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मुहावरे-कहावते : पशु-पक्षी और पर्यावरण

मुहावरे-कहावते : पशु-पक्षी और पर्यावरण

by ज्वाला प्रसाद मिश्र
in अक्टूबर-२०१२, सामाजिक
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हमारे समाज, परंपरा, साहित्य और लोकोक्तियों में पशु-पक्षियों को बहुत महत्व दिया गया है, जो प्रकृति से हमारे पूर्वजों के जुड़ाव का द्योतक है। अब हम निसर्ग से दिन-प्रतिदिन दूर होते जा रहे हैं। नदी, झीलें, तालाब, पोखर, वन, उद्यान तेजी से सूख रहे या काटे जा रहे हैं, जिसके कारण अब पक्षियों का कर्णप्रिय कलरव या वन्य पशुओं के स्वर सुनाई नहीं देते हैं। सैकड़ों प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं; जो बच रही हैं, वे भी कब तक बचेगी?

एक पारधी द्वारा क्रौंच पक्षी का शिकार करने और क्रौंची के विलाप को सुनकर वज्रहृदय वाल्मीकि भी विचलित हो गए और उनके मुख से विश्व की पहली कविता अनायास निमल पड़ी-

‘‘मा निषाद प्रतिष्ठा: त्वगम: शाश्वती: समा:।
यत्क्रौंच मिथुना देकम वधी काम मोहिताम्।

(हे पारधी, तू इस वन में दोबारा मत आना। तुझे कभी शांति न मिले, क्योंकि तूने काम-सम्मोहित क्रौंच मिथुन में से एक का वध किया है।)

गोस्वामी तुलसीदास और वेदव्यास ने अपने महाकाव्यों में अनेक पशु-पक्षियों को मानवों की भांति बोलते-बातियाते दर्शाया है, जैसे जामवंत, हनुमान, सुग्रीव, बाली, अंगद, नल, नील, गरुड, नाग भुशुंडि, जटायु, सुबाहु, कालिया नाग इत्यादि। पंचतंत्र तो विश्वविख्यात पुस्तक है, जिसका दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद हुआ है। तीन दशक पूर्व गुलजार का मोगली गीत, बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की जबान पर चढ़ गया था, ‘‘जंगल-जंगल बात चली है–।’’

हमने अनेक पशु-पक्षियों को अपने देवताओं मे वाहनों के रूप में स्वीकार किया है, यथा-व्याघ्र, सिंह, मयूर, बैल, मूषक, भैंसा, मछली आदि। नि:संदेह ये कल्पना है, किंतु उसके गूढार्थ उसमें पीछे छिपे संदेश को समझना जरूरी हैं कि समस्त जीवधारी प्रकृति के अभिन्न अंग है। उनका संरक्षण अत्यावश्यक है। आजकल संरक्षित वनक्षेत्र प्रोजेक्ट टाइगर, पौधा रोपण, नदियों की सफाई आदि की बातें वातानुकूलित कमरों में होती हैं, योजनाएं बनती, प्रस्ताव मंजूर होते हैं, पर उन पर अमल नहीं होता। इसीलिये आज के पर्यावरण प्रेमी रचनाकार विलुप्त होते हुए पशु-पक्षियों को लेकर चिंतित है। जैसे मुनव्वर राना लिखते हैं- ‘‘नए कमरों में अब, चीजें पुरानी कौन रखता है। परिंदों के लिये शहरों में पानी कौन रखता है।’’ विख्यात यायावर, अमृत लाल वेगड ने अपनी सद्य:प्रकाशित पुस्तक ‘तीरे-तीरे नर्मदे’ में, सरिताओं, वनों के साथ किये जा रहे क्रूर व्यवहार का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है, जैसे ……..ट्रकों के काफिले खड़े थे…….मशीनों से रेत निकाली जा रही थी। मुझे लगा, मानो नदी की छाती में कोई चाकू घोंप रहा है।…..अपनी हजार क्रूर आंखें फाड़ कर यह शिकार-लोलुप दैत्य (मनुष्य) कह रहा है, ‘‘हवा को, पानी को, पशु-पक्षी को, पेड़-पौधों को, नदी को, मिट्टी को भी जिंदा नहीं छोडूँगा…..।

