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म्यांमार में लोकतंत्र की आहट

म्यांमार में लोकतंत्र की आहट

by सरोज त्रिपाठी
in जुलाई -२०१२, सामाजिक
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क्या सचमुच हमारे पड़ोसी देश म्यांमार में लोकतंत्र की स्थापना होने जा रही है। वहां के लोकतंत्र की योद्धा आंग सान सू ची तो घोषणा कर चुकी हैं कि ‘म्यांमार में एक नए युग की शुरुआत हो चुकी है।’ मगर उनकी इस घोषणा को वास्तविक माना जाए या नहीं, इसे लेकर पूरी दुनिया में संशय बना हुआ है। हाल ही में सूची की थाईलैंड यात्रा पर म्यांमार के सैन्य शासन की प्रतिक्रिया इस संशय को और मजबूती प्रदान करती है। थाईलैंड में सू ची के भव्य स्वागत से नाराज राष्ट्रपति थीन सीन ने अपनी आगामी थाईलैंड यात्रा रद्द कर दी है। थाईलैंड में सू ची ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को म्यांमार में उतावले आशावाद के खिलाफ चेतावनी दी थी, उनकी इस टिप्पणी की म्यांमार के राष्ट्रपति ने तीखी भर्त्सना की है। म्यांमार के राष्ट्रपति और सू ची के संबंधों में खटास म्यांमार के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया के लिए एक अशुभ संकेत हैं, क्योंकि इन दिनों म्यांमार में जो लोकतंत्र की बयार बह रही है, वह थीन सीन और सू ची के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्तों के कारण ही संभव हो सकी है।

अब से 22साल पहले म्यांमार में हुए पहले आम चुनाव में संसद की 80 प्रतिशत से ज्यादा सीटें जीत लेने के बावजूद सू ची की पार्टी नेशनल लींग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) को सेना ने सरकार नहींं बनाने दिया था। सेना ने उनकी पार्टी को गैरकानूनी करार दिया था और उन्हें स्थायी तौर से नजरबंद कर दिया था। सू ची की नजरबंदी इतनी सख्त थी कि सन् 1999 में वे अपने पति के अंतिम संस्कार में लंदन नहीं पहुंच पाई थी। नोबेल शांति पुरस्कार को ग्रहण करने के लिए भी उन्हें देश से बाहर नहीं जाने दिया गया। म्यांमार में सन् 2008 से लागू संविधान के तहत संसद के अधिकार अत्यंत सीमित हैं। सेना को राष्ट्रपति या संसद द्वारा किए गए फैसलों को वीटो करने का अधिकार है। संसद मैं एक चौथाई सांसद सीधे फौज द्वारा चुने जाते हैं। 224 सदस्यों वाले ऊपरी सदन में 56 और 440 सदस्यों वाले निचले सदन में 110 सांसद फौजी हैं। बाकी सीटों के लिए मतदान होता है। लेकिन सू ची की पार्टी को कुछ समय पूर्व तक इन चुनावों में भी अपने उम्मीदवार खड़े करने का अधिकार नहीं था, इसकी वजह यह थी कि बर्मा में केवल रजिस्टर्ड पार्टियां ही चुनाव लड़ सकती हैं। पार्टी का रजिस्ट्रेशन कराने के लिए फौजी दबदबे वाले संविधान की शर्तें एनएलडी को मान्य नहीं थी, मगर इस गैर लोकतांत्रिक संविधान से भी म्यांमार में पिछले दो वर्षों में कुछ बड़े बदलाव आए हैं। 2008 के संविधान के तहत म्यांमार में 2010 में पहला आम चुनाव हुआ। इस चुनाव में फौज समर्थित यूएसडीपी पार्टी विजयी हुई। सेना की पृष्ठ भूमि वाले जनरल थीन सीन के नेतृत्व में अर्धसैनिक सरकार सत्तारूढ़ हुई। इस सरकार में फौजी अधिकारियों की भरमार है। थीन सीन सरकार ने एनएलडी पर लगा प्रतिबंध हटा लिया। आंग सान सू ची को देश के भीतर घूमने फिरने की इजाजत दे दी गई। सू ची ने भी नरमी दिखाते हुए उपचुनावों में रजिस्टर्ड पार्टी के रूप में चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया। वैसे सू ची की पार्टी अपने इस मांग पर कायम है कि सेना द्वारा तैयार किए गए सन् 2008 के संविधान को रद्द कर नया संविधान लिखा जाना चाहिए, जिससे देेश पूरी तरह सेना के प्रभाव से मुक्त हो सके। म्यांमार के इस राजनीतिक घटना-क्रम से यह बात स्पष्ट हो गई कि अब म्यांमार की शासन व्यवस्था सू ची का एक सांसद और उनकी पार्टी एनएलडी को हाशिए पर पड़े एक संसदीय दल के रूप में अपने भीतर जगह देने को तैयार हो चुकी थी।

