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समाजमन में ‘दुर्गा शक्ति’ जागृत हो

समाजमन में ‘दुर्गा शक्ति’ जागृत हो

by अमोल पेडणेकर
in कहानी, विशेष, सामाजिक
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कहते हैं कि भारतीय मानस को समझना हो तो भारत में मनाए जाने वाले त्योहारों, उत्सवों, परम्पराओं को समझना महत्वपूर्ण है। इन सभी का भारतीय जीवनशैली से अत्यंत निकट का सम्बंध है। भारतीय मानस विभिन्न उत्सवों में रमता है, उसका व्यक्तित्व निर्माण होता है। गणेशोत्सव, कृष्णोत्सव, दुर्गोत्सव, नवरात्रोत्सव जैसे विभिन्न उत्सव भारतीयों के मानसिक, सामाजिक व्यक्तित्व की निर्मिति के महत्वपूर्ण अंग हैं। भारतीयों की उत्सवप्रियता को प्रदर्शित करने वाले जो अनेक उत्सव हैं उनमें एक है नवरात्रोत्सव। ‘दुर्जन शक्ति पर सज्जन शक्ति की विजय’ के रूप में मनाया जाने वाला दुर्गोत्सव मध्य, उत्तर, पश्चिम व पूर्व इस तरह पूरे भारत में उत्साह और जोश के साथ मनाया जाता है। आश्विन शुद्ध प्रथमा से आश्विन शुद्ध नवमी तक देवी की उपासना है ‘नवरात्र।’

हमारे पुराणों में स्त्री के अलौकिक कर्तृत्व का उल्लेख ‘आदिशक्ति’ के रूप में किया गया है। तेजोमय, धनलक्ष्मी, विद्यारूपी, सरस्वती और आदिशक्ति महाकाली सत्व, रज और तम इस त्रिगुणी शक्ति का संगम अर्थात महामाया… आदिशक्ति! इन तीनों रूपों में देवी ने समय-समय पर समाज के लिए विघातक बनी दुर्जन प्रवृत्तियों का अर्थात राक्षसों का संहार किया है। हमारी मान्यता है कि जब जब धरती पर दुर्जन और दुष्ट प्रवृत्तियों का उपद्रव बढ़ेगा तब तब उसे समाप्त करने के लिए देवी अवश्य अवतरित होगी। देवी रूपी ये शक्तियां दुःख, दैन्य, अज्ञान और पापबुद्धि का नाश करने वाली हैं और इसीलिए आदिशक्ति के इस शौर्य और पराक्रम की आराधना करने वाले नवरात्रि उत्सव को भारतीय जनमानस में अत्यंत महत्व है। आदिशक्ति के पराक्रम का विजयोत्सव है दशहरा… आनंदोत्सव है दशहरा!

इस उत्सव का लक्ष्य है समाज में, लोगों में प्रयत्न, पुरुषार्थ, शौर्य, धैर्य, पराक्रम जागृत हो। समाज में दुर्जन प्रवृत्ति दूर हो और सत्प्रवृत्ति, अच्छाई, लक्ष्य के प्रति समर्पित प्रवृत्ति निर्माण हो। अनादि काल से चल रही देवी की उपासना और आराधना का, देवी के जागरण का यही मुख्य उद्देश्य है। ‘व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के स्तर पर सब कुछ अच्छा हो, निर्विघ्न सफल हो’ यह प्रार्थना करने व आदिशक्ति का स्मरण करने के लिए नवरात्रोत्सव मनाया जाता है।

‘महिषासुरमर्दिनी’ के रूप में भी हम आदिशक्ति की उपासना करते हैं। ‘महि’ का अर्थ है मन। मनरूपी असुर हमारे शरीर पर कब्ज़ा कर लेता है। हमारी अच्छी शक्तियों को खत्म करने का लगातार प्रयास करता है। इस मन पर नियंत्रण करने की प्रेरणा, स्फूर्ति हमें उपासना, पूजा, जप-तप से प्राप्त होती है। इसलिए ‘शक्ति’ न हो तो यह शरीर भी ‘शव’ बन जाता है। इसीलिए शक्ति की आराधना, शक्ति का जागर ही नवरात्र उत्सव है।

