धर्म तथा युगधर्म

हम भारतीय उपभोक्ता जब इस दीपावली की खरीदी के लिए बाजार जाएंगे तो इस चिंतन के साथ स्थिति की गंभीरता पर गौर करें कि आपकी दीवाली की ठेठ पुराने समय से चली आ रही और आज के दौर में नई जन्मी दीपावली की आवश्यकताओं को चीनी औद्योगिक तंत्र ने किस प्रकार से समझ बूझकर आपकी हर जरुरत पर कब्जा जमा लिया है।  दिये, झालर, पटाखे, खिलौने, मोमबत्तियां, लाइटिंग, लक्ष्मी जी की मूर्तियां आदि से लेकर त्यौहारी कपड़ों तक सभी कुछ चीन हमारे बाजारों में उतार चुका है और हम इन्हें खरीद-खरीद कर शनैः शनैः एक नई आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ रहे हैं।

कोरोना कालखंड के मध्य में आ रहे हिंदुओ के सबसे विशिष्ट उत्सव दीवाली का जब चिंतन किया तो खयाल आया कि एक धर्म होता है व एक युगधर्म। धर्म व युगधर्म के मध्य समन्वय वही बैठा सकता है जो धर्मशील व धर्मनिष्ठ हो। दीवाली या अन्य त्यौहार हमें युगधर्म के अनुरूप ही मनाने होगे, एक हिंदू होने के नाते हमें युगधर्म को पहचानना होगा। धर्म व युगधर्म मेंं पीढ़ीगत व समसामयिक  विरोधाभास उपजते रहते हैं। समाज में विरोधाभास उपजना, विरोधाभास पर सकारात्मक चिंतन व विवाद होना व तत्पश्चात एक सामयिक, सटीक, सात्विक निर्णय पर पहुंचना ही एक जागृत व चैतन्य समाज के लक्षण होते हैं। किंतु धर्म व युगधर्म का जब सम्मिलन न हो तो समझ लेना की धर्मसंकट उपजेगा और धर्मसंकट से मुक्ति केवल श्रीकृष्ण दिलवा सकते हैं। ये व्यक्ति पर निर्भर होता है कि वह अपना कृष्ण किसे माने। माखनचोर भी कृष्ण हैं व सुदर्शनधारी भी कृष्ण हैं।

पर्व, उत्सव, त्यौहार हमारी धार्मिक व राष्ट्रीय विशेषता है। इन उत्सवो मेंं समयानुरूप व कालोचित परिवर्तन को हम हिंदू बड़ी ही सहजता से स्वीकार करते रहते हैं। स्वयं परिशोधित, संशोधित व परिष्कृत करते रहना ही हिंदुत्व की विशेषता रही है। कोरोना के चलते विश्वभर मेंं उपजे आर्थिक संकट से हमारा देश और हमारा हिंदुत्व भी अछूता नहीं है। इस संकट के निमित्त हमें भी हमारे आचार, विचार, त्यौहार मेंं कुछ परिवर्तन करने होगे। कुछ वर्ष पूर्व   प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने समूचे देश से एक आग्रह किया था कि दीवाली पर अपने देश के मेंदूर के हाथो से बने और अपने देश की मिट्टी से बने दिये ही जलाना। विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र का प्रमुख 138 करोड़ भारतीयो का मुखिया, विश्व का शक्तिशाली नेता यदि एक छोटे से एक रुपए के दिये को अपने किसी भाषण का केद्रीय विषय बनाए तो आश्चर्य होता है, किंतु यही भारतीयता की व हिंदुत्व की विशेषता है। हमारे यहां चींटी को श्रद्धापूर्वक दाना भी डाला जाता है व हाथी को पूजा भी जाता है। दीवाली शुभ-लाभ के केद्रीय व स्थायी भाव का उत्सव है। भारतीय परम्पराओ और शास्त्रो में केवल लाभ अर्जन करने को ही लक्ष्य नहीं माना गया बल्कि वह लाभ शुभता के मार्ग से आया हो तो ही स्वीकार्य माना गया है। विचार शुभ हो, जीवन शुभ हो और लाभ अर्थात जीवन में मिलने वाला प्रत्येक आनंद या प्रतिफल भी शुभ और शुचिता पूर्ण हो और उससे केवल व्यक्ति विशेष नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज आनंद प्राप्त कर परिमार्जित हो तो ही वह शुभ-लाभ है। इस दीवाली अपनी मिट्टी के ही दिये जलाना यह कहने के कुछ वर्षों बाद हमारे प्रधानमंत्री मोदीजी ने कोरोना के संकटकाल में दो और प्रेरक मंत्र देशवासियो के समक्ष रखे -र् ीेंलरश्र षेी श्रेलरश्र और आत्मनिर्भरता। हमारे धार्मिक तंत्र-मंत्र तो हमारे जीवन आधार हैं ही, किंतु राष्ट्रनायक द्वारा दिये गए इन मंत्रो को भी हमें युगमंत्र मानना होगा। इन नए युगमंत्रो के अनुसार हमें अपना चाल, चरित्र, चेहरा बदलना होगा।