एक अप्रैल 2012 के उपचुनाव में सू ची की पार्टी ने 44 सीटों पर चुनाव लड़ा, उसके 43 उम्मीदवारों ने जीत हासिल की। इस उपचुनाव में एनएलडी की भारी जीत कोई चौंकाने वाली बात नहीं की। आठवें दशक के अंत से ही यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि यदि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हो और एनएलडी को चुनाव लड़ने दिया जाए तो एनएलडी भारी बहुमत हासिल करेगी। उपचुनाव में राजधानी की चारों सीटों पर एनएलडी की जीत विशेष महत्व रखती है। यहां सरकारी कर्मचारी और सैन्य कर्मी बड़ी संख्या में रहते हैं। इसे सत्तारूढ़ यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डिवेलपमेंट पार्टी (यूएसडीपी) का गढ़ माना जाता था। इस चुनाव परिणाम से यह बात खुल कर सामने आ गई कि अब सरकारी कर्मचारियों और सैन्य कर्मियों में भी एनएलडी की अच्छी खासी पैठ बन चुकी है। उपचुनाव में भारी जीत के बावजूद एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि संसद में 43 सीटों पर कब्जा जमा लेने मात्र से एनएलडी कोई तीर नहीं मार लेगी, लेकिन बर्मा के जनरलों को भी अब यह बात समझ में आ चुकी होगी कि सू ची और उनकी पार्टी के संसद में पहुंचने से देश में जो हलचल शुरु होगी, वह किसी के रोके नहीं रुकेगी, इससे ऐसा लगता है कि सन् 1947 में ब्रिटिश उप निवेशवाद से मुक्ति के बाद से ही सैनिक शासन में पड़े इस अभागे देश की किस्मत संवारने के आसार अब नजर आने लगे हैं। यह देश अब लोकतंत्र की दिशा में कुछ इतने मजबूत कदम बढ़ा चुका है कि यहां से पुराने गर्त में वापस जाना शायद उसके लिए संभव न हो। भारतीय उप महाद्वीप के पूर्वी-दक्षिणी छोर पर उचित इस सुस्त रफ्तार देश की ऐतिहासिक नियति कमोबेश इसके पश्चिमी-उत्तरी छोर पर मौजूद अफगानिस्तान जैसी ही रही है। दोनों ही देश-दुनिया की बड़ी ताकतों की खींचातान झेलते रहे हैं और उन्हें लंबे समय तक कट्टरपंथी तानाशाही का शिकार होना पड़ा है।

भारत और म्यांमार के बीच सदियों पुराने सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध रहे हैं। म्यांमार के जरिए ही भारत के लोगों ने प्राचीन काल में दक्षिणा पूर्व एशिया के देशों के साथ संपर्क स्थापित किए थे। लेकिन भारत में अंग्रेजों के आने के बाद से और पिछले पांच दशकों में वहां की सैनिक तानाशाही की वजह से भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच पुल की तरह काम करने वाला बर्मा पूरी तरह ठप सा हो गया था। 1962 में भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में भारत- म्यांमार के संबंध उस समय खराब हो गए, जबकि नाजुक माहौल का फायदा उठाते हुए वहां के फौजी जनरलों ने म्यांमार में बसे भारतीय व्यापारियों को रातों-रात खाली हाथ म्यांमार छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था।

हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने म्यांमार की यात्रा की है और वहां के अर्धसैनिक शासन के साथ समुद्री, जमीनी, हवाई यातायात और ऊर्जा से जुड़े कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर समझौते किए हैं। मनमोहन सिंह की म्यांमार यात्रा अब से 25 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की यात्रा का अगला चरण हैं, हालांकि इस बीच इरावदी और मीकांग नदियों में बहुत पानी बह चुका है। सन् 1987 में राजीव गांधी की पहल के बाद म्यांमार में लोकतांत्रिक आंदोलनों की बाढ़ आ गई थी, जिसका अंत वहां पहले से भी ज्यादा नृशंस फौजी तानाशाही की स्थापना के रूप में देखने को मिला था।

