लोकपाल, काला पैसा एवं अण्णा-बाबा का आन्दोलन

पिछले वर्ष लगभग इन्हीं दिनों देश का वातावरण अण्णा हजारे के आन्दोलन भर गया था। ऐसा वातावरण निर्माण हो गया था कि लगता था मानों देश में कोई नई क्रान्ति होने वाली है। उस आन्दोलन का बड़ा प्रभाव सरकार पर पड़ा था। उस दबाव के चलते एक निश्चित कालावधि में लोकपाल विधेयक लाने का आश्वासन सरकार को देना पड़ा था। परन्तु एक साल के उपरान्त इस समय वातावरण एकदम बदल गया है। लोगों के समर्थन के अभाव में अण्णा को अपना आन्दोलन पीछे लेना पड़ा। उनकी टीम को अपनी छवि बचाने के लिए नये राजनीतिक दल का गठन करके राजनीति करने वालों को सबकसिखाने के लिए मजबूर होना पड़ा। अण्णा की अपेक्षा बाबा रामदेव ने ज्यादा अच्छी भीड़ इकट्ठा की, किन्तु उनका आन्दोलन भी दिशाहीन अवस्था में समाप्त हुआ। गोविन्दाचार्य ने इन आन्दोलनों का वर्णन करते हुए कहा, ‘‘ये दोनों आन्दोलन राजनीति के कृष्ण विवर (ब्लैक होल) में गायब हो गये हैं।’’ कृष्ण विवर में जब कोई वस्तु गायब हो जाती है, तो उसके पीछे कुछ भी अवशेष नहीं बचा रह जाता। यहाँ पर ऐसी स्थिति होने वाली नहीं है। क्षणिक रूप से इन आन्दोलनों के पीछे की ऊर्जा पूरी तरह से खत्म हो गयी है।

यह ऐसा क्यों हुआ? जिन प्रश्नों को लेकर ये आन्दोलन शुरू किये गये थे, वे प्रश्न अब भी जस के तस बने हुए हैं। कोलगेट के माध्यम से सरकार का और बड़े भ्रष्टाचार का स्वरूप जनता के सामने आया है। काले धन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर गम्भीर प्रभाव पड़ा है, इसके बावजूद अनेक तरह के प्रयोग किये जा रहे हैं। किन्तु ऐसा होने पर भी अण्णा के आन्दोलन को लोगों का समर्थन क्यों नहीं मिल रहा है और बाबा रामदेव के अनुयायी उनके आन्दोलन की ओर गम्भीरता से क्यों ध्यान नहीं दे रहे हैं, ऐसे अनेक प्रश्न मन में उठ रहे हैं।

1974 मे जय प्रकाश नारायण ने भ्रष्टाचार के विरोध में आन्दोलन का नेतृत्व किया था। परिणामस्वरूप देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। चुनाव हुआ और सत्ता परिवर्तन हो गया। लगभग तीन वर्षों तक ही नयी सरकार टिक सकी। इस पार्श्वभूमि पर अण्णा और बाबा के आन्दोलन के अल्पजीवी होने के क्या कारण है?