दीवाली एवं वर्ष भर के अन्य तीज-त्यौहारो पर जिस प्रकार हम, हमारे राष्ट्रीय प्रतिद्वंदी बन गए चीन के सामानो का उपयोग कर रहे हैं, उससे तो कतई और कदापि शुभ-लाभ नहीं होने वाला है। एक सार्वभौम व स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में हम, हमारी समझ, हमारी अर्थ व्यवस्था और हमारे तंत्र-यंत्र अभी शिशु अवस्था में ही है। इस शिशु मानस पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी और उसके बाद के अंग्रेजो के व्यापार के नाम पर हमारे देश पर हुए कब्जे और इसकी लूट खसोट की अनगिनत कहानियां अंकित ही रहती है और हम यदा-कदा और सर्वदा ही इस अंग्रेजी लूट खसोट की चर्चा करते रहते हैं, किंतु यह कटु सत्य है कि इससे हम कुछ अधिक सीख नहीं पाए हैं। यद्दपि हम और हमारा राष्ट्र आज उतने भोले नहीं है जितने पिछली सदियो में थे तथापि विदेशी सामान को क्रय करने के विषय में हमारे देशी आग्रह जरा कमजोर क्यों पड़ते हैं इस बात का अध्ययन और मनन हमें आज के इस बाजार सर्वोपरि के युग में करना ही चाहिए। आज हमारे बाजारों में चीनी सामानों की बहुलता और इन सामानों से ध्वस्त होती भारतीय अर्थव्यवस्था और छिन्न भिन्न होते ओद्योगिक तंत्र को देख-समझ ही नहीं पा रहे हैं और हमारा शासन तंत्र और जनतंत्र दोनों ही इस स्थिति को सहजता से स्वीकार कर रहे हैं, इससे तो यही लगता है।

हम भारतीय उपभोक्ता जब इस दीपावली की खरीदी के लिए बाजार जाएंगे तो इस चिंतन के साथ स्थिति की गंभीरता पर गौर करें कि आपकी दीवाली की ठेठ पुराने समय से चली आ रही और आज के दौर में नई जन्मी दीपावली की आवश्यकताओं को चीनी औद्योगिक तंत्र ने किस प्रकार से समझ बूझकर आपकी हर जरुरत पर कब्जा जमा लिया है।  दिये, झालर, पटाखे, खिलौने, मोमबत्तियां, लाइटिंग, लक्ष्मी जी की मूर्तियां आदि से लेकर त्यौहारी कपड़ों तक सभी कुछ चीन हमारे बाजारों में उतार चुका है और हम इन्हें खरीद-खरीद कर शनैः शनैः एक नई आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ रहे हैं। दीपावली के इन चीनी सामानो में निरंतर हो रहे षड्यंत्रपूर्ण नवाचारों से हमारी दीपावली और लक्ष्मी पूजन का स्वरुप ही बदल रहा है। हमारा ठेठ पारम्परिक स्वरुप और पौराणिक मान्यताएं कहीं पीछे छूटती जा रहीं हैं और हम केवल आर्थिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक गुलामी को भी गले लगा रहे हैं। हमारे पटाखों का स्वरुप और आकार बदलने से हमारी मानसिकता भी बदल रही है और अब बच्चों के हाथ में टिकली फोड़ने का तमंचा नहीं बल्कि नए-नए मॉडल की बंदूकों के प्रतिरूप, हिंसक मानसिकता उपजाने वाले खिलौने दिखने लगे हैं। इस सबसे हमारा लघु उद्योग तंत्र बेहद बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। पारिवारिक आधार पर चलने वाले कुटीर उद्योग जो दीवाली के महीनों पूर्व से पटाखे, झालरें, दिए, मूर्तियां आदि-आदि बनाने लगते थे; वे तबाही और नष्ट हो जाने के कगार पर पहुंच गए हैं। इस नए उपजे कुचक्र से केवल कुटीर उत्पादक तंत्र ही नहीं बल्कि छोटे, मझोले और बड़े तीनों स्तर पर पीढ़ियों से दीवाली की वस्तुओं का व्यवसाय करने वाला एक बड़ा स्थानीय तंत्र पंगु हो गया है।

कोरोना नामक इस महाविपदा के समय हमारे संकटग्रस्त अर्थतन्त्र को संभालने हेतु हमें कई प्रकार के उपाय छोटे-छोटे स्तर पर करते रहने होंगे। बड़े नगरों से पलायन करके लाखों मजदूर अपने गांवो में आ गए हैं व अनलॉक के बाद भी अपने काम पर लौटे नहीं हैं। वे अपने गांव के आसपास ही छोटा मोटा व्यवसाय या किसी भी प्रकार का रोजगार करने लगे हैं। ठेला रेहड़ी पर रखकर कुछ बनाने बेचने लगे हैं या अन्य प्रकार से किसी स्थानीय रोजगार को अपना रहे हैं। आज देश का सबसे बड़ा युगधर्म है कि ऐसे छोटे-छोटे स्तर पर इन मजदूरों की रोजी रोजगार में गिलहरी जैसा ही सही पर अपना योगदान अवश्य देना चाहिए। हमें स्थानीय उत्पादन को प्रत्येक प्रकार का संबल देना होगा। उसे खरीदकर यहां-वहां स्थानीय उत्पादन की चर्चा व प्रशंसा करके। शासन ने व्यवस्थाओं को अनलॉक किया है, हमें मानसिकता को अनलॉक करना होगा। हमारे कार्यालय से लेकर समाज तक और समाज से लेकर घर तक केवल वोकल फॉर लोकल का वाक्य क्रियान्वित होते रहना चाहिए।

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