हमारी भारतीय संस्कृति सदा से यह बताती रही है कि इन उत्सवों के पीछे आत्मबल, व्यक्तिबल, समाजबल, राष्ट्रबल संवर्धन करने की मंशा है। भारतीय संस्कृति सदैव बताती रही है कि सांस्कृतिक मूल्य चिरंतन होते हैं। लेकिन बदलते समय के साथ आज होने वाले उत्सवों को देखें तो क्या महसूस होता है? ‘पुरानी बातें पुराणों में ही रहने दें!’ कहने वाले अथवा इस शक्ति जागर को ‘फेस्टिवल’ या ‘इवेंट’ बनाने वाले कई ‘इवेंट गुरु’ तैयार हो गए हैं। हजारों वर्षों से कायम भारतीय संस्कृति में देवी की उपासना अखिल मानव जाति के कल्याण के लिए ही की गई है और अगली पीढ़ियों को भी यही सांस्कृतिक- वैचारिक विरासत दी है। लेकिन आज जागररूपी इस आराधना का स्वरूप ‘बाजारू’ और केवल ‘दिखावटी’ हो गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।

आज समाज के सभी क्षेत्रों में बाजारूपन, कृत्रिमता और सतहीपन बढ़ रहा है और उसका प्रतिबिम्ब समाज में होने वाले विभिन्न उत्सवों में दिखाई दे रहा है। फिलहाल नवरात्र में देवी की आराधना, जागर के बदले लाउडस्पीकर के कर्णकर्कश आवाज, बीभत्स गीत लगाकर डी.जे. के ‘लाउड’ आवाज़ में खूब नाचना और आस पड़ोस में अशांति फैलाना ही मान्यता पा रहा है। भारतीय संस्कृति में उत्सव का एक स्वरूप, हेतु और उदात्त तत्व इस बाजारूपन में खो रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण ही कहना होगा। मूलतया मानवी मन को आनंद, शांति, संतोष, पवित्रता, मंगलता, उत्साह देने वाले और उदात्त मूल्यों का जतन करने वाले ये उत्सव ‘कष्ट देने वाले’ रूप में मनाए जा रहे हैं, जो अत्यंत अनुचित बात है।

आज के संदर्भ में आदिशक्ति के उत्सव की ओर हमें ‘शक्ति के ऊर्जा-स्रोत’ के रूप में ही देखना चाहिए। इन उत्सवों के जरिए समाज में ऊर्जा संक्रमण होने की आवश्यकता है। मैं कौन हूं?, मेरा स्थान, कार्य, महत्व क्या है? राष्ट्र के रूप में, समाज के रूप में मेरा चिंतन क्या है और इस चिंतन के विषय क्या हैं? इन बातों को समझना ही उपासना है। इन समस्याओं और चिंतन के प्रति संयम, आत्मबल, लगन, श्रद्धा और निष्ठा की दृष्टि से देखना, समझना ही ‘व्रत’ है।

हम स्त्री आदि शक्ति का रूप मानते हैं न? फिर आज हमारे समाज में माताओं, बहनों, पुत्रियों पर इतने संकट क्यों आ रहे हैं? महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों, बलात्कारों की ख़बरें क्यों आ रही हैं? लड़कियों के पिता से दहेज़- मान सम्मान का धन पाने का अपना हक होने की बात लड़कों के मन पर क्यों अंकित कराई जाती हैं? नतीजा यह होता है कि लड़का ‘सम्पत्ति’ बन जाता है और लड़की खर्चीली बात। फलस्वरूप गर्भ में ही लड़कियों को मार डाला जाता है। ‘प्रेम’ जैसे पवित्र शब्द का उपयोग कर कोमल लड़कियों को फँसाया जाता है। उनके चेहरों पर एसिड फेंकने वाले दुर्जन हमारे समाज में है ना? ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को स्वतंत्रता नहीं है, शहरी इलाकों में सुरक्षितता नहीं है। महिलाएं क्या करें और कैसे रहे यह सब पुरुष वर्ग तय करता है। उसकी सुरक्षा करने के बजाय उस पर अत्याचार करता है। धर्म और रूढ़ियों के आधार पर खड़ी खाप पंचायतें बलात्कारियों के खिलाफ बहिष्कार जैसा मामूली अस्त्र तक नहीं उठातीं। इसके बदले बलात्कारी महिला ही बहिष्कृत होती है।

