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मुंबई की लोकल गाड़ियों में गाना लोक गायकी का अनोखा अंदाज

मुंबई की लोकल गाड़ियों में गाना लोक गायकी का अनोखा अंदाज

by डॉ. दिनेश प्रताप सिंह
in अक्टूबर-२०१२, सामाजिक
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मुंबई की लोकल गाड़ियों में अनेक भजन मंडलियां वर्षों से यात्रा करती आ रही हैं। मध्य रेलवे के कसारा और टिटवाला तथा कर्जत और नेरल स्टेशनों एवं पश्चिम रेलवे के विरार और वसई आदि स्टेशनों से लोकल में चढ़ने वाली भजन मंडलियों के समूह गाड़ी में अपने आराध्य की प्रतिमा स्थापित करते हैं, अगरबत्ती से पूजा करते हैं, पुष्प माला और नैवेद्य चढ़ाते हैं और फिर भजन-कीर्तन का क्रम शुरू हो जाता है। अपने गंतव्य मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस या चर्चगेट पहुँचने से पहले आरती और पूरे डिब्बे में प्रसाद का वितरण किया जाता है। पूरे डिब्बे के यात्री रास्ते भर भजन-कीर्तन का आनंद उठाते रहते है। लोकल गाड़ियों के ये भजन-कीर्तन गायक पेशवेर नहीं होते। ये वे लोग होते हैं, जो प्रतिदिन डेढ़-दो घंटे की भीड़ भरी यात्रा करके सरकारी, गैर सरकारी, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में कार्यालय सहायक, पर्यवेक्षक और प्रबंधक जैसे पदों पर कार्य करने जाते हैं। घर से काम पर जाते-आते समय गायन-वादन से उबाऊ और थकान भरी यात्रा से उन्हें छुटकारा अवश्य मिलता। झांझ, मजीरा, खझड़ी, करताल के स्वरों के बीच मराठी भजनों को सुनने का अपना अलग ही आनंद होता है, ऐसे ही कुछ अन्य गायक मंडली लोकल गाड़ियों में चलते हैं, जो अपने गायन से थके-मांदे यात्रियों का मनोरंजन करते हैं, उनका उद्देेश्य पैसा इकट्ठा करना होता है। एक-डिब्बे से दूसरे डिब्बे, एक लोकल से दूसरे लोकल गाड़ी में घूम-घूमकर वे वाद्य यंत्रों के साथ गाना गाते हैं। पश्चिम रेलवे के विरार और बांद्रा के बीच में कई मंडलियां भजन-कीर्तन-कौव्वाली, देशभक्ति के गाने गाती हैं। पिछले दिनों बोरीवली से दादर जाते समय बगल के द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में तेज स्वर में गाने सुनकर उन गायकों से मिलने और बात करने की इच्छा से मैं उनके साथ बांद्रा स्टेशन पर उतर गया। उनसे मिलकर उनके विषय में जानकारी लेने के उद्देश्य से उन्हें हिंदी विवेक के कार्यालय में बुलाया। अगले दिन वे निर्धारित समय पर पहुंच गये। वे बीस-बाईस वर्ष आयु के तीन युवक हैं-फतेराम पुखराज गोस्वामी, ललित सन्तोष गोस्वामी और जीतू अर्जुन गोस्वामी। तीनों आपस में पारिवारिक रिश्ते में हैं। तीनों एक साथ लोकल गाड़ियों में कई वषार्ेंं से गीत गाकर अपनी आजीविका की व्यवस्था करते हैं। फतेराम और ललित के हाथ में डफली थी। उन्होंने अपनी तर्जनी और मध्यम अंगुलियों में पीतल और लोहे की मुनरी पहने रहते हैं। मुनरी और अंगुलियों की थाप से वे डफली बजाकर विभिन्न प्रकार से स्वर उत्पन्न करते हैं। ये तीनों प्राय: फिल्मी गाने ही गाते हैं, उनमें भी हिंदी फिल्मी गाने। देशभक्ति के गीत, भजन, कीर्तन, कौव्वालियां विशेष रूप गाते हैं। प्राय: लोगों के कहने पर अन्य गाने भी सुना देते हैं।

गले में काले धागे में शिर्डी के साई बाबा या सोने की पत्ती अथवा ताबीज पहनते हैं। कान में छोटी बाली और मुंबई की शैली में जीन्स पैंट और शर्ट उन्हें अलग पहचान देते हैं। वस्तुत: मुंबई के उपनगर बोईसर में पिछले 25-30 वर्षों से रहने वाले ये लोग राजस्थान के मारवाड़ के निवासी हैं। राजस्थान में इन गोस्वामी समुदाय के लोगों को साधू और महाराज कहा जाता है। अजमेर, नागौर, बीकानेर, ब्यावर, जोधपुर, जयपुर इत्यादि मारवाड़ के क्षेत्र के इन परंपरागत गायकों का यह खानदानी पेशा है। राजस्थान से दिल्ली, गुजरात और मध्यप्रदेश जाने वाली गाड़ियों में ये भजन कीर्तन गाकर रोजी-रोटी की व्यवस्था करते हैं। गायन-वादन में माहिर इन लोक गायकों को विवाह, जन्मदिन और समारोहों में गाने के लिये बुलाया जाता है। मन्दिरों और नवरात्र के जगराता में इनका गायन हमेशा होता रहता है। अजमेर शरीफ में उर्स के समय दिन-रात वहीं रहकर कौव्वाली गाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि गाने-बजाने का कार्य केवल पुरुष करते हैं। महिलाएं घर में ही सामान्य परिवारों की तरह रहती हैं। बात करते हुए फतेराम गोस्वामी ने बताया कि उनके समाज में अनेक प्रसिद्ध लोक गायक हुए हैं। उनके पिता पुखराज अच्छे गायक और हारमोनियम वादक हैंं, उनके एक रिश्तेदार स्व. प्रभुदास न केवल अच्छे भजन गायक थे, अपितु वे प्रसिद्ध तबला वादक भी थे। महावीर गोस्वामी को आज भी गाने के लिए दूर-दूर से बुलाया जाता है। इनके पहले भी इस समाज में कई प्रसिद्ध लोक गायक हुए हैं। पुरुषोत्तम महाराज का बड़ा नाम था। वे सुजानगढ़ के रहने वाले थे। एक बार मुंबई की पार्श्वगायिका हेमलता ने जब उनका गाना सुना तो उन्हें मुंबई ले जाना चाहा। किन्तु वे किसी काल्पनिक भय से नहीं गये। इसी तरह राम किशन महाराज का गायन में चर्चित नाम था। आजन उनका बेटा राजेश गोस्वामी पंजाब की एक आर्केस्ट्रा में गाता है। मदन जी दुआरका प्रसिद्ध ढ़ोलक और तबला बादक थे। धन्नाजी महाराज को भजन-कीर्तन गाने के लिए पूरा मेहनताना देकर बुलाया जाता था। उनका बेटा नरेन्द्र कभी-कभी गाने के लिए मुंबई आता है। मुन्ना जी महाराज के गाने आकाशवाणी से प्रसारित होते थे। दियाराम जी के राजस्थानी लोक गीतों रिकार्ड और कैसेट्स हर जगह बजते हैं।