म्यांमार के फौजी शासकों ने अपने को बाकी दुनिया से काट कर रखा था। म्यांमार ने अपने घर के दरवाजे केवल चीन की ओर खोल रखे थे। चीन ने इसका भरपूर लाभ उठाया और म्यांमार पर अपना आर्थिक और सामरिक दबदबा स्थापित कर लिया। तेल और गैस के बड़े भंडार चीन के हिस्से गए, वहां की बड़ीं ढांचागत परियोजनाओं के ठेके भी उसे मिले। म्यांमार के बाजार चीनी मालों से भर गए। निवेश के नाम पर वहां कई हजार चीनी नागरिक रहने लगे। चीन भी म्यांमार का पड़ोसी है, अत: दोनों के बीच दोस्ती को सामान्य समझा जाना चाहिए लेकिन चीन के साथ म्यांमार की सांठ-गांठ ने भारत सहित अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चिंता में डाल दिया था, क्योंकि वहां म्यांमार के सैनिक शासकों ने अपने प्राकृतिक खजाने चीन को सौंप दिए थे तथा चीनी नौ-सेना को अपने समुद्र तटों और द्वीपों पर आवाजाही की अनुमति दे रखी थी। लेकिन अब म्यांमार में बहती लोकतंत्र की बयार से माहौल में तेजी से बदलाव हो रहे हैं।

अपनी हाल की म्यांमार यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नई-नई सांसद बनी सू ची से भी मुलाकात की। लेकिन एनएलडी और भारत के बीच संबंध सामान्य होने में वक्त लगते की संभावना है। इसका कारण है कि उत्तर पूर्व भारत में उग्रवाद पर काबू पाने के उद्देश्य से भारत ने म्यांमार के सैन्य शासन से अच्छा संबंध बनाए रखा था। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय शिष्टमंडलों ने म्यांमार की निंदा करने वाले प्रस्तावों का विरोध किया। स्वाभाविक है कि एनएलडी भारत की इन नीतियों को अवसरवादी मानता है बर्मा की लोकतंत्रवादी ताकतें भारत को एक हितैषी पड़ोसी और संभावित आर्थिक भागीदार तो मानती हैं लेकिन उसे राजनीतिक प्रेरणा का स्त्रोत मानने को तैयार नहीं हैं। उप निवेशवाद के खिलाफ संघर्ष के दौरान म्यांमार के नेताओं का भारत के स्वतंत्रता सेनानियों से सौहार्दपूर्ण संबंध था। स्वयं सू ची की पढ़ाई दिल्ली में हुई है, वे यहां के कई नेताओं और बुद्धिजीवियों से प्रभावित होने की बात आज भी स्वीकार करती हैं। अभी-भी म्यांमार में कोई भारत के खिलाफ नहीं है लेकिन कोई कट्टर भारत समर्थक भी नहीं है, अब वहां के लोग भारत को लोकतांत्रिक परिवर्तन की ताकत के रूप में नहीं देखते।

मनमोहन सिंह की म्यांमार यात्रा के बाद वहां की सरकार भारत की सीमा से लगने वाले अपने कई दरवाजे खोलने पर सहमत हो गई है। भारत को इसका तुरंत लाभ उठाना चाहिए। भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में म्यांमार की बड़ी भूमिका हो सकती है। म्यांमार से गहरे आर्थिक और राजनीतिक संबंध भारत को उत्तर पूर्वी राज्यों के विकास की कूंजी है और यदि ऐसा मुमकिन हुआ तो इसका सकारात्मक असर पूरे भारत पर पड़ेगा। इतिहास ने म्यांमार को एक मौका और दिया है कि वह भारत, चीन और आसियान जैसी तीन आर्थिक ताकतों के ऐन बीच अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति का भरपूर फायदा उठाए।

इतिहास के आइने में

सन् 1824-1886 यानी 62 वर्षों की अवधि में ब्रिटेन ने म्यांमार को जीत कर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
सन् 1886-1937 के दौरान भारत का एक प्रदेश रहा। सन् 1948 में आजादी मिली।
सन् 1962-1988 तक जनरल नेविन सत्ता पर काबिज रहे।
सन् 1990 में पहला स्वतंत्र चुनाव हुआ। सू ची की पार्टी एनएलडी को भारी जीत मिली। 20 जुलाई सन् 1989 से 13 नवम्बर 2010 के बीच अधिकांश समय सूची नजरबंद रहीं।
अप्रैल 2012 सूची म्यांमार की संसद के लिए निर्वाचित।
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Tags: aung san suu kyidemocracyhindi vivekhindi vivek magazinemyanmarpro democracy protest

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