आदि शक्ति देवी रूपी स्त्री के प्रति इस तरह के अन्याय करने के बजाए हम देवी का जागर, आराधना करने का पाखंड दिखाते हैं। यह आश्चर्य नहीं तो और क्या है? स्त्री शक्ति की उपासना, मातृभाव से होने वाली पूजा हमारी संस्कृति की विशेषता है, लेकिन इस बहाने हमने देवी को मंदिरों में कैद करके रख दिया है, ऐसा मुझे लगता है। मां, बहन, कन्या, सखी, पत्नी के रूप में जीवन में कदम-कदम पर मिलने वाली स्त्री को दिखावटी पूज्य मानकर हम इन सारे रिश्तों का जब-तब अपमान ही करते रहते हैं। दया, क्षमा, लज्जा जैसे गुण स्त्री के आविष्कार हैं। देवी के जागर और दर्शन के लिए भागमभागी करने वाले हम लोग हमारे निकट, आसपड़ोस में, अपने सानिध्य में देवी स्वरूप स्त्री की मौजूदगी को पहचान नहीं सकते, इसे क्या कहें?

राक्षसों का वध करने वाली ‘असुरमर्दिनी दुर्गा’ मंगलता और सत्प्रवृत्ति की विजय का प्रतीक है। कहते हैं कि पुराण काल में भीमकाय, चित्रविचित्र, सिर पर सींग वाले राक्षस हुआ करते थे। लेकिन वर्तमान में राक्षस नहीं हैं, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। आज मानवी देह भले राक्षस जैसी भले न हो लेकिन दूसरों को उपद्रव पहुंचाने वाली ‘राक्षसी प्रवृत्ति’ जैसी थी वैसी ही है और स्थान-स्थान पर उसकी मौजूदगी का अनुभव भी हो रहा है। अपने स्वार्थ के लिए, अपनी जेबें भरने के लिए दूसरों के मुंह का निवाला छीन लेने वाली भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति मौजूद है।

वर्तमान महंगाई का राक्षस इस भ्रष्टाचार की संतान है। वोटों के राजनीतिक स्वार्थ के लिए हिंदुओं की अवमानना करने वाला, हिंदू संतों को झूठे आरोपों में गिरफ्तार करवाने वाला दुष्ट राजनीतिक नेतृत्व है। पहले अपनी जाति की प्रगति के लिए संघर्ष हुआ करता था, अब अपनी जाति कैसी पिछड़ी है इसे बताने के लिए आंदोलन करने वाले स्वार्थी राजनीतिक नेता हैं। देश के सिर पर जिहादी आतंकवाद की तलवार टंगी है। ऐसी स्थिति में इन जिहादियों को बल देने वाले ‘मानवतावादी’ लोग हैं। बौद्धिक आतंक से विचार भ्रष्ट करने वाले बुद्धिवादी है।

अनेक सामाजिक, राष्ट्रीय समस्याएं, चुनौतियाँ, संकुचित होता व्यक्ति और समाज, विस्फोट, अपहरण, हमले, अतिक्रमण, धर्मांध प्रवृत्तियों द्वारा कराए गए दंगे आदि कई बातों का चारों ओर से हर क्षण हमारे समाज मानस पर आघात हो रहा है। विभिन्न मार्गों से इस देश पर, समाज पर व व्यक्तियों पर मंडराने वाली राक्षसी प्रवृत्तियां ये ही हैं। आज इन प्रवृत्तियों का नाश करने की सद्प्रवृत्तिस्वरूप ‘दुर्गा’ की भारतीय समाज को वास्तविक आवश्यकता है। लेकिन दुष्प्रवृत्तियों का नाश करने की अपेक्षा इन प्रवृत्तियों को जन्म देने वाली ‘प्रक्रिया’ हम से अनजाने ही होती जाती है। नवरात्र हो या दशहरा ‘बुराइयों पर सत्य की विजय’ भारतीय समाज की पक्की धारणा है। फलस्वरूप कोई महामानव आकर हमारी समस्याओं को हल करेगा इस विश्वास के साथ भारतीय समाज जीता है। समाज के भ्रष्टाचारियों, धनपतियों से प्राप्त चन्दे से देवी के जागरण की रोशनाई, दुर्गा मूर्ति, दुर्गा पूजा व नौ दिनों के संगीतमय डांडिया की व्यवस्था हो तो वह देवी का भक्त (?) नृत्य के बहाने तल्लीन हो जाता है और दशहरे के दिन अपने ही इलाके के पूंजीवादी, मिलावटखोर या भ्रष्ट राजनीतिक व्यक्ति के ‘शुभ हाथों’ (?) भ्रष्टाचारी, दुराचारी वृत्ति के प्रतीक रावण के पुतले का दहन करता है। इस तरह बुरी प्रवृत्तियों का नाश करने वाले, दुष्टों पर विजय प्राप्त करने वाले इस उत्सव में बुरी प्रवृत्तियों का ही पुनर्जीविकरण करते हुए हर विजयादशमी को ‘बुराइयों पर सत्य का विजय’ होगी यह मानकर चला जाता है।

