लायसेन्स देकर ऐसी सोसायटी की स्थानीय लोगों के बीच प्रतिष्ठा बढ़ाना और उनका विश्वास अर्जित करना जिससे वे स्थानीय स्तर पर लोगों से जमा पूंजी प्राप्त कर सकें। इससे इन बैंकों पर एक जिम्मेंदारी और आ गई कि वे छोटे और मध्यम स्तर के लोगों को बचत करने की आदत डाले और उन्हे सहज सुविधाए प्राप्त हो सकें। स्थानीय जनता की बचत से जमा की गई इस रकम को फिर से उसी स्तर के व्यवसायिकों, स्वयं रोजगार करने वालों, और मध्यम वर्गीय लोगों की वित्तीय अधिकताओं को पूर्ण करने के लिये उपयोग में लायी जाये। प्रकार पैसों का लेन देन होते रहने से समाज की उन्नती संभवत: स्थानीय स्तर पर उत्पादन, व्यापार, उद्योगों और रोजगारों का निर्माण होगा। आर्थिक उदारीकरण के इस अंधे खेल में सब बैंकों के मूलभूत कार्यों को रिजर्व बैंक भूल गयी। और अन्या की कतार में ही इसे भी खडा कर दिया। ‘जेणे काम तेणे थयो, बिजो करे गोता खाय’ इस गुजराती मुहावरे के अनुसार सहकारी बैंक करने कुछ और गई और हो कुछ और गया।

नागरी सहकारी बैंकों को सन 1997-98 में रिजर्व बैंक ने गवर्मेंट सिक्युरिटीज बेचने के लिये प्रोत्साहित किया था। इन सौदों में होने वाले फायदों के बारे में उस समय काफी बाते होती थी परंतु यह जानने की कोशिश नहीं की गई कि क्या ये सहकारी बैंक इस प्रकार के धोकादायक और अत्यंत अस्थिर बाजार में पूर्वक कार्य कर सकती हैं? क्या इनमें इतनी ताकत हैं कि वे सौदों में हुए नुकसान को सहन कर सकते है? इसका परिणाम वही हुआ कि जब सन 2002 में गव्हर्मेंट सिक्युरिटीज के भाव नाटकीय दंग से गिरे तब कई बैंकों पर ताले लग गये। कई बैंको को ट्रेडिंग में हुए नुकसान की भरपाई के लिये करोडों रुपये का इतंजाम अपने लाभ से करना पडा। अभी भी कुछ बैंके सन 2002 में हुए नुकसान के लिये विभाजित प्रीमियम के रुप में एक बडी रकम चुकानी पड रही है। आज इस बारे में बात नहीं करता। पहले नागरी सहकारी बैंकों को अपनी जमा रकम का 25% जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों के पास रखना पडता था। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों को निरंतर डिपॉजित मिलता रहे और से बैंक इस रकम को खेती और खेती अनुशांसीक व्यवसायों के लिये शुन: सहकारी बैंकों के माध्यम से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उपयोग किया जाये। इस योजना के कारण महाराष्ट्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बहुत उन्नती हुई। इनमें जिला सहकारी बैंकों का योगदान स्पष्ट था। काफी समय तक जिला और तहसील स्तर पर कार्य करने वाले सामाजिक और राजकीय नेताओं ने अत्यंत गंभीरता और ईमानदारी से इन बैंको को चलाया परंतु कुछ वर्षों से इनमें भी राजनीति होने लगी है। और अब कई जिला सहकारी बैंक भी संकट में हैं।

रिजर्व बैंक ने नागरी सहकारी बैंकों को यह निर्देश दिया था कि वे एस. एल. आर. को केबल गव्हर्मेंट सिक्युरिटीज में ही इन्वेस्ट करें। परंतु कुछ वर्षों पहले जिला सहकारी बैंकों की स्थिती खराब होने के कारण उनमें जमा किये गये नागरी सहकारी बैंकों की पूंजी पर भी खतरा उत्पन्न हो गया। ऐसे समय में रिजर्व बैंक ने संपूर्ण इनवेस्टमेंट को शून्य मान लिया। इसके अलावा जो ब्याज इन सहकारी बैंकों को मिलता था वह भी नहीं दिया गया और सख्ती के तौर पर फिर से एस. एल. आर. में इनवेस्ट करने हेतु बाध्य किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में राज्य सरकार ने भी नागरी सहकारी बैंको की पूंजी की जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया। बहुत सारी सहकारी बैंक केवल इसी एक कारण से बंद हो गई।