किसी भी आन्दोलन को चलाने के तीन प्रमुख तत्व आवश्यक हैं। वह आन्दोलन प्रश्नों को किस प्रकार उठाता है, उस आन्दोलन के नेतृत्व कर्ता की विश्वसनीयता और क्षमता कितनी होती है और उस आन्दोलन की व्यूहरचना किस प्रकार से की गयी होती है। इन्हीं तीन तथ्यों के आधार पर आन्दोलन सफल या असफल होता है। 1974 में जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए आन्दोलन की विश्वासनीयता अपने-आप निर्माण हुयी थी। भ्रष्टाचार से लोग त्रस्त हो गये थे। सम्पूर्ण क्रान्ति की घोषणा से लोकमानस पर पकड़ बनी थी। नानाजी देशमुख जैसे कुशल संगठनकर्ता उस आन्दोलन की व्यूहरचना कर रहे थे। अण्णा के आन्दोलन में ‘लोकपाल’ की संकल्पना ने लोगों पर प्रभाव डाला था। देश से भ्रष्टाचार दूर करने हेतु लोक पाल को जादू की छड़ी के रूप में अण्णा ने लोगों के मन में स्थापित किया था। महाराष्ट्र के ग्रामीण भाग से आये हुए, ग्रामीण ढंग की हिन्दी बोलने वाले व्यक्ति के चतुर्दिक नेतृत्व का वलय प्रचार माध्यमोंद्वारा तैयार किया गया था। इससे पूर्व रालेगणसिद्धी से अण्णा ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनेक आन्दोलन किये थे। उससे भी पहले आदर्श ग्राम के निर्माण का उदाहरण उन्होंने लोगों के सामने रखा था। उससे नेतृत्व का अनुभव एवं नैतिक बल उन्हें मिला था। परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर बड़े आन्दोलन केवल व्यक्तिगत शैली से नहीं चलाये जाते। इसके लिए राष्ट्रीय व्यापकता की जरूरत होती है। इसका भान अण्णाजी को नहीं हुआ।

अण्णा के आन्दोलन को युवकों का जो अभूतपूर्व समर्थन मिला उसकी एक बड़ी पृष्ठभूमि थी। श्री श्री रविशंकर, बाबा रामदेव ने बहुत दिनों से आन्दोलन की पार्श्वभूमि तैयार की थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवकर संघ ने अपनी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करके भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलने वाले आन्दोलन को सक्रिय समर्थन देने की घोषणा की थी। किसी भी आन्दोलन के लिए जो मानवशक्ति और यन्त्रणा चाहिए, वह अण्णा के आन्दोलन के साथ खड़ी थी। परन्तु प्रसारमाध्यमों ने अण्णा के नेतृत्व को जिस प्रकार से प्रसिद्धि दी, उससे स्वयं अण्णा और उनकी टीम के सदस्यों का दिमाग घूम गया। उन्हें लगने लगा कि उनके नेतृत्व कौशल के चलते उन्हें इतना बड़ा जन समर्थन मिल रहा है। इसलिए उन्होंने श्री श्री रविशंकर तथा बाबा रामदेव की उपेक्षा की और कांग्रेस के प्रचार से घबराकर घोषणा कर दी कि इस आन्दोलन का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई सम्बन्ध नहीं है। 1974 में जय प्रकाश नारायण पर भी ऐसे ही आरोप लग रहे थे, किन्तु जातिवाद के आरोप से जय प्रकाश नारायण न घबराये और न भयभीत हुये। इसका परिणाम यह हुआ कि श्री श्री रविशंकर आन्दोलन से दूर हो गये। उपेक्षा से सन्तप्त बाबा रामदेव ने अलग से आन्दोलन करके का निर्णय लिया। परिणामत: गत वर्ष दिसम्बर महीने में अण्णा ने मुंबई से जो आन्दोलन किया, उसमें समस्त भ्रम टूट गया। उसमें लोगों का समर्थन न मिलने के कई कारण बताये गये। ऐसा कहा गया कि उसका समुचित प्रचार नहीं किया गया और आन्दोलन के लिये जो मैदान दिया गया था, वह लोगों के आवागमन की दृष्टि से सहूलियत वाला नहीं था। अण्णा और उनके समर्थकों ने आशा व्यक्ति की कि दिल्ली में अगला आन्दोलन जब होगा, तो उसमें पहले जैसा ही समर्थन मिलेगा। उनके भ्रम का गुब्बारा पहले ही दिन फूट गया। कुछ इधर-उधर के कारण बताकर आन्दोलन को पीछे लेना पड़ा।