अनेक पशु-पक्षियों मे साहित्यिक नाम भी बहुत आकर्षक हैं जैसे वैशाख नंदन, मार्मिक सुंदरी, शाखामृग, श्वान, मृगेंद्र, वनराज, खगेश, कपोत, चकोर, वितुंड, मतंग, मार्जार, भुजंग, कुरंग, तुरंग, कोकिला, शृगाल, वृष्चिक, मेष, विषधर, मकर, शुक्त, पिक्त, क्रौंच, वृषभ, राजहंस आदि।

इन मुहावरों, कहावतों की सूची दे रहा हूँ। इनके अर्थ बतलाने भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे इतने सरल और आम-फहम हैं। परंतु कितने सटीक हैं, इस पर गौर करें-

अपने मुंह मियाँ मिट्ठू, बिल्ली मे गले में घंटी कौन बांधे?, खोदा पहाड़ निकली चुहिया, भेड़ की खाल में भेड़िया, भैंस के आगे बीन बजाओ, भैंस खड़ी पगुराय, काला अक्षर भैंस बराबर, अकल बड़ी या भैंस, गधे गुलाबजामुन खा रहे हैं, गधे और घोडे में फर्क, धोबी का गधा न घर का न घाट का, धोबी से जीते नहीं गधे के कान उमेठें, धधूंदर के सिर में चमेली का तेल, चूहे को चिंदी मिल गई तो खुद को बजाज समझने लगा, बिल्ली के भाग से छीका टूटा, अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है, सबै कुकरिया जगन्नाथे जइहैं तो हियाँ हड़िया कौन चाटी, ऊँट के मुंह मे जीरा, अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे, पानी में रह के मगर से बैर, कुत्ता भौंके हजार हाथी चले अपनी चाल, प्रथम ग्रासे मक्षिका, दूध से मक्खी की तरह निकाल देना, गधे के सिर से सींग की तरह गायब होना, परिंदा पर नहीं मार सकता, मालिक की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से बचना चाहिये, देखें ऊँट किस करवट बैठता है, दो मुल्लाओ में मुर्गी हराम, सांप के सपोले ही होंगे, सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे, दीमक की तरह खोखला करना, गिरगिट की तरह रंग बदलना, गधे का खिलाना, न पाप न पुन्न, हाथों से तोते उड़ जाना, अंधे के हाथ बंटेर लगना, वे जमाने गए जब खलील खां फाख्ते उड़ाते थे, जंगल में मोर नाचा किसने न देखा, बाज की तरह झपट्टा मारना, कुत्ते की पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी, घर की मुर्गी दाल बराबर, कौवा चला हँस की चाल, चूं-चूं-का मुख्बा, श्याणा कौवा कचरे पर ही बैठता है, बिल्ली का…न लीपने का न पोतने का, सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली, कभी बूढ़े तोते भी पढ़ते हैं?, मुर्गा बांग न दंगा तो क्या सबेरा नहीं होगा?, रीछ में बदन में बाकों का टोटा?, मरा हाथी भी सवा लाख का, हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और, बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी? काली बिल्ली का रास्ता काटना, खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे, झूठ बोले कौआ काटे।

कुछ मुहावरे बहुत छोटे किंतु सारगर्भित होते हैं, जैसे बंदर बांट, रंगा सियार, कुत्ता फजीती, बगुला भगत, बछिया के ताऊ गीदड़ भबकी, तोता रटन्त, जल बिन मछली, बरसाती मेंढक, दो मुहां सांप, कतिकहा कूकुर, गैंडे की खाल, अल्ला की गाय, कुक्कुर पुराण, गिद्ध दृष्टि, उल्लू की दुम, कछुआ चाल, सिंहनाद या केशरी गर्जन, लोटन कबूतर, शांति कपोत, स्साल केंचुआ (कायर, रीढ़ विहीन), चूहा दौंड़, यह फेहरिस्त पूरी नहीं होगी। फिर भी बताएं, कैसी रही?

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