अनुत्पादित कर्ज की समय सीमा 90 दिन करते समय क्या रिजर्व्ह बैंक ने अपने देश की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का विचार किया था? औद्योगिक दृष्टि से विकसित देश जहां पर बहुत सी जनता एक निश्चित वेतन प्राप्त करती है वहां 90 दिन की समय सीमा ठीक है। परंतु भारत जैसे देश में, जहां खेती है मुख्य व्यवसाय है और संपूर्ण अर्थव्यवस्था उसी पर आधारित है। 90 दिन की समय सीमा अत्यल्प है। खेती में किये जाने वाले इनवेस्ट से लेकर फसल आने तक और उसका विक्रयमूल्य मिलने तक 8-9 महीने लग जाते हैं। ऐसी स्थिती में 90 दिन बहुत कम पड जाते हैं। अत: समय-समय पर बैंकिंग क्षेत्र के कई विशेषज्ञों ने इस समय सीमा को 180 दिनों तक बढ़ाने की मांग की है परंतु रिजर्व बैंक ने अभी तक इसमें सहमति नहीं जताई है। अत: बैंक में अनुत्पादित कर्ज बढ़ता जा रहा है और लाभ में कमी आ रही है।

एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले 10-15 वर्षों में पर्मनेन्ट नौकरियां मिलना मुश्किल हो गया है। कॉन्ट्रेक्ट के आधार पर या स्वयंरोजगार जैसे अन्य मार्ग खुल गये है। अत: मासिक वेतन-भोगियों की तरह इनसे प्रतिमाह आय का विश्वास नहीं होता है। इस प्रकार के असंघटित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या देश के कुल कर्मचारियो की संख्या का 85% है। इस क्षेत्र का राष्ट्रीय सकल उत्पाद में 60% योगदान है। इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की बचत कुल राष्ट्रीय बचत की 75% है। देश की औद्योगिक प्रगति के इंजन को ईंधन देने का कार्य यह क्षेत्र करता है। अत: देश की प्रगति का सबसे बडा हिस्सा इस असंघटित क्षेत्र को मिलना चाहिये। परंतु इस क्षेत्र को कर्ज देने से एन.पी.ए. बढ़ने के डर से सहकारी बैंक इन्हे कर्ज नहीं देती जिससे एक बडा उत्पादक वर्ग वित्तीय सेवाओं से वंचित रहा जाता है।

विश्व के कई देशो ने अपने देश की वास्तविक आर्थिक परिस्थिती और अंतर्राष्ट्रीय बाजार की परंपरागत व्यवस्था का पूर्ण अध्ययन करने के बाद वैश्विक बैंक के एन. पी. ए. के आधार को पूण रूप से नहीं अपनाया है। चीन और जर्मनी के बैंकों में सकल अनुत्पादित कर्ज अत्योधक हैं। परंतु उन्होंने वैश्विक बैंकों के नियमो को नहीं माना। भारत ने भी अगर इसी प्रकार अपने अर्थ और बैंकिग व्यवस्था के अनुकूल नियम बनाये होते तो निश्चित रूप से उसका फायदा अधिक हो।

कुछ वर्ष पूर्ण अमेरिका के बैंको में उत्पन्न हुए ‘सब-प्राइम’ कर्ज के संकट को देखते हुऐ ऐसा लगता नहीं कि इनकी बैंकिंग इंडस्ट्री ने बैसल समिती द्वारा बताये गये सुधारों पर अमल किया है। फिर आज अमेरिका किस हक से भारत पर इस तरह के ‘हायब्रिड नियम’ लाद रहा है और रिजर्व बैंक भी इनका साथ दे रहा है। आज अनेक यूरोपियन देशों में भी आर्थिक संकट गहराता जा रहा है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि पाश्चात्य अर्थ पंडितों और बैंकिंग विशेषज्ञों द्वारा प्रतिपादित तथ्य गलत साबित हो रहे हैं।

कुछ समय पहले ही रिजर्व बैंक ने यह घोषणा की है। कि बैंकों का सी. डी. रेशो अगर 70% से कम हुआ तो उन पर पर्यवेक्षकीय कार्यवाही की जायेगी वास्तविक रूप से कई राष्ट्रीय और प्रायवेट बैंकों का सी. डी. रेशो 75% से 80% है।

