भाषा विहीन संस्कृति की ओर

भाषा जातीय संस्कृति की संवाहिका होती है, इस विचार से सभी विद्वान सहमत हैं। अलग-अलग और समाजों की संस्कृति भिन्न-भिन्न होती है। जैसी इसी प्रकार, उस संस्कृति को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली भाषाएं भी भिन्न-भिन्न होती हैं। अत: किसी भाषा का क्षरण और मरण उससे संबंद्ध संस्कृति पर गहरे आघात का सूचक होता हैं।

संस्कृति के संदर्भ में भाषा को उसके व्यापक अर्थ में देखा जाना चाहिए। प्रचलित अर्थों में केवल ध्वनि संकेतों को भाषा की श्रेणी में गिना जाता है। किंतु भाषा की यह परिभाषा अपूर्ण है। मूक और जड़ पदार्थों में भी भाषा तत्व विद्यमान होता है। डाली पर खिले फूल अथवा क्षितीज के इस छोर से उस छोर तक फैले इंद्रधनुष की छटा बिना बोले हमसे बहुत कुछ कह जाती है। संस्कृति का परिष्कृत रूप कलाओं मेंं दृष्टिगत होता है। कुछ कला रूप जैसे- काक, गायन, वादन आदि ध्वनि संपन्न, तो कुछ काव्य रुप जैसे-चित्र, मूर्ति, वास्तु, नृत्यादि मौन रहकर संवाद करतेे हैं। कलाओं के संबंध में यह माना जाता है कि उनमें प्रकट से अप्रकट अधिक महत्वपूर्ण होता है, इसका एक तात्पर्य यह भी है कि कलाओं की भाषा मौन में ही अभिव्यक्त होती है। इस दृष्टि से भाषा मन और इंद्रीय का व्यापार है। भाषा को स्वरूप प्रदान करने के लिए मनुष्य के मनोवैज्ञानिक प्रयत्न करना पड़ता है। यदि यह मनोवैज्ञानिक प्रयत्न न हो तो ध्वनि संकेतों से अर्थग्रहण एवं कलारूपों, प्रकृति निरीक्षण से भाव सौंदर्य ग्रहण भी न हो। वस्तुत: भाषा से हमारा आभ्यांतर अभिव्यक्त होता है। आभ्यांतर के निर्माण और विकास में भी भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भाषा के माध्यम से ही हम अपने इतिहास और परंपरा से जुड़े रहते हैं।

प्रसिद्ध भाषा चिंतक श्री शिवसागर मिश्र के शब्दों में, ‘हम अपने समक्ष जो कुछ देखते या जो कुछ हम सुनते हैंं, वह हमारे इंद्रीय बोध के कारण ही संभव है। दृश्य जगत में जितने भी मूल पदार्थ हैं या क्रियाएँ हैं, उन्हें मनुष्य नाम देता है। इसके बाद ही मनुष्य को विचार के लिए आधारभूत सामग्री प्राप्त होती है। जब तक नाम न दिया जाये तब तक किसी रूप का ज्ञान नहीं होगा। रूप का ज्ञान सूक्ष्म चिंतन नहीं है, बल्कि वह दृश्य का आधार है, जिससे सूक्ष्म चिंतन संभव होता है। इस सूक्ष्म चिंतन क्रिया का परिचायक है-भाषा।’

शब्द के जरिए हमें किसी पदार्थ या अर्थ का बोध होता है। शब्द और अर्थ का यही मूल संबंध है। किन्तु शब्द स्वयं वह पदार्थ नहीं है। हिंदी में ‘मां’ शब्द कहने पर हमें अपनी जन्मदात्री का बोध होता है, अन्य लोगों को यही बोध ‘मम्मी’ कहने से होता है। ‘मां’ या ‘मम्मी’ की ध्वनियों में कोई ऐसा गुण नहीं है जो जननी के गुणों का प्रतिबिंबित हो। शब्द और अर्थ का संबंध ध्वनि और उससे संबंद्ध किये हुए पदार्थ का ही संबंध है। ऐसा भी नहीं है कि यह संबंध टूट नहीं सकता या खंडित नहीं हो सकता। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने पर वह संबंध टूट जाता है। एक कारण यह भी है कि हम अपनी भाषा को प्यार करते हैं क्योंकि वह हमारी है। उससे हमारा और हमारे पूर्वजों का संबंध रहा हैं। उस भाषा के शब्द और शब्द से संबंद्ध अर्थ को हमने विरासत में पाया है। कोई भारतीय बच्चा यदि ‘माँ’ को ‘मम्मी’ कहता है तो उस व्यक्ति को यह शब्द अच्छा नहीं लगता जो अपने परिवार अपने समाज और अपनी परंपराओं से गहरे रूप में जुड़ा हुआ है। इस तरह हम देखते हैं कि हमारी भाषा हमारी संस्कृति का अंग है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि जो जाति जिस