मुंबई में ये सभी गोस्वामी परिवार के गायक बोईसर में ही रहते हैं। कुल 42-45 लोग होंगे, इनमें से 20-22 लोग जीविका और परिवार के भरण-पोषण के लिए दो-दो-तीन-तीन लोगों की मंडली बनाकर लोकल गाड़ियो में गाते-फिरते हैं। कुल आठ-नौ मंडलियां होंगी। ऊँचे स्वर में जब वे डफली पर थाप मारकर कोई गीत गाना शुरू करते हैं, तो पूरे डिब्बे के लोगों का ध्यान बरबस उनकी ओर चला जाता है। पिछले आठ वर्षों से हर दिन लोकल गाड़ियों भजन-कीर्तन गाने वाले इन युवकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये प्रत्येक गाने के पूरा होने पर बड़ी ऊँची आवाज में ‘भारत माता की जय’, ‘वन्दे मातरम्’, ‘जय हिन्द’ का उद्घोष करते हैं, उनके साथ-साथ सभी यात्री नारे लगाते हैं।

मुंबई में ही जन्में और पले-बढ़े इन गायकों की शिक्षा-दीक्षा नहीं हो पाती है। बचपन में बड़ी मुस्किल से दसवीं तक पढ़ते-पढ़ते ये गाने की मंडली में शामिल हो जाते हैं। गाने का कोई प्रशिक्षण नहीं, बजाने की कोई शिक्षा नहीं। बस एक-दूसरे के साथ मिलकर घर में या फिर लोकल गाड़ी में गाना सीखते भी हैं। राष्ट्रभक्ति के फिल्मी गाने तो सुनकर ही याद करते और गाते हैं।
इन पारम्परिक गायकों को लोकल गाड़ियों के अधिकांश यात्रा बड़े चाव से सुनते हैं। बहुत बार इन्हें बुलाकर चार-छ: गाने गवाते हैं। कुछ लोग बांद्रा से ही प्रतीक्षा करते रहते हैं। प्राय: अलग-अलग गाड़ियों में रोज गाने के कारण कुछ यात्री महीनों बाद इनका गाना सुन पाते हैं। ललित गोस्वामी ने बताया कि कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं, जो डफली बजाना शुरू होते ही झल्लाने लगते हैं और डांट-डपट कर गाना बंद करवा देते हैं। कभी-कभी यात्री गाना सुनने-न सुनने को लेकर आपस में लड़ पड़ते हैं, ऐसे में ये लोग न गाना ही बेहतर समझते हैं।

शिक्षा और गायकी के प्रशिक्षण से दूर इन गायकों का गुजारा इसी से होता है। प्रतिदिन दो-ढ़ाई सौ रुपये हरेक व्यक्ति कमा लेता है। इसी इतनी सी कमाई में घर चलाना पड़ता है। इसीलिए अधिकांश लोग गायकी के पेशा छोड़ते जा रहे हैं। अब वे भी अन्य मुंबई वासियों की तरह नौकरी-धंधा करने लगे हैं। उनके गाँव राजस्थान में भी खेती-बाड़ी न होने के कारण वहाँ के लोग भी अब बदलते जमाने के साथ नौकरी करने लगे हैं। वहाँ की सरकार भी इन पारम्परिक लोक गायकों के लिये कुछ नहीं कर रही है। विवाह-शादी और त्योहारों के समय अपने गांव जाने वाले ये लोग अपनी अगली पीढ़ी को इस गायकी के पेशे से दूर ही रखना चाहते हैं। इनकी यह भी इच्छा है कि जिस तरह से अनेक लोकगायकों को फिल्मों में अवसर मिलता है और अपनी कला लोगों तक पहुंचाने का माध्यम मिलता है, वैसे ही कोई माध्यम इन्हें भी मिले, ताकि इन गायकी को लोकल गाड़ियों से निकालकर बाहर के श्रोताओं तक पहुंचाया जा सके। इन्हें संगीत और सांस्कृतिक संस्थाओं से यह अपेक्षा भी है कि वे इन्हें समारोहों और सामाजिक कार्यक्रमों में अपनी प्रतिभा को प्रस्तुत करने का मौका प्रदान करें।
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