आय.सी.आय.सी.आय. और आय.डी.बी.आय बैंक सी.डी. रेशो क्रमश: 95% और 87% है। फिर केवल नागरी सहकारी बैंकों पर ही यह बंधन क्यों? इस कारण कार्यवाही के डर से सहकारी बैंक कर्ज नहीं देती और उनके लाभ का प्रतिशत कम हो जाता है। अत: उनकी प्रगति भी कम हो जाती है। परंतु अन्य बैंकों को कार्यवाही का डर नहीं है अत: आगामी दिनों में सहकारी बैंकों का व्यवसाय अत्यंत सीमित हो जायेगा। आज नागरी सहकारी बैंकों को स्पर्धा में खडे रहने के लिये सहकार की मूलभूत भावना की ही बली चढ़ानी पड़ रही है। इस समस्या के कारण सहकारी बैकिंग क्षेत्र में कार्यरत लोगों की चिंता बढ़ रही है।

इतनी प्रतिकूलता के बावजूद नागरी सहकारी बैंकों ने दमदार और यशस्वी तरीके से अपने कदम बढ़ाये हैं। इसी से सहकार क्षेत्र में व्याप्त ऊर्जा के दर्शन होते हैं। ‘मानवीय चेहरेवाली आर्थिक सामाजिक’ संस्था के रूप में नागरी सहकारी बैंकों के अस्तित्व को कोई नहीं मिटा सकता।

समान में उत्पन्न मध्यम वर्ग बढ़ते औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का परिणाम है। यह वर्ग दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषता वाला यह मध्यम वर्ग आर्थिक रूप से दुर्बल है परंतु इसकी आवश्यकता अधिक है। उनकी बिमारियां, शिक्षा, शादी-ब्याह, आदि व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय स्तर पर कार्य करने वाली सहकारी बैंक ही कर सकती है। इसी प्रकार छोटे-छोटे उद्योगों व्यवसायों को भी यही बैंक सहायता करती है। इससे आर्थिक विषमता कम करने में मदद मिलती है। अत: इन बैंको का भारत की अर्थव्यवस्था में विशेष स्थान है और इस स्थान की अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए रिजर्व बैंक और भारत सरकार द्वारा कदम उठाने की आवश्यकता है। हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय समावेशन के अंतर्गत समाज के दुर्बल और कम आर्थिक क्षमतावाले लोगों को उनके घर तक वित्तीय सेवा और आवश्यक कर्ज कम दरों में प्राप्त करवाने हेतु आर्थिक रुप से सक्षम नागरी सहकायी बैकों को व्यावसायिक मध्यस्थ के रुप में ‘व्यवसाय प्रतिनिधी और व्यवसाय सहायक के पद पर लोगो को रखने की घूट दी है। इस प्रकार से व्यावसायिक प्रतिनिधी रखने के पीछे रिजर्व बैंक का यह उद्देश्य है कि बैंकिग व्यवस्था में गरीबों और आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों का भी समावेश हो सर्वसामान्य नागरिकों को बैकिंग सुविधाएं कम दरों पर उपलब्ध करवायी जायें।

वास्तविक रुप से सहकारी बैंकों की स्थापना ही समाज के निम्न स्तर के लोगों को बचत की ओर प्रवृत्त करने और उन्हे बैंकिंग सुविधाएं कम दरों पर उपलब्ध कराने हेतु की गई थी। फायनेन्शियल इन्फूजन के जिन तलों का प्रतिपादन रिजर्व बैंक ने किया है सहकारी बैंको ने अपने सौ वर्षों की यात्रा में उन तत्वों पर यशस्वी रुप से कदम बढ़ाये हैं। विश्व बैंक ने जब गरीबी रेखा के नीचे कहे जाने वाले लोगों का सर्वेक्षण किया तो उसके मुताबिक विश्व में गरीबी रेखा के नीचे के लोगो की कुल संख्या का एक तिहाई भाग भारत में है। इस निष्कर्ष के अनुसार देश की 42% जनता गरीबी रेखा के नीचे है। इन 42% लोगों का आधार केवल सहकारी बैंक और पतपेढी है। अत: सहकारी बैंकों की उपयुक्तता और अनिवार्यता पहचाने हुए सरकार और रिजर्व बैंक ने इन बैंकों के लिये नये समीकरण बनाने चाहिये। 1960 के बाद सहकार के बारे में कहा जाता था कि इसे सफलतापूर्वक चलाने वाले और इच्छाशक्तिवाले नेता दुर्भाग्य से अब नहीं है। फिर भी कुछ संस्थाएं दीपस्तंभ के समान अपना कार्य कर रही है। इन्हीं के कारण रेगिस्तान में खिले किसी पौधे के समान सहकारी बैंके एक बार फिर नये जोश के साथ काम करेंगी और अर्थ जगत को कल्याणकारी मंत्र देंगी।

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Tags: businesscooperative sectorhindi vivekhindi vivek magazineindustrial growthjobsopportunities

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