भाषा को बोलती है, वह जाति अपने सांस्कृतिक तत्वों को जितनी स्पष्टता और सूक्ष्मता से अपनी भाषा में अभिव्यंजित कर सकती है, उतनी स्पष्टता और सहजता से अन्य भाषा में अभिव्यंतित करना संभव नहीं है। अत: संस्कृति के संरक्षण एवं विस्तार हेतु उसको संवादित करने वाली भाषा का प्रयत्नपूर्वक संरक्षण एवं विकास करना आवश्यक है।

भारत का सांस्कृतिक उत्स संस्कृत भाषा में और उस संस्कृति का लोक में विस्तार सभी भारतीय भाषाओं में हुआ है। भारतीय भाषाओं का मूलाधार भी संस्कृत भाषा ही है, जिसने संस्कृत से पाली, पाली से प्राकृत और प्राकृत से अपभ्रंश तथा अपभ्रंश से कालक्रम में सभी भारतीय भाषाओं के रूप में आकार ग्रहण किया है। भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि जब जनभाषा अति समृद्ध होकर धार्मिक, आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक विचारों को गहराई और सूक्ष्मता के साथ अभिव्यक्ति देने मेें समर्थ हो जाती है, तब उसे परिनिष्ठित भाषा कहलाने का गौरव प्राप्त होता है। भौगोलिक विशालता के कारण भारत की अनेक जनभाषाओं ने परिनिष्ठित भाषाओं के रूप में गौरव प्राप्त किया। हिंदी भाषा भी उनमें से एक हैं। किंतु हिंदी में अनेक कारणों से ऐसी समन्वायात्मक विशेषताओं का विकास हुआ कि वह भारतीय भू-भाग के सभी क्षेत्रों में बोली और समझी जाने योग्य एक मात्र भाषा बन गयी है। हिंदी की इसी विशेषता को लक्षित कर, राष्ट्र हित को केन्द्र में रखकर चिंतन करने वाले सभी महापुरुषों ने, चाहे उनकी मातृभाषा कोई भी हो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की। संकुचित एवं स्वार्थी राजनीति ने आजादी चौसठ वर्षों के बाद भी हिंदी को संविधान संमत राष्ट्रीय भाषा नहीं बनने दिया तो क्या हुआ, राष्ट्र प्रेमी जनता के दिलों में राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होकर हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा के सभी कर्तव्य संपूर्ण गरिमा के साथ निर्वहन कर रही है। हालांकि, एक राष्ट्र के तौर पर हमारे लिए यह बड़ी शर्मनाक बात है कि हम उसे राष्ट्रीय भाषा का मान भी नहीं दे सके।

हिंदी में ‘मां’ शब्द कहने पर हमें अपनी जन्मदात्री का बोध होता है, अन्य लोगों को यही बोध ‘मम्मी’ कहने से होता है। ‘मां’ या ‘मम्मी’ की ध्वनियों में कोई ऐसा गुण नहीं है, जो जननी के गुणों का प्रतिबिंबित हो। शब्द और अर्थ का संबंध ध्वनि और उससे संबंद्ध किये हुए पदार्थ का ही संबंध है। ऐसा भी नहीं है कि यह संबंध टूट नहीं सकता या खंडित नहीं हो सकता। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने पर वह संबंध टूट जाता है। एक कारण यह भी है कि हम अपनी भाषा को प्यार करते हैं, क्योंकि वह हमारी है। उससे हमारा और हमारे पूर्वजों का संबंध रहा हैं। उस भाषा के शब्द और शब्द से संबंद्ध अर्थ को हमने विरासत में पाया है।