इस आन्दोलन की असफलता का प्रमुख कारण व्यूह रचना का अभाव था। उस व्यूहरचना में किन शब्दों में अपनी मांग रखनी है, किस मार्ग के लिए आग्रह करना है, लड़ाई को किस प्रकार से संगठित किया जाये, विरोधी पक्ष के द्वारा उठाये गये कदमों का उत्तर किस प्रकार दिया जाये इत्यादि अनेक बातें शामिल थीं। यदि अण्णा ने अपनी मांग लोकपाल तक ही सीमित रखा होता, तो कदाचित लोकपाल विधेयक पास हो जाता और अण्णा को पहली विजय मिल जाती। किन्तु केन्द्र के लोकपाल के साथ ही राज्यों के लोकायुक्त विधेयक को भी पारित कराने का उन्होंने आग्रह किया। किन्तु यह आग्रह करते समय उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि राज्यों के सहयोग के बिना यह विधेयक पारित नहीं हो सकता और केन्द्र-राज्य के सम्बन्ध किस सीमा तक बिगड चुके हैं। केन्द्र सरकार ने इसका लाभ उठाया और और राज्यसभा में वह विधेयक अटक गया। आज केन्द्र और राज्य सरकारो के जो सम्बन्ध बिगडे हैं, उसे देखते स्पष्ट है कि राज्य सरकारे अपने मामलों में केन्द्र को हस्तक्षेप नहीं करने देंगी। इस दृष्टि से केवल लोकपाल विधेयक पारित कराना ज्याए उचित होता। इसके साथ ही कोई आन्दोलन चलाते हुए उसकी गतिशीलता और लोकप्रियता कायम रखने के लिये व्यूहरचना करनी पड़ती है। इस ओर भी अण्णा और उनके सहयोगियों में ध्यान नहीं दिया। और भी यह कि पूरे आन्दोलन के दौरान अण्णा और उनकी टीम द्वारा किसे बरखास्त किया गया, किसे साथ लिया गया, कि किसे निकाल दिया, इस दृष्टि से उनमें आपस में विश्वास का अभाव था। जब नेताओं में ही आपस में विश्वास नहीं हैं, तो लोगों का विश्वास उन्हें कैसे मिल सकता है।

यह अण्णा की कथा है। बाबा रामदेव की कहानी दूसरी है। बाबा रामदेव के स्वागत के लिए विमानतल पर मंत्रियों का बड़े शिष्टमण्डल के पहुंचने पर उन्हें लगने लगा कि वे महान क्रान्तिकारी हैं। ऐसा कहा जाता है कि बिना किसी मोह में पड़े हुए योग साधना सिखायी जाती है। किन्तु किसी अन्य मोह की अपेक्षा अपनी छवि का मोह बड़ा होता है। इसलिए अपने सलाहकारों को किनारे करते हुए बाबा रामदेव ने आन्दोलन की व्यूहरचना अपने हाथ में ले लिया। सवा सौ वर्ष की लम्बी परम्परा वाली कांग्रेस ने रात में अचानक आन्दोलन कारियों पर पुलिस कार्रवाई करके अचानक बाबा रामदेव का आन्दोलन ध्वस्त कर दिया। उस पुलसिया दमन का निर्भयता पूर्वक सामना करने के बजाय बाबा रामदेव महिलाओं के वस्त्र पहनकर स्वयं को बचाने का प्रयत्न किया। वहा किसी शूरवीर निर्भयी नेता का कार्य नहीं था। उसके उपरान्त उपोषण पर बैठे बाबा की तबियत बिगड़ने लगी।