मन इस प्रश्न से उद्विग्न होता है कि क्या सिद्धांतों के बिना राजनीति, समर्पण के बिना पूजा, विवेक के बिना उपभोग जैसे पापपूर्ण आचरण राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्रों में हो रहा है? अन्याय, अत्याचार, अनीति के विरुद्ध त्वेष के साथ उठ खड़े होने वाला सुसंस्कृत ‘मन’ और उसके अनुसार कृति करने वाला ‘साहस’ वास्तव में आदिशक्ति का मूल स्वरूप है। आज सद्प्रवृत्तियों का पूजन कर हरेक के मन में बसी ‘दुर्गा’ जगाना अत्यंत आवश्यक है। हजारों वर्षों से मानवता के कल्याण का चिंतन करने वाला यह देश है। आज समाज में जो आडम्बर बढ़ रहा है उसे दूर किया जाना चाहिए। वर्तमान बाजारू व दिखावटी जीवनशैली के कारण हमारा समाज आज बेपरवाह स्थिति में है। हमारे मन में बसे राष्ट्रप्रेम, समाज हित व संस्कृति के रक्षण की मूल प्रवृत्ति हमने अपने स्वार्थ के कपड़े में बांध रखी है। कभी तात्कालिक लाभ के लिए तो कभी अज्ञान के कारण हमने दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध लड़ाई के अपने शस्त्र अपने मन के शमी वृक्ष में छिपाकर रखे हैं। वे छिपाकर रखे गए विचाररूपी शस्त्र निकालकर हाथ में लेने की नितांत आवश्यकता है। दैवी शक्ति और महान व्यक्ति के चमत्कारों से अपनी दयनीय अवस्था से मुक्ति होगी यह विश्वास रखना हमारी अखिल भारतीय प्रवृत्ति है। बुराइयों को समाप्त करने के लिए सब से अधिक अपनी नैतिक शक्ति पर भरोसा करना चाहिए। आज के ‘असुरों’ को रोकने के लिए समाज के मन में, व्यक्ति-व्यक्ति के मन में जागरण का भाव पैदा करने की आज आवश्यकता है।

इस देश को, समाज को व देश के व्यक्ति समुदाय को सम्मान के साथ जीनेयोग्य बनाना हमारा ही दायित्व है। इसके लिए वर्तमान की ‘राक्षसी समस्याओं’ व राक्षसी प्रवृत्तियों से संघर्ष के मार्ग ‘दुर्गा’ के नवरात्र जागर में हमें खोजना है। व्यक्ति के मन, बुद्धि और कलाई की ताकतरूपी ‘दुर्गा’ यदि वास्तविक रूप में जागृत हुई तो समाज में असुर प्रवृत्तियों के समूल निर्मूलन की दिशा में, एक स्वस्थ, सम्पन्न, सामर्थ्यपूर्ण समाज के निर्माण की दिशा में मार्गक्रमण हो सकेगा। यदि ऐसा हो तो ही नवरात्रोत्सव में सही अर्थ में ‘दुर्गा’, ‘आदिमाता’ पूजा का जागर हो गया ऐसा कहा जा सकेगा। अन्यथा वह केवल एक पाखंडी, कृत्रिम और दिखावटी उत्सव बनकर रह जाएगा।

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