राष्ट्रभाषा का प्रश्न भारतीय अस्मिता के संबंधित बड़ा मुद्दा है, इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है। लेकिन वैश्वीकरण से उपजे बाजारवाद के कारण हिंदी ही नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं के अस्तित्व पर ही संकट के बादल बहराने लगे हैं। बाजारवाद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सब कुछ बिकने योग्य होता है। जो बिकने कों तैयार नहीं होता, बाजार में उसकी कीमत सबसे ऊँची हों जाती है और फिर बाजार की सभी शक्तियाँ उसके क्रय-विक्रय से माल कमाने के रास्ते तलाशने में सक्रिय हो जाती है। फिर भी यदि उन्हें इसमें सफलता नहीं मिलती तो वे चीजों का क्रियोलीकरण (विरुपण) करके उनकी ताकत कम करने का प्रयास करती हैं और अंतिम विकल्प के रूप में उनके नकली संस्करण तैयार कर, विज्ञापनों के भ्रम जाल से असली मात बताकर मुनाफे का धंधा प्रारंभ कर देती हैं। बाजार, अपने इस गोरख-धंधे में सत्ता प्रतिष्ठानों को भी अपना अनुगामी और सहयोगी बना नेता हैं। एक उदाहरण देकर इस बात को यहीं समाप्त करते हैं। ‘मनुष्यता’ खरीदने-बेचने की वस्तु नहीं है, इस बात से पूरे विश्व में शायद ही कोई व्यक्ति असहमत हो। किंतु मानवाधिकार संरक्षण के नाम पर ‘मनुष्यता’ को भी बाजार में खड़ा कर दिया गया। आप वाजिब कीमत पर आपकी पसंद और अनुकूलता वाला मानवाधिकार चाहे तो ‘मानवाधिकार संगठन’ नामक सरकारी दुकानों से खरीद लें, अथवा मानवाधिकार की रक्षा के लिए बने गैर सरकारी प्रतिष्ठानों (एन.जी.ओ.) से खरीद लें। सीमा पार से कश्मीर में घुसे आतंकी भी कश्मीरी जनता के मानवाधिकार हनन को रोकने के लिए ही तो खून-खराबा मचाये हुए है? हमारी सरकारें भी मनुष्य के जिंदा रहने के ‘मानवाधिकार’ की रक्षा के लिए अफजल गुरु और कसाब को फांसी से बचाये हुए हैं?

डॉ. प्रभु जोशी वैश्वीकरण एवं बाजार बाद के दुष्चक्रों में फंसी हिंदी और भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए अपनी प्रखर लेखनी से निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। वैश्वीकरण के नाम पर अंग्रेजी को जबरदस्ती थोपने में लगी उपनिवेशवादी ताकतों के चरित्र पर उनकी टिप्पणी काबिले गौर है। वे लिखते हैं, ‘बाजार की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह आपको यह समझाने में सफल हो जाता है कि आपका मर जाना ही आपके हित में है और आप खुशी-खुशी अपने पैरों से चलकर अपने वध स्थल पर पहुंच जाते हैं। ‘हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी के मामले में यही हो रहा है। अनेक तरह से अंग्रेजी के फायदे गिनाकर हिंदी के प्रति हमारी उदासीनता को उकसाने का अभियान जारी है। हिंदी स्कूलों में विद्यार्थियों की घटती संख्या, हिंदी के अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों की भरमार, विज्ञापनों की चकाचौंध वाली भाषा में शब्दों के घुँघलाते अर्थ, ‘ठंडा माने कोका-कोला’ और ‘दाग अच्छे है’वाली बाजारु संस्कृति के दुष्परिणाम हैं।

भाषा विहीनता की ओर बढ़ती हमारी संस्कृति कदमों की आहट सुनकर प्रसिद्ध साहित्यकार नरेश मेहता लिखते हैं,’’ जिस असंमभाव से हमारे राजनेता भारतीय अस्मिता, संस्कार और सर्जनात्मकता के साथ खेल रहे हैं, वह कितना खतरनाक खेल है, इसे ये महानुभाव तो नहीं ही, जानते हैं, लेकिन हम कब तक अंग्रेजी की दासता, पश्चिमी जीवन पद्धति की गुलामी स्वीकार करेंगे? क्या किसी दिन हम उसके विरुद्ध अपनी तर्जनी, मुट्ठी को नहीं खड़ा करेंगे? हमें इस खतरे को समझना ही होगा कि अंग्रेजी हमें अधिक से अधिक अंतर्राष्ट्रीय अनुयायी ही बना सकतीं है, जबकि अपनी भाषा व्यक्तित्व को स्वत्व, अस्थिमता और स्वतंत्रता देती है। हमें चुनाव करना ही होगा, अन्यथा हमें इतिहास संस्कृति मेेंं विलुप्त और विनष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता।

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