किन्तु अपना उपवास छोड़ने का निवेदन उनसे किसी कांग्रेसी नेता ने नहीं किया। ऐसा करना सरकार को भी जरूरी नहीं लगा। इस प्रकार की अपमान जनक परिस्थिति में बाबा रामदेव को पहले आन्दोलन का अन्त हो गया। किसी भी आन्दोलन में ऐसे उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। परन्तु इस अपमान के उपरान्त उत्तर प्रदेश के चुनाव के समय बाबा रामदेव ने यदि अपने अपमान का बदला लेने की व्यूह रचना किया होता, तो सरकार पर उनका दबाव बना रहता। किन्तु उस समय बाबा ने कुछ नहीं किया। इसलिए बाबा रामदेव चाहे जितनी भीड़ जुटा लें, राजनीतिक दृष्टि से उसकी कोई कीमत नहीं रह गयी हैं।

चाहे भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए लोकपाल और लोकायुक्त नियुक्त करने की अण्णा की मांग हो, या फिर बाबा रामदेव की काला धन भारत में वापस लाने की मांग हो। ये दोनों ही मांगे लोकप्रिय होने के बावजूद भ्रष्टाचार निर्माण होने के जो कारण हैं और काला धन जमा होने के जो कारण हैं, उनकी ओर दोनों आन्दोलनों ने गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया। दुनियाभर में चुनाव की जो प्रक्रिया है, वह बहुत खर्चीली है। वह और अधिक खर्चीली होती जा रही है। जब तल यह प्रक्रिया खर्चीली बनी रहेगी और राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं की आय के वैध स्रोत नहीं बनते, तब तक राजनीतिक भ्रष्टाचार बना रहेगा। केवल इतना होग कि अलग-अलग राजनीतिक दलों की अपनी संस्कृति के अनुरूप उसमें कम-ज्यादा होता रहेगा। टी. एन. शेषन ने चुनाव आयुक्त के पद पर रहते हुए चुनाव खर्च में कमीं करने की दिशा में कुछ कदम उठाये थे। परिणाम स्वरूप कुछ क्षेत्र में खर्च में कभी आयी, अन्य क्षेत्र में खर्च बेहिसाब बढ़ा। जब तक राजनीति के क्षेत्र में कार्य कर रहे कार्यकर्ताओं को अपना काम चलाने और राजनीतिक कार्य करने के लिए एवं चुनाव के लिए धन उपलब्ध कराने की दिशा में कोई ठोस उपाय-योजना नहीं बनायी जाती, तब तक राजनीतिक भ्रष्टाचार के विषय में बोलना उचित नहीं होगा। अण्णा के आन्दोलन ने सभी राजनीतिक दलों का विरोध करने की भूमिका अपनाया है। यह भूमिका एक विशेष वर्ग के लोगों में खूब लोकप्रिय हुयी है। परन्तु राजनीतिक दलों की व्यवस्था के बिना देश का राजकीय काम-काज ही नहीं चल सकता। इसलिए टीम अण्णा द्वारा चुनाव लड़ने हेतु राजनीतिक दल गठित करने की घोषणा से यह सीख मिलेगी कि बिना पैसा खर्च किये, चुनाव किस तरह से लड़ा जा सकता है। ऐसा उपहास पूर्ण उद्गार शरद पवार ने किया। केवल राजनीतिक दलों को धन उपलब्ध कराने की संवैधानिक व्यवस्था होने पर भ्रष्टाचार अपने-आप समाप्त हो जाएगा। ऐसा न मानने का कोई कारण भी नहीं है। आज राजनीतिक भ्रष्टाचार का मुकाबला यदि चुनाव के रास्ते करना हो तो वह करने के लिए भी भ्रष्टाचार का अवलम्बन लेने के शिवाय इलाज नहीं है। यही आज की अडचन है। यह अडचन यदि दूर हो गयी, तो वर्तमान राजनीति के अनेक पर्याय उपलब्ध हो सकते हैं।
इसके लिए लोकपाल का उपाय पर्याप्त नहीं है। उसमें मूल रोग ठीक करने की क्षमता नहीं है। उसके लिए एक आन्दोलनात्मक कार्यक्रम के साथ ही रचनात्मक कार्यक्रम भी लोगों के सामने रखने और उस पर चर्चा होने की आवश्यकता है।

काले पैसे को विरोध करने के आन्दोलन करने की स्थिति भी वैसी ही हुयी। बाबा रामदेव का आन्दोलन विदेशों से काला पैसा वापस लाने के लिये है। काला धन इकट्ठा करने वाले को फांसी देने की लोकप्रिय मांग भी भारत में लागू नहीं हो सकती। इसके लिए वे देश विरोध करेंगे जिनकी बैंकों में काला पैसा जमा किया जाता है। इसके लिए प्राप्त जानकारी को पारदर्शी रीति के अनुसार जाँच करने वाली मशीनरी के पास पहुँचाने और न्यायिक प्रक्रिया का पालन करना होगा। एक बड़े पैमाने पर तस्करी हो रही थी। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के तहत जबसे खुली अर्थव्यवस्था लागू हुयी है, तस्करी में खूब कमी आयी है। उसी तरह जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था अधिक खुली होती जायेगी, कर प्रणाली जरूरी नहीं रहेगी, वैसे ही काले पैसे में कमी होती जायेगी। एक समय ऐसा था कि व्यवसाय करके के लिए काला पैसा आवश्यक था। आज वह स्थिति बड़े पैमाने पर कम हुयी है। आज बहुत सारा पैसा भ्रष्टाचार के द्वारा ही पैदा, हो रहा है। इसलिए यदि भ्रष्टाचार दूर करना है, तो सरकार का कार्य व्यवहार अधिक पारदर्शी होना जरूरी है। इसके लिए लोगों ने व्यवस्था में बदलाव करने के लिए अनेक सुझाव दिये है। उन बदलाओं को मूर्तरूप देना अधिक व्यवहारिक होगा। इसलिए बाबा रामदेव द्वारा कोई प्रयत्न न किये जाने के कारण उनके आन्दोलन को गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है। इसी तरह बाबा रामदेव की अनेक संस्थाओं के कार्यों को कानूनी दांव-पेंच के माध्यम से सरकार घेरे में लेकर उन्हें परेशान कर रही है।

आगामी लोकसभा बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान कांग्रेस सरकार केवल भ्रष्ट ही नहीं, अपितु अकार्यक्षम और हर दृष्टि से असमर्थ हैं। भारत महाशक्ति कैसे बन सकता है, यह चर्चा ही पूरी तरह से बन्द हो गयी है। भारत के प्रधानमंत्री की छवि एक दु:खान्त महानाट्य के नायक की बन गयी है। आज कांग्रेस को विकल्प देने की सुप्त क्षमता भाजपा में है, किन्तु इस पार्टी की स्थिति दिशाहीन है। अनेक राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा स्वच्छ स्थिर और कार्यक्षम प्रशासन देने की आशा करना ही आत्ममुग्धता होगी। प्रत्येक आन्दोलन द्वारा समाज के सम्मुख एक नया नेतृत्व लाया जाता है। वस्तुत: आन्दोलन ही सही नेतृत्व के निर्माण की प्रक्रिया होता है, किन्तु इस आन्दोलन में यह तथ्य शुरू से ही दिखायी नहीं दे रहा है। उन्हें इसकी दूर दृष्टि ही नहीं हैं। इसी कारण आज के समस्त राजनीतिक परिस्थितियों को गतिमान करने, उन्हें दिशा देने की चेतना निर्माण करने का कोई भी चिन्ह इस आन्दोलन में दिखायी नहीं दे रहा है। इसलिए पिछले वर्ष हुयी आन्दोलन की गहभागहमी, आकाश में क्षण भर के लिए चमकने वाली बिजली के समान थी। नेत्रदीपक, आकस्मिक, चौंकानेवाली, गड़गड़ाहट उत्पन्न करने वाली, किन्तु क्षणिक। आज भी इससे बाहर निकलने की कोई सम्भावना दिखायी नहीं दे रही हैं।

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